Friday, 21 December 2018

वक्त बे वक्त झुंझला जाता हूँ
हर किसी पे तो तोहमत लगता हूँ

ख्वाइशो की बेजा इस दौड़ में
मै कब कहाँ सुकून से जी पाता हूँ

दम भरने की भी कहाँ मुझे फुर्सत
पता नहीं ऐसा क्या खास मै चाहता हूँ

अब तक हांसिल किये जो मुकाम
उनका भी जश्न कब  कहाँ मनाता हूं

जरूरतें सारी कब किसकी पूरी हुई
मै तो हर रोज नयी जरूरत बनाता हूँ

पता न चला कब कहाँ रिस गयी जवानी
हर सवेरे अपने आइने से नज़रे चुराता हूँ