GSVM कानपुर में इन्टर्नशिप से पहले का समय काफी हसीन गुजरा , हालाँकि तालीम की कई दुश्वारियां थी ,आये दिन होने वाले इम्तिहान आप को अन्दर तक चूस लेते थे , लम्बे अरसे तक सिर उठाने और खुलके सांस लेने से महरूम रखते थे पर इनका भी अपना अलग ही मज़ा था , ये आपके धैर्य और सामर्थ्य को अच्छी तरह परखते थे और इनके उपरांत होने वाले वे विशेष “आनंदोत्सव” जिसमें आप अपनी समस्त वर्जनाओ को तोड़ खुद को व्यक्त करते थे , सभी को प्रफुल्लित और पोषित कर अगली चुनौती के लिए फिर से तैयार कर देते थे ...
UG में पढाई के अलावा अन्य कोई विशेष चिंता नहीं होती थी , और तमाम कोशिशे रहती थी उन अदद ५० प्रतिशत नम्बरों की ...अंतिम समय में होने वाला वो अपार श्रम, विरोधियो द्वारा जकड़े हुए उस कबड्डी के खिलाडी की दशा को बयां करता था जो सांस रोके हुए उस सफ़ेद लकीर को छूने के लिए अपना सर्वस्व दाव पे लगा देता है...
इन्टर्नशिप की इससे अलग बड़ी ही अजीब व्यथा थी , एक तो final prof के लंम्बे ३ महीने तक चलने वाले exam आपके अन्दर तक निचोड़ कर रख देते थे ठीक उस crusher की तरह जो गन्ने का समस्त रस निकल कर केवल सूखी खोई ही छोड़ देता है और दूसरा PG entrance exam की विकराल चुनौती मुँहबाय सामने खडी हो जाती थी जो हम जैसे अधिकतर महानुभावों की हालत दुबले पे दो आषाढ वाली कर देती थी ....
अपने इंजिनियर साथियों की निरंतर लगती अच्छी नौकरियां , स्कूल की साथ पढी लडकियों की होती शादियाँ, पड़ोसियों के वो पड़ताली सवाल , माँ-पिताजी भाई-बहनों की हम से महत्त्वकांक्षाएँ, अपना अधर में लटका भविष्य, और निरंतर बढ़ती उम्र , सब एक साथ मिश्रित हो अपने भीतर बड़ी ही खीज उत्पन्न करते थे ...
लोगों की नज़र में डॉक्टर बन जाते थे पर अपनी हकीकत से सिर्फ हम ही वाकिफ होते थे ...
सीमित अवसर ,प्रबल प्रतिस्पर्धा और खुद को दूसरे से बेहतर साबित करने की सोच आपसी संबंधो को पुन: परिभाषित करती थी , पुराने टूटते थे और नए गठजोड़ बनते थे , साथी अब प्रतिद्वंदी सरीखे नज़र आते थे , बहुत कुछ गुपचुप तरीके से होता था और मन और कर्म न चाहते हुए भी बहुत कुछ हद तक स्वार्थी हो जाते थे ...
कुछ हम जैसे लोग जिन्हें अपना लक्ष्य साफ़-साफ़ नजर नहीं आता था एक अजीब उधेड़बुन में लिप्त रहते थे , सेना में जाना , PMS की नौकरी , दिल्ली की HOUSE JOB, या फिर अगले साल पूरी मशक्कत से फिर तैयारी की सोच के मध्य मन कितना चलायमान होता था पर एक बात तो बिलकुल तय थी हम किसी के लिए कोई खतरा/प्रतिस्पर्धा उत्पन्न नहीं करते थे इसलिए हमारी लोकप्रियता अक्षुण बनी रहती थी...
इस दौरान कई कक्ष-सहयोगियों की जोड़ियाँ टूटती, अपने समीकरणों के हिसाब से लोग अपनी तैयारी को अंजाम देते थे ,college से इन्टर्नशिप करना अधिकतर लोगों को नहीं भाता था , क्योंकि यहाँ कार्य करने की बाध्यता थी , सब को तलाश रहती थी एक ऐसे जगह की जहाँ जाना न पड़े और बिना किसी व्यवधान के प्रचुर मात्रा में समय मिले उन वस्तुनिष्ठ प्रश्नों से जूझने के लिए...
PG entrance exam देने के लिए जाना किसी उत्सव से कम न होता था , महीनो पहले से रेल टिकट अरक्षित करा लिया जाता था , रुकने की जगह तय कर ली जाती थी , और एडमिट कार्ड आते ही परीक्षा केंद्र की खोज-खबर आरंभ हो जाती थी... अनेको अनिश्चिताओं के मध्य स्वयं को धैर्य और दिलासा देते हुए ये सफ़र भी तय हो ही जाता था...
परीक्षा से एक दिन पूर्व ही उस शहर में पहुँच लिया जाता था , और शाम को परीक्षा केंद्र की recci करने के उपरांत अगला कदम होता था उन रिश्तेदार को (जिनके घर फ़िलहाल आप शरण लिए हुए हो) यह समझाना की आप डॉक्टर बनने के बाद ये कौन सी परीक्षा दे रहे हो और इससे क्या होंगा ... बहुत से लोग इस बेचारगी से बचने और एकाग्रता के लिए रिश्तेदार के घर को छोड़ किसी सस्ते, मद्दे और टिकाऊ होटल की शरण ले लेते थे...
परीक्षा केंद्र में बड़ा ही कब्जियत (constipated) वाला माहौल होता था , अनेको नए पुराने चेहरे नज़र आते थे , अभिवादन तो होता था पर शायद दिल से नहीं , क्या साथी , क्या वरिष्ठ,क्या कनिष्ठ .... हर एक उपस्थित जन यहाँ सिर्फ एक प्रतिद्वंदी होता था... अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने की राह में एक अवरोध ... कई काफी पुराने सीनियर्स को यहाँ देख हर्ष और अफ़सोस की मिश्रित सी अनुभूति होती थी ... और वो भी भरसक कोशिश करते, नज़र मिल जाने पर भी नज़र चुराने की ...
खैर कई सालो की अथक मेहनत का मूल्यांकन हमारी रिवायती व्यवस्था द्वारा उन चंद घंटो में कर लिया जाता और योग्यता को परखने की इस प्रणाली पर हर दिन उठते आरोपो- प्रत्यारोपो, अपने द्वारा attempt किये गए सही-गलत सवालो की प्रतिदिन होती गणना के मध्य सबको इंतज़ार रहता था रिजल्ट वाले दिन का जो अक्सर ही विलम्ब से ही आता था.…
आंखिरकार वो बहुप्रतीक्षित दिन भी आ ही जाता था , किसी को बहुत कुछ मिलकर भी मलाल रहता तो किसी को सिर्फ पार पा जाने की बेतहाशा ख़ुशी, किसी की सफलता घनघोर शक के दायरे में होती थी तो कई छुपे रुस्तम वाकई में सबकी प्रशंसा के पात्र होते थे. हर्ष और मातम के मध्य एक चीज का होना तो बिलकुल तय था और वो थी ‘दारू पार्टी’... hostel wing में उसदिन बहती अविरल मदिरा की धारा का सबसे ज्यादा लुत्फ़ लेने वाले जूनियर्स ही होते थे ....
सफलता का जश्न थोडे दिनों का ही होता है ... बड़ी सफलता कुछ अरसे बाद बड़ा निर्वात भी लाती है और इसका अहसास तब तक रहता है जब तक आप फिर से किसी नई जिम्मेदारी मे मसरूफ नहीं हो जाते ....
ये नहीं होता तो वो होता , थोड़ी कसक और कई क्रमचय और संयोजन (permutation and combination) लिए मन आज भी कितना सोचने पे मजबूर हो ही जाता है ..... :)
UG में पढाई के अलावा अन्य कोई विशेष चिंता नहीं होती थी , और तमाम कोशिशे रहती थी उन अदद ५० प्रतिशत नम्बरों की ...अंतिम समय में होने वाला वो अपार श्रम, विरोधियो द्वारा जकड़े हुए उस कबड्डी के खिलाडी की दशा को बयां करता था जो सांस रोके हुए उस सफ़ेद लकीर को छूने के लिए अपना सर्वस्व दाव पे लगा देता है...
इन्टर्नशिप की इससे अलग बड़ी ही अजीब व्यथा थी , एक तो final prof के लंम्बे ३ महीने तक चलने वाले exam आपके अन्दर तक निचोड़ कर रख देते थे ठीक उस crusher की तरह जो गन्ने का समस्त रस निकल कर केवल सूखी खोई ही छोड़ देता है और दूसरा PG entrance exam की विकराल चुनौती मुँहबाय सामने खडी हो जाती थी जो हम जैसे अधिकतर महानुभावों की हालत दुबले पे दो आषाढ वाली कर देती थी ....
अपने इंजिनियर साथियों की निरंतर लगती अच्छी नौकरियां , स्कूल की साथ पढी लडकियों की होती शादियाँ, पड़ोसियों के वो पड़ताली सवाल , माँ-पिताजी भाई-बहनों की हम से महत्त्वकांक्षाएँ, अपना अधर में लटका भविष्य, और निरंतर बढ़ती उम्र , सब एक साथ मिश्रित हो अपने भीतर बड़ी ही खीज उत्पन्न करते थे ...
लोगों की नज़र में डॉक्टर बन जाते थे पर अपनी हकीकत से सिर्फ हम ही वाकिफ होते थे ...
सीमित अवसर ,प्रबल प्रतिस्पर्धा और खुद को दूसरे से बेहतर साबित करने की सोच आपसी संबंधो को पुन: परिभाषित करती थी , पुराने टूटते थे और नए गठजोड़ बनते थे , साथी अब प्रतिद्वंदी सरीखे नज़र आते थे , बहुत कुछ गुपचुप तरीके से होता था और मन और कर्म न चाहते हुए भी बहुत कुछ हद तक स्वार्थी हो जाते थे ...
कुछ हम जैसे लोग जिन्हें अपना लक्ष्य साफ़-साफ़ नजर नहीं आता था एक अजीब उधेड़बुन में लिप्त रहते थे , सेना में जाना , PMS की नौकरी , दिल्ली की HOUSE JOB, या फिर अगले साल पूरी मशक्कत से फिर तैयारी की सोच के मध्य मन कितना चलायमान होता था पर एक बात तो बिलकुल तय थी हम किसी के लिए कोई खतरा/प्रतिस्पर्धा उत्पन्न नहीं करते थे इसलिए हमारी लोकप्रियता अक्षुण बनी रहती थी...
इस दौरान कई कक्ष-सहयोगियों की जोड़ियाँ टूटती, अपने समीकरणों के हिसाब से लोग अपनी तैयारी को अंजाम देते थे ,college से इन्टर्नशिप करना अधिकतर लोगों को नहीं भाता था , क्योंकि यहाँ कार्य करने की बाध्यता थी , सब को तलाश रहती थी एक ऐसे जगह की जहाँ जाना न पड़े और बिना किसी व्यवधान के प्रचुर मात्रा में समय मिले उन वस्तुनिष्ठ प्रश्नों से जूझने के लिए...
PG entrance exam देने के लिए जाना किसी उत्सव से कम न होता था , महीनो पहले से रेल टिकट अरक्षित करा लिया जाता था , रुकने की जगह तय कर ली जाती थी , और एडमिट कार्ड आते ही परीक्षा केंद्र की खोज-खबर आरंभ हो जाती थी... अनेको अनिश्चिताओं के मध्य स्वयं को धैर्य और दिलासा देते हुए ये सफ़र भी तय हो ही जाता था...
परीक्षा से एक दिन पूर्व ही उस शहर में पहुँच लिया जाता था , और शाम को परीक्षा केंद्र की recci करने के उपरांत अगला कदम होता था उन रिश्तेदार को (जिनके घर फ़िलहाल आप शरण लिए हुए हो) यह समझाना की आप डॉक्टर बनने के बाद ये कौन सी परीक्षा दे रहे हो और इससे क्या होंगा ... बहुत से लोग इस बेचारगी से बचने और एकाग्रता के लिए रिश्तेदार के घर को छोड़ किसी सस्ते, मद्दे और टिकाऊ होटल की शरण ले लेते थे...
परीक्षा केंद्र में बड़ा ही कब्जियत (constipated) वाला माहौल होता था , अनेको नए पुराने चेहरे नज़र आते थे , अभिवादन तो होता था पर शायद दिल से नहीं , क्या साथी , क्या वरिष्ठ,क्या कनिष्ठ .... हर एक उपस्थित जन यहाँ सिर्फ एक प्रतिद्वंदी होता था... अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने की राह में एक अवरोध ... कई काफी पुराने सीनियर्स को यहाँ देख हर्ष और अफ़सोस की मिश्रित सी अनुभूति होती थी ... और वो भी भरसक कोशिश करते, नज़र मिल जाने पर भी नज़र चुराने की ...
खैर कई सालो की अथक मेहनत का मूल्यांकन हमारी रिवायती व्यवस्था द्वारा उन चंद घंटो में कर लिया जाता और योग्यता को परखने की इस प्रणाली पर हर दिन उठते आरोपो- प्रत्यारोपो, अपने द्वारा attempt किये गए सही-गलत सवालो की प्रतिदिन होती गणना के मध्य सबको इंतज़ार रहता था रिजल्ट वाले दिन का जो अक्सर ही विलम्ब से ही आता था.…
आंखिरकार वो बहुप्रतीक्षित दिन भी आ ही जाता था , किसी को बहुत कुछ मिलकर भी मलाल रहता तो किसी को सिर्फ पार पा जाने की बेतहाशा ख़ुशी, किसी की सफलता घनघोर शक के दायरे में होती थी तो कई छुपे रुस्तम वाकई में सबकी प्रशंसा के पात्र होते थे. हर्ष और मातम के मध्य एक चीज का होना तो बिलकुल तय था और वो थी ‘दारू पार्टी’... hostel wing में उसदिन बहती अविरल मदिरा की धारा का सबसे ज्यादा लुत्फ़ लेने वाले जूनियर्स ही होते थे ....
सफलता का जश्न थोडे दिनों का ही होता है ... बड़ी सफलता कुछ अरसे बाद बड़ा निर्वात भी लाती है और इसका अहसास तब तक रहता है जब तक आप फिर से किसी नई जिम्मेदारी मे मसरूफ नहीं हो जाते ....
ये नहीं होता तो वो होता , थोड़ी कसक और कई क्रमचय और संयोजन (permutation and combination) लिए मन आज भी कितना सोचने पे मजबूर हो ही जाता है ..... :)
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