Wednesday, 31 December 2014

कड़ा अनुशासन , संस्कारों की हरदम पिलाई जाने वाली घुट्टी , और सिर्फ और सिर्फ पढाई पे जोर.… कुछ ऐसा ही था ना हमारा बचपन ... घर में लकड़ी के शटर वाला ब्लैक एंड वाइट टीवी तो था पर देखने पर जबरदस्त राशनिंग थी , समाचार के समय खुलता और एक धारावाहिक ख़तम होने पे बंद हो जाता , स्कूल खुले होने पे चित्रहार देखने की मनाही थी अगर गलती से ऐसा करते हुए पकडे जाते तो तुरंत ही लक्षण अच्छे न होने का ताना मिल जाता और साथ ही मिलता बम्बई जाकर हीरो बन जाने का चुभता सा परामर्श...
घर में कोई फ़िल्मी पत्रिका न आती थी , इतवार को बाल कटाते समय नाई की दुकान की मायापुरी/पंजाब केसरी अख़बार ही मायानगरी की मसालेदार खबरों को जानने का जरिया बनते , यदा कदा इंडिया टुडे आ जाती थी पर उसमें लिखे अधिकांश लेख बड़े नीरस लगते , अंतिम पन्ने पे ही दिलचस्पी होती इसलिए हमेशा उसे पीछे से ही खोला जाता, किशोरावस्था में अन्तःस्रावी ग्रंथियों का प्रचुर मात्रा में होता स्राव मस्तिष्क कितनी जिज्ञासाएँ उत्पन्न करता और प्रेरित करता कुछ दुःसाहस करने के लिए.… दूरदर्शन में शुक्रवार देर रात्रि आने वाली फिल्म को चुपके से देखने का सफल/असफल प्रयत्न इसी श्रेणी में आता .… 
घर में सबसे छोटे होने का फायदे से ज्यादा मुझे नुक्सान लगा , हालांकि माँ-पिताजी का खूब स्नेह भी मिला और भाई -बहनो से होने वाले झगड़ो में अनुचित लाभ भी पर हर बार पढाई में उनसे होने वाली तुलना अंदर तक कुढ़ा देती और हीनता का यह अहसास और प्रबल हो जाता जब स्कूल में गुरूजी लोग भी आपके सम्मुख उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते... उनकी सफलतायें मेरे लिए प्रेरणा न होके एक चुनौती बन जाती और खुद को साबित करने की जिद्द और फितूर लिए देर-सबेर हम भी कूद ही जाते बिलकुल भी न भाने वाले इस पठन-पाठन के इस कार्य में.…
खैर हम भी पहुँच ही गए GSVM KANPUR, नाकामयाबी की गठरी सिर उतार सफलता की अटैची हमारे हाथो में थी और दिल में था बहुत सारा सुकून। आमा (दादी ) की देहावसान के कारण पिताजी क्रिया में बैठे थे इसलिए उनका एडमिशन के लिए कानपुर जाना संभव न था अतः ये जिम्मेदारी ली बड़े भईया ने ...
जनता एक्सप्रेस से लखनऊ पहुँच आगे का सफर उत्तर प्रदेश रोडवेज की बस से तय हुआ , इससे पहले भइया भी कभी कानपुर नहीं आये थे इसलिए ये शहर हम दोनों के लिए नया था , जाते समय पिताजी अपने हम सबके परिचित दुबेजी का पता दे दिया था और हम खोजते-खोजते उनके घर पहुँच ही गए.…
प्रवेश की औपचारिकता पूरी करने के बाद जद्दोजेहद शुरू हुई रिहाइश की.… हमारे समय बॉयज हॉस्टल -५ (BH -5 ) नहीं था , प्रथम वर्ष के विद्यार्थी को अपने रहने का इंतज़ाम कॉलेज से बाहर खुद ही करना पड़ता था , आने-जाने , खाने पीने की सैकड़ो दिक्कतें होती और हम जैसे मध्यमवर्गी परिवार से आये लोगो के लिए ये वित्तीय संकट भी उत्पन्न करता था.…
इन सब के बीच घर से दूर स्वतंत्र माहौल ने हमें पंख दिए , दबी ख्वाहिशें बाहर निकल पूरी होने लगी , यह खुद से प्रयोग करने का समय था, वयस्क होने का नया-नया अनुभव था , पहले निषेध सी लगनी वाली चीजे अब कितनी सहज थी , सुबह की चाय से लेकर रात में सोने के समय के सुट्टे तक की हर चीज एक नयापन और ताजगी लिए थी , पहली बार रोजमर्रा के अपने निर्णय खुद लेने का वो अहसास कितना सुखद था..
बाहर रहने की परेशानियों के मध्य पहचान के वरिष्ठों से college हॉस्टल में आकर रहने का आदेश निहित प्रस्ताव प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने संबंधो के बलबूते एक tetra (बड़े से कमरे) का जुगाड़ BH-1कर दिया था, नवागुंतक होने का डर, बाहर रहने की रोज की होती दुश्वारियो के आगे कितना छोटा नज़र आने लगा और हम अपना बोरिया-बिस्तर समेंट के आंखिरकार छात्रावास आ ही गए.…
नए बनते संबध पुराने सबंधो के छूटने के कमी को काफी हद तक पूरी कर रहे थे और हम तल्लीन थे खुद की खोज में...

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