Monday, 2 November 2015

दरवाजे पे  हुई दस्तक , मेहमान आये
साथ में अपने ढेरों सामान लाये
माँ ने झट पैसे थमा दिए बिस्कुट-नमकीन लाने को
पर मन नहीं कर रहा इस समय बाहर जाने को

दिलो-दिमाग तो उन मिठाई के डिब्बों पे ही टिका है
देखें तो सही अपने नसीब आज क्या खाने को लिखा है
मथुरा के पड़े हैं  कि मूंग की दाल का हलवा है
या फिर आगरे के पेठे और दालमोठ का जलवा है

तभी पता चला मेहमान आज रात यहीं रुकेंगे
हृदय गदगद हुआ चलो आज घर में पूरी पकवान बनेंगे
अतिथि सत्कार की  वर्षो पुरानी परंपरा है
चूल्हे पे कढ़ाई न लगे  ऐसा भला कब हुआ है ?

उनका सामान अब रख दिया अंदर के कमरे में
माँ तुरंत ही  लग गयी है बिस्तर की चादर बदलने में
सिर पे पल्लू और और धोती का एक सिरा मुंह में दबा है
बुजुर्गो के प्रति सम्मान उन्होंने  प्रकट कर दिया है

बड़े भइया दौड़ पड़े है दफ्तर से पिताजी को लाने को
उन्होंने भी जरा देर न लगाई घर आने को
सब्जी का भरा उन्होंने माँ को रसोई में थमाया
थोड़ी खुसर- पुसर हुई जैसे ही  मेहमानों को नजरों से दूर पाया

राजी-ख़ुशी ,कुशल-क्षेम पूछने  का  सिलसिला है
बातो -बातों में अतिथि आगमन का प्रयोजन पता चला है
चाची के पिताजी के साथ एक बूढ़े सभ्रांत सज्जन आये हैं
हमारी प्यारी सी दीदी के लिए अपने भांजे का रिश्ता लाये है

माँ जुटी  है पूरी तत्परता के साथ खाना बनाने में
सख्त चेतावनी है बाद की मार की, शोर मचाने में
रात के खाने की मेज अब सज गई है
रायते , आलू गोभी , मटर -पनीर के साथ खीर भी बनी है

बासमती के खिले -खिले चावलों में जीरे का तड़का है
सुना है अच्छे-खाते पीते घर का सभ्य-सुशील लड़का है
पिताजी भी चाह रहे हैं कि यहाँ बात बन जायें
अच्छे देखे-भाले घर में बेटी रुख्सत हो जाए

दीदी हमारी भी तो कितनी गुणी है
हर किसी से हमने उसकी तारीफ ही सुनी है
पढ़ने लिखने होशियार और तेज-तरार है
समस्त गृह-कार्य में भी दक्ष ,ये कन्या नायाब है

भोजन उपरांत मेहमानों ने धुम्रपान की इच्छा जताई
कठोर क़ायदे-कानून के इस घर में हो गई ढिलाई
पड़ोस के सिंह साहब के घर  से पिताजी ऐश-ट्रे मंगवाई
उनकी विल्स नेवी कट अपने हाथों से सुलगाई

हमारे इस सात्विक घर में जले तम्बाकू की महक है
नए संबंधो के सूत्रपात के लिए ढील मयस्सर है
सिगरटों के दौरों के बीच बात आगे बड़ी
तफसील मालूमात हुई , दोनों ने अपनी कही

देखते ही देखते घडी ने रात के ११ बजाये
सेकेंडो की सुई का शोर भी इस नीरवता सुन लिया जाये
माँ  ने  मेरे हाथों पानी का जग और गिलास भिजवाये
दो तकिये सिरहाने पे पिताजी ने लगाये

चलो बहुत रात हुई अब सुबह बातें करेंगे
बांकी सब तो लड़का -लड़की आपस में मिलके  ही तय करेंगे
दूर हॉस्टल में बैठी दीदी को इसकी न कोई खोज-खबर है
बड़े -बूढ़े अपने अनुभवों से रिश्ते जोड़ने में सिद्धहस्त हैं

पिताजी अब शुभरात्रि कह  मेहमानों से ले रहे विदा
कुछ जरूरत होने पे बता देने का पुनः निवेदन किया
अब लगे हैं धीमी आवाज में माँ से बतियाने
माँ समेट रही रसोई और लगी है काबुली चने भिगाने

घर-परिवार तो यथा संभव ठोक- पीट के जांचा जाता
बांकी ऊपरवाले  की मर्जी , रिश्ते तो वो ही बनाता
शादी-विवाह तो वर-वधू समेत दो परिवारों का मिल-मिलाप है
हर किसी की राजी-ख़ुशी से बना ये संबंध कितना ख़ास है

अगली सुबह सब लोग जल्दी ही  जग गए
नित्यकर्म से निवृत्त हो नाश्ते के लिए सज गए
छोले , आलू मैथी की सब्जी,पूरी  और सूजी का हलवा है
कल्लुमल की  जलेबी के बिना हर शुभ काम अधूरा है

नाश्ते करके अब अतिथि ले रहे विदा
आदर-सत्कार से अभिभूत कह रहे शुक्रिया
माँ ने सबकुछ कितना अच्छी तरह निभाया
बेटी की विदा का सोच अभी से दिल भर आया

बस में बैठा आये उनको पिताजी स्टेशन जाकर
दिया शुभ समाचार फ़ौरन घर पे आकर
दोनों सज्जन हम से बड़े मुतमईन लगे
होली के बाद फिर से मिलने की कहने लगे

लड़का-लड़की आपस में एक दूसरे को देख ले
फिर ये बात आगे बड़े
दान-दहेज़ का कोई मसला नहीं
पढ़ी लिखी दुल्हन ही दहेज़ लगे

दीदी को घर में हुई  हलचल की तनिक भी हवा नहीं
पता चलने पे चिढ़ जायेगी ये बात पक्की रही
मां कर रही बार-बार ईष्टदेव का स्मरण
सारी विघ्न-बाधाओं हरने का हो रहा मनन

समय इतनी जल्दी कैसे बीता उसे उलझन हो गई
कल तक अपने आँगन  में खेलती गुडिया आज बड़ी हो गई
लोग अब आने लगे उसे अपने घर की लक्ष्मी बनाने
बेटी के विदा होने की पीड़ा माँ से बेहतर कौन जाने

सोच के साथ आँखों में उमड़ता आसुओं का सैलाब है
माँ  को ख़ुशी के साथ इस अपूर्णीय क्षति का अहसास है
रक्त ,दुग्ध ममता सिचित को एकाएक  कैसे पराया कर दूं
त्रुटिपूर्ण है ये रीतिरिवाज , जी चाहता इसको बदल दूं

सच में स्त्री होने की अजब ही नियति है
इस जीवन के अनेको उतार चढावो में कितनी पीड़ा वो सहती है
बेटी ,अर्धांग्नी ,माँ ,बहन,सास बन उसे निभाने विविध रूप हैं
पुरुष-प्रधान इस समाज के सामंजस्य कितने कुरूप है

जारी  रहेगा .......to be continued

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