क्यों सोचे तुम्हारा मन मेरी तरह
क्यों हो मेरी हर पसंद तुम्हारी भी रूचि
क्यों बताऊँ मै तुम्हे आचरण और सलीके
क्यों ढलो तुम मेरी इच्छाओ के अनुरूप यूँही
क्यों तुम्हारा ही दायित्व रहे परिजनों के प्रति
और मै पाता रहूँ सम्मान अछिन्न
क्यों तुम्हारा इंकार लगे बगावत का स्वर
और मेरी मर्जी चले हर दिन
क्यों तुम्हारे तर्क भी लगे कुतर्क
और मेरी अपरिपक्वता उचित
क्यों मै चाह के भी स्वीकार न पाऊं अपनी त्रुटि
और तुम बिन कुछ किये हो जाओ अभियोजित
तुम भी तो मेरी ही तरह सक्षम
फिर बार-बार घिसो क्यों तुम ही
क्यों हर निर्णय में निर्णायक बनू मै
और तुम प्रदान करो अपनी स्वीकृति
सभवतः बचपन से आजतक
इस पुरुष प्रधान तथाकथित सभ्यसमाज ने
सदैंव रोपित और पोषित किया मुझमें
सर्वोपरी और श्रेष्ठ होने का भ्रम...
क्यों हो मेरी हर पसंद तुम्हारी भी रूचि
क्यों बताऊँ मै तुम्हे आचरण और सलीके
क्यों ढलो तुम मेरी इच्छाओ के अनुरूप यूँही
क्यों तुम्हारा ही दायित्व रहे परिजनों के प्रति
और मै पाता रहूँ सम्मान अछिन्न
क्यों तुम्हारा इंकार लगे बगावत का स्वर
और मेरी मर्जी चले हर दिन
क्यों तुम्हारे तर्क भी लगे कुतर्क
और मेरी अपरिपक्वता उचित
क्यों मै चाह के भी स्वीकार न पाऊं अपनी त्रुटि
और तुम बिन कुछ किये हो जाओ अभियोजित
तुम भी तो मेरी ही तरह सक्षम
फिर बार-बार घिसो क्यों तुम ही
क्यों हर निर्णय में निर्णायक बनू मै
और तुम प्रदान करो अपनी स्वीकृति
सभवतः बचपन से आजतक
इस पुरुष प्रधान तथाकथित सभ्यसमाज ने
सदैंव रोपित और पोषित किया मुझमें
सर्वोपरी और श्रेष्ठ होने का भ्रम...
No comments:
Post a Comment