Friday, 6 November 2015

क्यों सोचे तुम्हारा मन मेरी तरह
क्यों हो मेरी हर पसंद तुम्हारी भी रूचि
क्यों बताऊँ मै तुम्हे आचरण और सलीके
क्यों ढलो तुम मेरी इच्छाओ के अनुरूप  यूँही

क्यों तुम्हारा ही दायित्व रहे परिजनों के प्रति
और मै पाता  रहूँ सम्मान अछिन्न
क्यों तुम्हारा  इंकार लगे बगावत का  स्वर
और मेरी मर्जी चले हर दिन

क्यों तुम्हारे तर्क भी लगे कुतर्क
और मेरी अपरिपक्वता उचित
क्यों मै चाह के भी स्वीकार न  पाऊं अपनी त्रुटि
और तुम बिन कुछ किये हो जाओ अभियोजित

तुम भी तो मेरी ही तरह सक्षम
फिर बार-बार घिसो क्यों तुम ही
क्यों हर निर्णय में निर्णायक बनू मै
और तुम प्रदान करो  अपनी स्वीकृति

सभवतः बचपन से आजतक
इस पुरुष प्रधान तथाकथित सभ्यसमाज ने
सदैंव रोपित और पोषित किया मुझमें
सर्वोपरी और श्रेष्ठ होने का भ्रम...

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