माँ स्टडी टेबल पे दूध का भरा गिलास रखते हुए बोली - ज्यादा नखरे मत दिखा ,इसे चन्न करके पी जा,बढ़ते बच्चो के लिए रोज दूध पीना जरुरी है , दूध नहीं पीयेगा तो ठिगने का ठिगना रह जायेगा ....
किताबों से क्षण भर के लिए नजर हटाते हुए मैंने बड़े ही अनमने ढंग से दूध से भरे हुए उस स्टील के गिलास को देखा , उसके ऊपर उठती हुई हलकी-हलकी भाप उसके गरम होने का अहसास करा रही थी पर सतह पर जमी पतली सी मलाई की परत मुझे उबकाई भी दिला रही थी .....
बचपन में दूध पीना मुझे कतई भी पसंद न था , श्वेत रंग के बेस्वाद से लगने वाले इस पेय पदार्थ को कंठ से नीचे उतारना नितांत ही दुरूह कार्य था इसलिए इससे बचने के लिए तरह-तरह के प्रपंच रचे जाते , बहुत गर्म /ठंडा होने के बहाने बनाए जाते , चीनी कम-ज्यादा होने बेजा शिकायते की जाती , पेट भरे होने और तिल भर भी जगह न होने के तर्क दिए जाते, मलाई हटाने को कहा जाता और माँ हमारी इन सारी उटपटांग मांगो को पूर्ण करने के लिए रसोई और कमरे के बीच नाचती ही रहती और अगर इन सब के बावजूद भी हमारा बाल हठ जारी रहता तो उनकी पिताजी से शिकायत कर देने की धमकी एक ब्रह्मास्त्र का कार्य करती जिसका वार कभी भी विफल न जाता ....
वैज्ञानिक विश्लेषण से परे यहाँ अनुभवों के आधार पे उसे दूध के एक सम्पूर्ण आहार होने के इल्म था , गाय या भैस के होने पे विवाद न था पर पूर्णरुपेण शुद्ध होना उसके स्वीकार्य होने एकमात्र कसौटी थी , पानी के अलावा किसी अन्य दूसरी चीज के मिलने से उसके अशुद्ध या कृत्रिम होने के बारे में उस समय सोचा भी नहीं जा सकता शायद मानव का नैतिक और चारित्रिक पतन आज के दर्जे का ना था ...बच्चो को गिलास भर दूध पिलाने के बाद मातृत्व का वो संतोष अगाध था , उसकी शांत जुकड़ी अब तल्लीनता के साथ घर के अन्य कार्यो में रम सकती थी ....
खाद्य पदार्थो के चुनाव में सबसे ज्यादा तरजीह दूध को ही मिलती , बाल्टी लेकर अपने सामने दुहवा दूध लाना पिताजी की प्राथमिकताओ में था , कभी कभार अगर हमें जाना पड़ता तो पहले से दूधिये की चलाकियों के बारे में बताया जाता और सजग रहने की हिदायत दी जाती फिर भी दूधिया चलाकी कर ही देता , दूध के डिब्बे में फेन भरके वो थोड़ी घटतोली कर ही डालता.....
रोज दूध पीने के कार्यक्रम में ड्रामा होना लाजमी था , पर न चाहते हुए भी दूध तो पीना ही पड़ता , तरह-तरह के प्रलोभनो और झिडकियों का दौर जारी रहता , ममता और भयदोहन का क्रम भी जारी रहता ....
बचत की ओर आसक्त इस मध्यमवर्गी परिवार में दूध में मिला उसकी पौष्टिकता और स्वाद में इजाफा करने का दावा करने वाले बाज़ार में उपलब्ध डिब्बाबंद पदार्थो के प्रति रूचि न थी , उनको नकारने के यहाँ अपने तर्क थे जो काफी हद तक सही भी थे , चीनी मिले गर्म दूध को बिना कुछ मिलाये उसके स्वाभाविक श्वेत रूप में ही सेवन को श्रेयस्कर माना जाता था ....जाड़ो में चीनी जगह गुड का मिलना एक सुखद बदलाव होता था ....
किशोरावस्था के आगमन पे थोड़ी रियायतों का मिलाना लाजमी था , अब रसोईघर में प्रवेश किया जा सकता था , और अपने हिस्से के मिले दूध में परिवर्तन करने में रोकटोक भी न थी , कभी दूध-पत्ती , कभी घुटी कॉफ़ी तो कभी सेवई बना कर बना मैंने दूध की उस बेस्वादीपन से आंखिरकार छुटकारा पा ही लिया , छोटी इलायची के दानों ने मुझे उस अप्रिय खालिस दुधैन स्वाद से मुक्त कराने में काफी मदद की ....
पिताजी के विपरीत आज सोते समय मै गिलास भरके गर्म दूध नहीं पीता पर यदा-कदा हलवाई के यहाँ भट्टी पे चढी बड़ी सी लोहे की कडाही पे खोलते दूध के देख पता नहीं मन क्यों ललचा जाता है?, कुल्हड़ में दूध गरम भी होता है और उसमें मोटी सी मलाई की परत भी होती है , दूध को पीते -पीते अतीत में माँ के द्वारा परोसे गए स्टील गिलास की तली में अधघुले चीनी के दानो याद हमेशा ही आती रहती है ....
किताबों से क्षण भर के लिए नजर हटाते हुए मैंने बड़े ही अनमने ढंग से दूध से भरे हुए उस स्टील के गिलास को देखा , उसके ऊपर उठती हुई हलकी-हलकी भाप उसके गरम होने का अहसास करा रही थी पर सतह पर जमी पतली सी मलाई की परत मुझे उबकाई भी दिला रही थी .....
बचपन में दूध पीना मुझे कतई भी पसंद न था , श्वेत रंग के बेस्वाद से लगने वाले इस पेय पदार्थ को कंठ से नीचे उतारना नितांत ही दुरूह कार्य था इसलिए इससे बचने के लिए तरह-तरह के प्रपंच रचे जाते , बहुत गर्म /ठंडा होने के बहाने बनाए जाते , चीनी कम-ज्यादा होने बेजा शिकायते की जाती , पेट भरे होने और तिल भर भी जगह न होने के तर्क दिए जाते, मलाई हटाने को कहा जाता और माँ हमारी इन सारी उटपटांग मांगो को पूर्ण करने के लिए रसोई और कमरे के बीच नाचती ही रहती और अगर इन सब के बावजूद भी हमारा बाल हठ जारी रहता तो उनकी पिताजी से शिकायत कर देने की धमकी एक ब्रह्मास्त्र का कार्य करती जिसका वार कभी भी विफल न जाता ....
वैज्ञानिक विश्लेषण से परे यहाँ अनुभवों के आधार पे उसे दूध के एक सम्पूर्ण आहार होने के इल्म था , गाय या भैस के होने पे विवाद न था पर पूर्णरुपेण शुद्ध होना उसके स्वीकार्य होने एकमात्र कसौटी थी , पानी के अलावा किसी अन्य दूसरी चीज के मिलने से उसके अशुद्ध या कृत्रिम होने के बारे में उस समय सोचा भी नहीं जा सकता शायद मानव का नैतिक और चारित्रिक पतन आज के दर्जे का ना था ...बच्चो को गिलास भर दूध पिलाने के बाद मातृत्व का वो संतोष अगाध था , उसकी शांत जुकड़ी अब तल्लीनता के साथ घर के अन्य कार्यो में रम सकती थी ....
खाद्य पदार्थो के चुनाव में सबसे ज्यादा तरजीह दूध को ही मिलती , बाल्टी लेकर अपने सामने दुहवा दूध लाना पिताजी की प्राथमिकताओ में था , कभी कभार अगर हमें जाना पड़ता तो पहले से दूधिये की चलाकियों के बारे में बताया जाता और सजग रहने की हिदायत दी जाती फिर भी दूधिया चलाकी कर ही देता , दूध के डिब्बे में फेन भरके वो थोड़ी घटतोली कर ही डालता.....
रोज दूध पीने के कार्यक्रम में ड्रामा होना लाजमी था , पर न चाहते हुए भी दूध तो पीना ही पड़ता , तरह-तरह के प्रलोभनो और झिडकियों का दौर जारी रहता , ममता और भयदोहन का क्रम भी जारी रहता ....
बचत की ओर आसक्त इस मध्यमवर्गी परिवार में दूध में मिला उसकी पौष्टिकता और स्वाद में इजाफा करने का दावा करने वाले बाज़ार में उपलब्ध डिब्बाबंद पदार्थो के प्रति रूचि न थी , उनको नकारने के यहाँ अपने तर्क थे जो काफी हद तक सही भी थे , चीनी मिले गर्म दूध को बिना कुछ मिलाये उसके स्वाभाविक श्वेत रूप में ही सेवन को श्रेयस्कर माना जाता था ....जाड़ो में चीनी जगह गुड का मिलना एक सुखद बदलाव होता था ....
किशोरावस्था के आगमन पे थोड़ी रियायतों का मिलाना लाजमी था , अब रसोईघर में प्रवेश किया जा सकता था , और अपने हिस्से के मिले दूध में परिवर्तन करने में रोकटोक भी न थी , कभी दूध-पत्ती , कभी घुटी कॉफ़ी तो कभी सेवई बना कर बना मैंने दूध की उस बेस्वादीपन से आंखिरकार छुटकारा पा ही लिया , छोटी इलायची के दानों ने मुझे उस अप्रिय खालिस दुधैन स्वाद से मुक्त कराने में काफी मदद की ....
पिताजी के विपरीत आज सोते समय मै गिलास भरके गर्म दूध नहीं पीता पर यदा-कदा हलवाई के यहाँ भट्टी पे चढी बड़ी सी लोहे की कडाही पे खोलते दूध के देख पता नहीं मन क्यों ललचा जाता है?, कुल्हड़ में दूध गरम भी होता है और उसमें मोटी सी मलाई की परत भी होती है , दूध को पीते -पीते अतीत में माँ के द्वारा परोसे गए स्टील गिलास की तली में अधघुले चीनी के दानो याद हमेशा ही आती रहती है ....
No comments:
Post a Comment