Saturday, 17 February 2018

वक्त बीता ,रिसी जवानी हम-तुम उमरदराज हुए
पर शिकवे-शिकायतों के वही पुराने  अंदाज रहे....

भूल जाता हूँ अक्सर गुसलखाने में तौलिया ले जाना
कितना भाता है तेरा त्योरियां चढ़ा उसे दे जाना ...

गुस्से में न जाने क्या-क्या कह दिया भला बुरा
उसने भी तो जवाब दे दे आग में घी दिया ...

जरा सी बात कितनी बड़ी हुई
हार न मानने की अपनी-अपनी जिद्द रही ...

फिर से सारी दराजों का सामान तितर-बितर है
चीजे ज्यादा संभाल  के रखने का इल्जाम किसी के सर है ...

न कुछ नया बात पुरानी वही है
रात के खाने में फिर से लौकी बनी है ...

कुछ मेहमान बिन बताये साथ ले आया
खाना बनाने से ज्यादा उसने ने मुंह बनाया ...

अनजाने में ही 'गुनाह ए अजीम' कर बैठा ...
अपनी तकरार में उनके मायके का जिक्र का बैठा 

खीज उठता हूँ तेरे फोन के न उठाने पे ...

कहीं की कोफ़्त ,कहीं और ही बरसाने पे

मसरूफ हूँ 

बिन काम काम की  मशक्कत में ,
सबसे जुदा हूँ 
मै शादी-शुदा हूँ 



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