बहुत ज़्यादा साधन -सुलभ तो नहीं पर अन्वेषणों से परिपूर्ण था हमारा बचपन.... हर छोटी-बड़ी बात कुछ न कुछ सिखाती थी और ऐसे ही कुछ सीख-सीख कर हम बड़े हो गए....
मुक्कमल तो कोई नहीं हो सकता...अगर हो जाए तो खुदा न बन जाए.…
बचपन में पतंगबाज़ी का बहुत शौक था... पिताजी को ये पसंद तो न था पर गर्मियों की छुट्टियों में इसकी इज़ाज़त मिल ही जाती थी और साथ-साथ एक हिदायत भी कि सम्भल के...इसके आगे कबूतरबाज़ी , मुर्गाबाज़ी ,बटेरबाज़ी शुरू मत कर देना और ये रियायत बस स्कूल खुलने तक ही है...
छिद्दन मियां की दुकान हमारे शहर में पतंगबाज़ी के सामान के लिए सबसे मशहूर थी, कल्लूमल हलवाई और बूरा बताशा गली की मंडराती मक्खियों से ज्यादा यहाँ हम जैसे पतंगबाज़ बालको की भीड़ होती थी और सबके सब भिड़े रहते थे जल्दी से जल्दी सामान लेने के लिए....
सालाना परीक्षा पास करने के बाद १० रुपिये मिलते थे और हम भी किसी कुशल अर्थशास्त्री की तरह अपना बजट बनाने लगते थे.… दो रुपिये की चरखी , उस पे चार रूपिए की पतली सद्दी का गुल्ला , एक-एक रुपिये लाल और काला रामपुरी मांझा , पच्चीस पैसे वाली चार पतंग, और एक अठन्नी वाला चाँदतारा... बांकी के बचे पचास पैसे लाल जीभ की गोली और चूरन के लिए होते थे। पाई-पाई का इतना सटीक मौखिक हिसाब होता था कि साल भर कान मरोड़ने वाले गणित के मास्साब अगर उतर पुस्तिकाओ की जगह इसे देखते तो जरुर हमपे फर्क करते....
शिक्षा में रूचि रखने की बात कहने की बजाय अगर रूचि में शिक्षा रख दी जाए तो इस देश की कायाकल्प हो जाये ....
घर से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पे स्थित इस दूकान पर स्वयं अकेले ही खरीदारी करने जाते थे, भीड़ से बचते बचाते उस एक अदद जान से प्यारे दस के नोट को अपने दिल से लगाये हुए ....
कनकव्वे बड़ी ही बारीकी से छांटे जाते थे, कटी-फटी न हो ,बीच की बांस की तिल्ली मोटी न हो और पतियाना निकाल के उसकी प्रत्यास्था (elasticity) का झट अनुमान लगा लेना कितना विशिष्ट अनुभव प्रदान करता था ....
कन्ने (सुत्तल) बांधने ने गाँठ लगाने का पहला रोचक अनुभव दिया , अगली सुतल छोटी करने से पतंग घूमेगी मगर कम हवा में भी उड़ जायेगी , पिछली को छोटी करने पे शुद्ध (स्थिर) रहेगी और अगर तेज हवा है तो पुछल्ला बाँध के आप अपनी पतंग को उड़ा सकते है और ऐसी न जाने कितनी सुनी-सुनायी बातों को खुद अनुभव करके परखा और उन्हें सही पाया वरना आजकल तो सियासी झूठ को बिना जांचे हम सच मान लेते है और कुछ बेगैरतो की स्वार्थ की अग्नि में खुद को इंधन की तरह झोंक देते है.... खुद तो जलते ही है, कई औरो को भी जलाते है....
बचपन में सयाने थे और सयाने होके बेवकूफ हो गये ....
छुटकाई लेने की प्रक्रिया में छत और मैदान के विभिन्न कोणों को भांप लिया जाता।आटे,भात और बेल के फल का गोंद की जगह पतंग चिपकाने के उपयोग ने हमें उपलब्ध साधनों में काम चलाने की कला में निपुण किया ...
पेंच लड़ाने ने ज़िन्दगी की पेचीदगियों से दो-चार करवाया , कब अपने के ऊपर रखना है, कब नीचे, कब ढील देनी है, कब खेच मारनी है और कब बिन मौका दिए हत्ते से सूत देना इसका पहला सबक हमें यहीं से मिला...
किसी की पतंग काटने पर आह्लाद के उस प्रकटीकरण ने खुद को व्यक्त करना सिखाया , खुद की कट जाने के विषाद ने पुनः प्रयास करने को उकसाया, कइयो की भीड़ और डंडे पे लगे झाड के बीच भी कटी पतंग को लूट लेने की सफलता ने खुद पे गर्व करना सिखाया, उलझी हुई सद्दी को सुलझाने ने समस्याओं से निबटने और अटियां करने की कसरत ने चीजों को पास-पास सहेज कर रखने की सलाहियत से हमें नवाज़ा...
कभी टीवी के एंटीने , पेड़ , बिजली के तारों पे फंसी पतंग को सफलतापूर्वक निकाल लेने ने छोटे-छोटे सधे हुए निरंतर होते प्रयासों की उपयोगिता समझाई और हर स्थिति में डंटे रहने की प्रेरणा दी ....
कितनी तरक्की कर ली ,छोटे कस्बो के बड़े घरो से निकल हम बड़े महानगरो के छोटे-छोटे flats में आ गए , और कीमत अदा की छत और आँगन को खो कर ,घर के साथ दिल भी छोटे हो गए, रहन-सहन का स्तर तो जरूर ऊँचा हुआ पर कुछ पा लेने की उधेड़बुन में स्वयं न जाने कितना नीचे गिर गए ,बड़ी-बड़ी चाहतो ने छोटी-छोटी खुशियाँ हम से छीन ली , और इस सबका सबसे बड़ा खामियाजा हमारे बाद की पीढ़ी उठा रही जो भौतिक साधनों में बचपन की खुशियाँ तलाश रही है ...
मुट्ठी में मिटटी भरके हवा का रुख को पहचानने की उस पतंगबाजी वाली आदत ने ही शायद मुझे अपनी मिट्टी से जोड़े रखा है और एक अपराधबोध के साथ ऐसा लिखने को निरंतर प्रेरित करती रहती है ...
“संगमरमर पे चलता हूँ तो फिसल जाता हूँ
मिट्टी पे चलकर ही अपनी पकड़ बनता हूँ “
मिट्टी पे चलकर ही अपनी पकड़ बनता हूँ “
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