एक ज़माना हुआ करता था, रेडियो में short-wave पर किसी लौ की तरह फाड़-फड़ाती ,ऊपर नीची होती ध्वनि पर हम BBC हिंदी सेवा के समाचार सुना करते थे , प्रस्तुति बहुत आकर्षक होती थी , उत्कृष्ट हिंदी के शब्दों के चुनाव के साथ , वक्ताओं की कर्णप्रिय ध्वनि वाकई समाचार सुनने में एक सुखद अहसास प्रदान करती थी.…
खबर विश्वशनीय मानी जाती थी.… ईरान-ईराक खाड़ी युद्ध , operation ब्लू स्टार , बाबरी मस्जिद अादि और न जाने कितनी महत्वपूर्ण घटनाओ के समय सही खबर की ख़ोज में असंख्य भारतीयों ने टीवी होते हुए भी रेडियो की ओर रुख किया क्योंकि उस समय दूरदर्शन का ज़माना था ,खबरे सरकारी नियंत्रण में थी.।
फिर ज़माना आया बाज़ारवाद का याने केबल टीवी का....हर दिन कुकुरमुत्ते के तरह उगते समाचार चैनेल ,गला काट प्रतिस्पर्धा के बीच वो ही चिल्ल-पौ मचाने लगे जो अपने-अपने हितो साधने में इनके आकाओ को उचित लगा, खबर का केवल मुलम्मा ही चढ़ा रहा , खेल कुछ और ही होता रहा.… पत्रकारिता किसी हिंदी फिल्म के item सांग सरीखी नज़र आने लगे , जिसमे तड़क भड़क का तड़का था.… असलियत से कोसो दूर
इसी दौरान विद्व्ता की अपनी ढोल पीटते कुछ चेहरे उजागर हुए जो घर के चूल्हे पे चढ़े पतीले से लेकर अंतरिक्षयान प्रक्षेपण पर अपनी बे-सिर पैर की राय से हमें प्रताड़ित करने लगे.…
और अब समय है इंटरनेट क्रान्ति का , सोशल मीडिया ने जब इस तथाकथित मीडिया की पुंगी बजानी शुरू की तब से इनमें खलबली मची हुई.… आम आदमी को एक सशक्त माध्यम मिला है जिसमे उसने अपनी भड़ास निकलनी आरम्भ कर दी है (जैसा की मै कर रहा हूँ ) ....
समय रहते सचेत होने से दुर्घटना से बचा जा सकता है.… अभी तो जनता के गुस्से के केंद्र बिंदु सियासत है अगर ये न्यूज़ ट्रेडर्स नहीं सुधरे तो इनको भी हमारे कोप का भाजन बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा
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