Friday, 22 August 2014

बात कानपुर के कॉलेज के दिनों की है.… sale से एक सफ़ेद अंगूरा का स्वेटर ले दीवाली पे पिताजी को भेंट किया। पिताजी ज्यादा brand conscious  न तो पहले थे न अब  है पर उस समय woolmark के निशान को देख बस इतना समझ गए कि यह गरम तो जरूर होगा (पहाड़ी आदमी को ऐसी ही चीजों की तलाश रहती है) …

काफी कहने और बढ़ते जाड़े में एक दिन वे उसे पहनकर विद्यालय चले गए। स्वेटर को देख साथी अध्यापकों (जो कि उनके स्वाभाव और आदतों से भली-भांति परिचित थे ) ने कहा.… प्रिंसिपल साहब ये कहाँ से  से ले आये? , आपने तो पक्का नहीं ख़रीदा होगा , बहुत महंगा है जरुर बेटे ने दिया होगा...

अगली छुट्टियों पे जब दोबारा घर पंहुचा तो देखा के  पिताजी ने वो स्वेटर ,वापस मोमजामे की पन्नी चढ़ा कर ,सहेज कर वापस डिब्बे में रख दिया है.… मेरे ऐसा पूछने पर वे बोले .... काफी कीमती है, इसलिए संभाल  के रखा है.… कभी-कभार विशेष मौको पे ही निकलता हूँ...

इस घटना के लगभग 13 वर्षो बाद , पिछले वर्ष जब में घर पहुँच एकाएक बड़ी ठण्ड पे जब मैंने उनसे स्वेटर माँग की  तो उन्होंने उसी को लाकर मेरे सामने रख के मुस्कुरा के बोले... ले तेरा ही लाया हुआ तुझको दे रहा हूँ

गजब की क्षमता है हम से एक सिर्फ एक पीढ़ी पहले के लोगों में चीजों को सहेज के रखने  और मितव्यता की जिसे हम अक्सर कंजूसी कह के हास-परिहास में उड़ा देते है.....

घर में लगे  सामान के अंबार बावजूद हर दिन कुछ न कुछ खरीदने की खुजलाहट की बीच कभी- कभी जरूर ये ख्याल आता है.… काश ईश्वर  हमें भी वो ही सलाहियत बख्श  देता …

वैसे अब भी वो स्वेटर मेरे पास है पर हालत काफी खस्ता है....

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