Friday, 22 August 2014

हर सियाह यहाँ पे  सफ़ेद है 
 अपनी मौजूदगी पे हमें खेद है 

हक़ हलाल की बातें बेमानी 
छीनने में कब किसे गुरेज है 

लानत मिल रही है अपनी तरबियत पे 
क्योंकि हमें बेमानी से परहेज है 

क्या नेता क्या नौकरशाह  
यहाँ तो अदना चपरासी भी सेठ है 

सबने मिलके बना रकखी चौकड़ी 
खींचतान, बन्दर बाँट का खेल है 

जमीर मर चुका है कितनो का यहाँ 
जिनमे बाँकी  वो तो मटियामेट है 

बचा लो इस मुल्क को नौजवानो 
तुम से ही उम्मीद  अब शेष है 





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