बुद्धू बक्से पे एक विज्ञापन देखा तो यूहीं ख्याल आया कि बचपन में हमारी टीचर ने तो कभी हम से दीवार पे निबंध लिखने के लिए कहा ही नहीं , उनको दीपावली , अगर मै प्रधानमंत्री होता , विज्ञान वरदान है या अभिशाप , मेरा प्रिय मित्र , जनसंख्या वृद्धि , हमारा पर्यावरण आदि रिवायती शीर्षकों के अलावा कुछ ऐसा अलग हट के सूझा ही नहीं , और हम सब महरूम रह गए एक इतने महत्वपूर्ण विषय पर अपने विचार रखने से ...
दसवी के बाद विद्यालय बदल गया ,नये विद्यालय की दीवारे किलेनुमा ऊँची-ऊँची थी , ऊपर से जवानी के जोश को रोकने के लिए प्रधानाचार्य और स्कूल प्रबंधन ने उन पर लोहे का कांटेदार तार और कांच लगा के रखा था ... पर हम लोग कहाँ रुकने वाले थे? ... न जाने कितनी पतलूने और बुशर्ट इनको फांदने में शहीद हुई ...
चुनौती जितनी बड़ी शरारत का मजा उतना ही ज्यादा .....
किशोरावस्था परिणामो की चिंता कहाँ करती है ? , उसकी नज़र तो हमेशा ऐसा कार्यो को करने के उपरांत होने वाले उस तात्कालिक आनंद पर ही होती है और वो ही अनुभूति उसे बार-बार ऐसा करने को प्रेरित भी करती है ....
साधनविहीन बड़ा ही जुगाडू प्रवृति का होता है , दीवार पे ईंट की लालिमा या फिर कोयले की कालिख से विकेट बना लिया जाता था , इसके कई फायदे थे ... एक तो किसी को विकेट कीपर नहीं बनना पड़ता था और दूसरा दीवार पे पड़े गेंद के टप्पे का ताजा निशान ही हमारा instant थर्ड-अम्पायर होता था ....
स्कूल की ड्रेस अक्सर कक्षा की दीवारों का आलिंगन पा झड़ते चूने से रंग जाती थी और उसको साफ़ करने के बहाने अपने सहपाठियों पे हाथ सेकने का मजा ही कुछ और था ,
शौचालय की दीवारों पे अनेको उद्गारो का वह प्रतिबंधित प्रकटीकरण हमसे निंदा तो पाता था पर न जाने क्यों बार-बार पढने को लालायित भी करता था ...
हर पल कुछ न कुछ जानने को आतुर बाल मन में कोई निषेधित बात कितनी सारी उत्सुक्ताओ को एक साथ जन्म दे देती है और उनका समुचित निराकरण कई बार अभिभावकों के लिए कितना बड़ा यक्ष प्रश्न बन जाता है ....
दीवार की आड़ का कितना सहारा होता था , उसको पीछे छिपकर किये गये वो अनगिनत कार्य और उनको पहली बार करने का वह रोमांच आज भी एक दम तरोंताजा है ....
उस विज्ञापन से अलग मुझे अपने बचपन की हर दीवार एक दम साफ़-साफ़ नज़र आती है... और हाँ सारी दीवारे सीमेंट की नहीं बनी थी कुछ सुर्खी-चूने की भी थी ....