Friday 31 May 2013

जेठ की एक दोपहरी

जेठ की  एक दोपहरी
आम आदमी ने सोचा
चलो बच्चो के लिए आम खरीद लाएँ
पर फल के ठेले पे पहुँच
दाम  सुन
उसे महंगाई की लू लग गई 

Saturday 25 May 2013

कितने मिलनसार हो गए ....




हम पहले से कितने मिलनसार हो गए 

घर-परिवार ,पास-पड़ोसी ,

रिश्ते-नाते सब छूटे 

मगर FACEBOOK पर  मित्र हज़ार हो गए ....

Tuesday 21 May 2013

तंग है उनके दिल के गली


अगर मालूम होता तंग है उनके दिल की गली 
हम कभी अपना अरमानो भरा TRUCK नहीं लाते ...

नेक कोशिशो के बाद

नेक कोशिशो  के बाद
बेअसर  हुआ था
फिरका परस्ती का ज़हर
सियासी हुक्मरानों ने क्या  खोली जुबान
फिर से जलने लगा है शहर

इसकी  आंच में
खुदगर्जी की
रोटियाँ  सिक रही है
इंसानियत मेरे मुल्क में
कौड़ियो के मोल  बिक रही है ....



Sunday 19 May 2013

आचरण की सभ्यता -सरदार पूर्ण सिंह



  



आचरण की सभ्यता 


सरदार पूर्ण सिंह 



    विद्या, कला, कविता, साहित्‍य, धन और राजस्‍व से भी आचरण की  सभ्‍यता अधिक ज्‍योतिष्‍मती है। आचरण की सभ्‍यता को प्राप्‍त करके एक कंगाल आदमी राजाओं के दिलों पर भी अपना प्रभुत्‍व जमा सकता है। इस सभ्‍यता के दर्शन से कला, साहित्य, और संगीत को अद्भुत सिद्धि प्राप्‍त 

होती है। राग अधिक मृदु हो जाता है; विद्या का तीसरा शिव-नेत्र खुल जाता है, चित्र-कला का मौन राग अलापने लग जाता है; वक्‍ता चुप हो जाता है; लेखक की लेखनी थम जाती है; मूर्ति बनाने वाले के सामने नये कपोल, नये नयन और नयी छवि का दृश्‍य उपस्थित हो जाता है।

आचरण की सभ्‍यतामय भाषा सदा मौन रहती है। इस भाषा का निघण्‍टु शुद्ध श्‍वेत पत्रों वाला है। इसमें नाममात्र के लिए भी शब्‍द नहीं। यह सभ्‍याचरण नाद करता हुआ भी मौन है, व्‍याख्‍यान देता हुआ भी व्‍याख्‍यान के पीछे छिपा है, राग गाता हुआ भी राग के सुर के भीतर पड़ा है। मृदु वचनों की मिठास में आचरण की सभ्‍यता मौन रूप से खुली हुई है। नम्रता, दया, प्रेम और उदारता सब के सब सभ्‍याचरण की भाषा के मौन व्‍याख्‍यान हैं। मनुष्‍य के जीवन पर मौन व्‍याख्‍यान का प्रभाव चिरस्‍थायी होता है और उसकी आत्मा का एक अंग हो जाता है।

न काला, न नीला, न पीला, न सफेद, न पूर्वी, न पश्चिमी, न उत्‍तरी, न दक्षिणी, बे-नाम, बे-निशान, बे-मकान, विशाल आत्‍मा के आचरण से मौन रूपिणी, सुगन्धि सदा प्रसारित हुआ करती है; इसके मौन से प्रसूत प्रेम और पवित्रता-धर्म सारे जगत का कल्‍याण करके विस्‍तृत होते हैं। इसकी उपस्थिति से मन और हृदय की ऋतु बदल जाते हैं। तीक्ष्‍ण गरमी से जले भुने व्यक्ति आचरण के काले बादलों की बूँदाबाँदी से शीतल हो जाते हैं। मानसोत्‍पन्‍न शरद ऋतु क्‍लेशातुर हुए पुरुष इसकी सुगंधमय अटल वसंत ऋतु के आनंद का पान करते हैं। आचरण के नेत्र के एक अश्रु से जगत भर के नेत्र भीग जाते हैं। आचरण के आनंद-नृत्‍य से उन्‍मदिष्‍णु होकर वृक्षों और पर्वतों तक के हृदय नृत्‍य करने लगते हैं। आचरण के मौन व्‍याख्‍यान से मनुष्‍य को एक नया जीवन प्राप्‍त होता है। नये-नये विचार स्वयं ही प्रकट होने लगते हैं। सूखे काष्‍ठ सचमुच ही हरे हो जाते हैं। सूखे कूपों में जल भर आता है। नये नेत्र मिलते हैं। कुल पदार्थों के साथ एक नया मैत्री-भाव फूट पड़ता है। सूर्य, जल, वायु, पुष्‍प, पत्‍थर, घास, पात, नर, नारी और बालक तक में एक अश्रुतपूर्व सुंदर मूर्ति के दर्शन होने लगते हैं।

मौनरूपी व्‍याख्‍यान की महत्ता इतनी बलवती, इतनी अर्थवती और इतनी प्रभाववती होती है कि उसके सामने क्‍या मातृभाषा, क्‍या साहित्‍यभाषा और क्‍या अन्‍य देश की भाषा सब की सब तुच्‍छ प्रतीत होती हैं। अन्‍य कोई भाषा दिव्‍य नहीं, केवल आचरण की मौन भाषा ही ईश्‍वरीय है। विचार करके देखो, मौन व्‍याख्‍यान किस तरह आपके हृदय की नाड़ी-नाड़ी में सुंदरता को पिरो देता है। वह व्‍याख्‍यान ही क्‍या, जिसने हृदय की धुन को - मन के लक्ष्‍य को - ही न बदल दिया। चंद्रमा की मंद-मंद हँसी का तारागण के कटाक्षपूर्ण प्राकृतिक मौन व्‍याख्‍यान का प्रभाव किसी कवि के दिल में घुसकर देखो। सूर्यास्‍त होने के पश्‍चात श्रीकेशवचंद्र सेन और महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर ने सारी रात एक क्षण की तरह गुजार दी; यह तो कल की बात है। कमल और नरगिस में नयन देखने वाले नेत्रों से पूछो कि मौन व्‍याख्‍यान की प्रभुता कितनी दिव्‍य है।

प्रेम की भाषा शब्‍द-‍रहित है। नेत्रों की, कपोलों की, मस्‍तक की भाषा भी शब्‍द-रहित है। जीवन का तत्‍व भी शब्‍द से परे है। सच्‍चा आचरण - प्रभाव, शील, अचल-स्थित संयुक्‍त आचरण - न तो साहित्‍य के लंबे व्‍याख्‍यानों से गढ़ा जा सकता है; न वेद की श्रुतियों के मीठे उपदेश से; न अंजील से; न कुरान से; न धर्मचर्चा से; न केवल सत्‍संग से। जीवन के अरण्‍य में धंसे हुए पुरुष पर प्रकृति और मनुष्‍य के जीवन के मौन व्‍याख्‍यानों के यत्‍न से सुनार के छोटे हथौड़े की मंद-मंद चोटों की तरह आचरण का रूप प्रत्‍यक्ष होता है।

बर्फ का दुपट्टा बांधे हुए हिमालय इस समय तो अति सुंदर, अति ऊंचा और अति गौरवान्वित मालूम होता है; परंतु प्रकृति ने अगणित शताब्दियों के परिश्रम से रेत का एक-एक परमाणु समुद्र के जल में डुबो-डुबोकर और उनको अपने विचित्र हथौड़े से सुडौल करके इस हिमालय के दर्शन कराये हैं। आचरण भी हिमालय की तरह एक ऊंचे कलश वाला मंदिर है। यह वह आम का पेड़ नहीं जिसको मदारी एक क्षण में, तुम्‍हारी आँखों में मिट्टी डालकर, अपनी हथेली पर जमा दे। इसके बनने में अनंत काल लगा है। पृथ्‍वी बन गयी, सूर्य बन गया, तारागण आकाश में दौड़ने लगे; परंतु अभी तक आचरण के सुंदर रूप के पूर्ण दर्शन नहीं हुए। कहीं-कहीं उसकी अत्‍यल्‍प छटा अवश्‍य दिखाई देती है।

पुस्‍तकों में लिखे हुए नुसखों से तो और भी अधिक बदहजमी हो जाती है। सारे वेद और शास्‍त्र भी यदि घोलकर पी लिए जायँ तो भी आदर्श आचरण की प्राप्ति नहीं होती। आचरण की प्राप्ति की इच्‍छा रखने वाले को तर्क-वितर्क से कुछ भी सहायता नहीं मिलती। शब्‍द और वाणी तो साधारण जीवन के चोचले हैं। ये आचरण की गुप्‍त गुहा में नहीं प्रवेश कर सकते। वहां इनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। वेद इस देश के रहने वालों के विश्‍वासानुसार ब्रह्मवाणी है, परंतु इतना काल व्‍यतीत हो जाने पर भी आज तक वे समस्‍त जगत की भिन्‍न-भिन्‍न जातियों को संस्‍कृत भाषा न बुला सके - न समझा सके - न सिखा सके। यह बात हो कैसे? ईश्‍वर तो सदा मौन है। ईश्‍वरीय मौन शब्‍द और भाषा का विषय नहीं। यह केवल आचरण के कान में गुरुमंत्र फूँक सकता है। वह केवल ऋषि के दिल में वेद का ज्ञानोदय कर सकता है।

किसी का आचरण वायु के झोंके से हिल जाय, तो हिल जाय, परंतु साहित्‍य और शब्‍द की गोलन्‍दाजी और आंधी से उसके सिर के एक बाल तक का बाँका न होना एक साधारण बात है। पुष्‍प की कोमल पंखुड़ी के स्‍पर्श से किसी को रोमांच हो जाय; जल की शीतलता से क्रोध और विषय-वासना शांत हो जायँ; बर्फ के दर्शन से पवित्रता आ जाय; सूर्य की ज्‍योति से नेत्र खुल जायँ - परंतु अंगरेजी भाषा का व्‍याख्‍यान - चाहे वह कारलायल ही का लिखा हुआ क्‍यों न हो - बनारस में पंडितों के लिए रामलीला ही है। इसी तरह न्‍याय और व्‍याकरण की बारीकियों के विषय में पंडितों के द्वारा की गई चर्चाएँ और शास्‍त्रार्थ संस्‍कृत-ज्ञान-हीन पुरुषों के लिए स्‍टीम इंजिन के फप्-फप् शब्‍द से अधिक अर्थ नहीं रखते। यदि आप कहें व्‍याख्‍यानों के द्वारा, उपदेशों के द्वारा, धर्मचर्चा द्वारा कितने ही पुरुषों और नारियों के हृदय पर जीवन-व्‍यापी प्रभाव पड़ा है, तो उत्तर यह है कि प्रभाव शब्‍द का नहीं पड़ता - प्रभाव तो सदा सदाचरण का पड़ता है। साधारण उपदेश तो, हर गिरजे, हर मंदिर और हर मस्जिद में होते हैं, परंतु उनका प्रभाव तभी हम पर पड़ता है जब गिरजे का पादड़ी स्‍वयं ईसा होता है - मंदिर का पुजारी स्‍वयं ब्रह्मर्षि होता है - मसजिद का मुल्‍ला स्‍वयं पैगंबर और रसूल होता है।

यदि एक ब्राह्मण किसी डूबती कन्‍या की रक्षा के लिए - चाहे वह कन्‍या जिस जाति की हो, जिस किसी मनुष्‍य की हो, जिस किसी देश की हो - अपने आपको गंगा में फेंक दे - चाहे उसके प्राण यह काम करने में रहें चाहे जायं - तो इस कार्य में प्रेरक आचरण की मौनमयी भाषा किस देश में, किस जाति में और किस काल में, कौन नहीं समझ सकता? प्रेम का आचरण, दया का आचरण - क्‍या पशु क्‍या मनुष्‍य - जगत के सभी चराचर आप ही आप समझ लेते हैं। जगत भर के बच्‍चों की भाषा इस भाष्‍यहीन भाषा का चिह्न है। बालकों के इस शुद्ध मौन का नाद और हास्‍य ही सब देशों में एक ही सा पाया जाता है।

मनुष्‍य का जीवन इतना विशाल है कि उसमें आचरण को रूप देने के लिए नाना प्रकार के ऊंच-नीच और भले-बुरे विचार, अमीरी और गरीबी, उन्‍नति और अव‍नति इत्‍यादि सहायता पहुंचाते हैं। पवित्र अपवित्रता उतनी ही बलवती है, जितनी कि पवित्र और पवित्रता। जो कुछ जगत में हो रहा है वह केवल आचरण के विकास के अर्थ हो रहा है। अंतरात्‍मा वही काम करती है जो बाह्य पदार्थों के संयोग का प्रतिबिंब होता है। जिनको हम पवित्रात्‍मा कहते हैं, क्‍या पता है, किन-किन कूपों से निकलकर वे अब उदय को प्राप्‍त हुए हैं। जिनको हम धर्मात्‍मा कहते हैं, क्‍या पता है, किन-किन अधर्मों को करके वे धर्म-ज्ञान पा सके हैं। जिनको हम सभ्‍य कहते हैं और जो अपने जीवन में पवित्रता को ही सब कुछ समझते हैं, क्‍या पता है, वे कुछ काल पूर्व बुरी और अधर्म अपवित्रता में लिप्‍त रहे हों? अपने जन्‍म-जन्‍मांतरों के संस्‍कारों से भरी हुई अंधकारमय कोठरी से निकल ज्‍योति और स्‍वच्‍छ वायु से परिपूर्ण खुले हुए देश में जब तक अपना आचरण अपने नेत्र न खोल चुका हो तब तक धर्म के गूढ़ तत्‍व कैसे समझ में आ सकते हैं। नेत्र-रहित को सूर्य से क्‍या लाभ? कविता, साहित्‍य, पीर, पैगंबर, गुरु, आचार्य, ऋषि आदि के उपदेशों से लाभ उठाने का यदि आत्‍मा में बल नहीं तो उनसे क्‍या लाभ? जब तक यह जीवन का बीज पृथ्‍वी के मल-मूत्र के ढेर में पड़ा है, अथवा जब तक वह खाद की गरमी से अंकुरित नहीं हआ और प्रस्‍फुटित होकर उससे दो नये पत्ते ऊपर नहीं निकल आये, तब तक ज्‍योति और वायु किस काम के?

वह आचरण ही धर्म-संप्रदायों के अनुच्‍चारित शब्‍दों को सुनाता है, हम में कहां? जब वही नहीं तब फिर क्‍यों न ये संप्रदाय हमारे मानसिक महाभारतों का कुरुक्षेत्र बनें? क्‍यों न अप्रेम, अपवित्र, हत्‍या और अत्‍याचार इन संप्रदायों के नाम से हमारा खून करें। कोई भी संप्रदाय आचरण-रहित पुरुषों के लिए कल्‍याणकारक नहीं हो सकता और आचरण वाले पुरुषों के लिए सभी धर्म-संप्रदाय कल्‍याणकारक हैं। सच्‍चा साधु धर्म को गौरव देता है, धर्म किसी को गौरवान्वित नहीं करता।

आचरण का विकास जीवन का परमोद्देश्‍य है। आचरण के विकास के लिए नाना प्रकार की सामाग्रियों का, जो संसार-संभूत शारीरिक, प्राकृतिक, मानसिक और आध्‍यात्मिक जीवन में वर्तमान हैं, उन सबकी (सबका) क्‍या एक पुरुष और क्‍या एक जाति के आचरण के विकास के साधनों के संबंध में विचार करना होगा। आचरण के विकास के लिए जितने कर्म हैं उन सबको आचरण के संघटनकर्ता धर्म के अंग मानना पड़ेगा। चाहे कोई कितना ही बड़ा महात्‍मा क्‍यों न हो, वह निश्‍चयपूर्वक यह नहीं कह सकता कि यों ही करो, और किसी तरह नहीं। आचरण की सभ्‍यता की प्राप्ति के लिए वह सब को एक पथ नहीं बता सकता। आचरणशील महात्‍मा स्‍वयं भी किसी अन्‍य की बनायी हुई सड़क से नहीं आया, उसने अपनी सड़क स्‍वयं ही बनायी थी। इसी से उसके बनाए हुए रास्‍ते पर चलकर हम भी अपने आचरण को आदर्श के ढाँचे में नहीं ढाल सकते। हमें अपना रास्‍ता अपने जीवन की कुदाली की एक-एक चोट से रात-दिन बनाना पड़ेगा और उसी पर चलना भी पड़ेगा। हर किसी को अपने देश-कालानुसार रामप्राप्ति के लिए अपनी नैया आप ही बनानी पड़ेगी और आप ही चलानी भी पड़ेगी।

यदि मुझे ईश्‍वर का ज्ञान नहीं तो ऐसे ज्ञान से क्‍या प्रयोजन? जब तक मैं अपना हथौड़ा ठीक-ठीक चलाता हूँ और रूपहीन लोहे को तलवार के रूप में गढ़ देता हूं तब तक मुझे यदि ईश्‍वर का ज्ञान नहीं तो नहीं होने दो। उस ज्ञान से मुझे प्रयोजन ही क्‍या? जब तक मैं अपना उद्धार ठीक और शुद्ध रीति से किये जाता हूं तब तक यदि मुझे आध्‍यात्मिक पवित्रता का ज्ञान नहीं होता तो न होने दो। उससे सिद्धि ही क्‍या हो सकती है? जब तक किसी जहाज के कप्‍तान के हृदय में इतनी वीरता भरी हुई है कि वह महाभयानक समय में अपने जहाज को नहीं छोड़ता तब तक यदि वह मेरी और तेरी दृष्टि में शराबी और स्‍त्रैण है तो उसे वैसा ही होने दो। उसकी बुरी बातों से हमें प्रयोजन ही क्‍या? आँधी हो - बरफ हो - बिजली की कड़क हो - समुद्र का तूफान हो - वह दिन रात आँख खोले अपने जहाज की रक्षा के लिए जहाज के पुल पर घूमता हुआ अपने धर्म का पालन करता है। वह अपने जहाज के साथ समुद्र में डूब जाता है, परंतु अपना जीवन बचाने के लिए कोई उपाय नहीं करता। क्‍या उसके आचरणों का यह अंश मेरे तेरे बिस्‍तर और आसन पर बैठे-बिठाए कहे हुए निरर्थक शब्‍दों के भाव से कम महत्‍व का है?

न मैं किसी गिरजे में जाता हूं और न किसी मंदिर में, न मैं नमाज पढ़ता हूं और न ही रोजा रखता हूं, न संध्या ही करता हूं और न कोई देव-पूजा ही करता हूं, न किसी आचार्य के नाम का मुझे पता है और न किसी के आगे मैंने सिर ही झुकाया है। तो इससे प्रयोजन ही क्‍या और इससे हानि भी क्‍या? मैं तो अपनी खेती करता हूं, अपने हल और बैलों को प्रात:काल उठकर प्रणाम करता हूं, मेरा जीवन जंगल के पेड़ों और पत्तियों की संगति में गुजरता है, आकाश के बादलों को देखते मेरा दिन निकल जाता है। मैं किसी को धोखा नहीं देता; हाँ यदि कोई मुझे धोखा दे तो उससे मेरी कोई हानि नहीं। मेरे खेत में अन्‍न उग रहा है, मेरा घर अन्‍न से भरा है, बिस्‍तर के लिए मुझे एक कमली काफी है, कमर के लिए लँगोटी और सिर के लिए एक टोपी बस है। हाथ-पाँव मेरे बलवान हैं, शरीर मेरा अरोग्‍य है, भूख खूब लगती है, बाजरा और मकई, छाछ और दही, दूध और मक्‍खन मुझे और बच्‍चों को खाने के‍ लिए मिल जाता है। क्‍या इस किसान की सादगी और सच्‍चाई में वह मिठास नहीं जिसकी प्राप्ति के लिए भिन्‍न-भिन्‍न धर्म संप्रदाय लंबी-चौड़ी और चिकनी-‍चुपड़ी बातों द्वारा दीक्षा दिया करते हैं?

जब साहित्‍य, संगीत और कला की अति ने रोम को घोड़े से उतारकर मखमल के गद्दों पर लिटा दिया - जब आलस्‍य और विषय-विकार की लंपटता ने जंगल और पहाड़ की साफ हवा के असभ्‍य और उद्दंड जीवन से रोमवालों का मुख मोड़ दिया तब रोम न‍रम तकियों और बिस्‍तरों पर ऐसा सोया कि अब त‍क न आप जागा और न कोई उसे जगा सका। ऐंग्‍लोसेक्‍सन जाति ने जो उच्‍च पद प्राप्‍त किया बस उसने अपने समुद्र, जंगल और पर्वत से संबंध रखने वाले जीवन से ही प्राप्‍त किया। जाति की उन्‍नति लड़ने-भिड़ने, मरने-मारने, लूटने और लूटे जाने, शिकार करने और शिकार होने वाले जीवन का ही परिणाम है। लोग कहते हैं, केवल धर्म ही जाति की उन्‍नति करता है। यह ठीक है, परंतु यह धर्मांकुर जो जाति को उन्‍नत करता है, इस असभ्‍य, कमीने पापमय जीवन की गंदी राख के ढेर के ऊपर नहीं उगता है। मंदिरों और गिरजों की मंद-मंद टिमटिमाती हुई मोमबत्तियों की रोशनी से यूरप इस उच्‍चावस्‍था को नहीं पहुँचा। वह कठोर जीवन जिसको देश-देशांतरों को ढूँढ़ते फिरते रहने के बिना शांति नहीं मिलती; जिसकी अंतर्ज्‍वाला दूसरी जातियों को जीतने, लूटने, मारने और उन पर राज रकने के बिना मंद नहीं पड़ती - केवल वहीं विशाल जीवन समुद्र की छाती पर मूँग दलकर और पहाड़ों को फाँदकर उनको उस महानता की ओर ले गया और ले जा रहा है। राबिनहुड की प्रशंसा में जो कवि अपनी सारी शक्ति खर्च कर देते हैं उन्‍हें तत्‍वदर्शी कहना चाहिए, क्‍योंकि राबिनहुड जैसे भौतिक पदार्थों से ही नेलसन और वेलिंगटन जैसे अंगरेज वीरों की हड्डियां तैयार हुई थीं। लड़ाई के आजकल के सामान - गोला, बारूद, जंगी जहाज और तिजारती बेड़ों आदि - को देखकर कहना पड़ता है कि इनसे वर्तमान सभ्‍यता से भी कहीं अधिक उच्‍च सभ्‍यता का जन्‍म होगा।

धर्म और आध्‍यात्मिक विद्या के पौधे को ऐसी आरोग्‍य-वर्धक भूमि देने के लिए, जिसमें वह प्रकाश और वायु सदा खिलता रहे, सदा फूलता रहे, सदा फलता रहे, यह आवश्‍यक है कि बहुत-से हाथ एक अनंत प्रकृति के ढेर को एकत्र करते रहें। धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रियों को सदा ही कमर बांधे हुए सिपाही बने रहने का भी तो यही अर्थ है। यदि कुल समुद्र का जल उड़ा दो तो रेडियम धातु का एक कण कहीं हाथ लगेगा। आचरण का रेडियम - क्‍या एक पुरुष का, और क्‍या जाति का, और क्‍या जगत का - सारी प्रकृति को खाद बनाये बिना सारी प्रकृति को हवा में उड़ाये बिना भला कब मिलने का है? प्रकृति को मिथ्‍या करके नहीं उड़ाना; उसे उड़ाकर मिथ्‍या करना है। समुद्रों में डोरा डालकर अमृत निकाला है : सो भी कितना? जरा सा! संसार की खाक छानकर आचरण का स्‍वर्ण हाथ आता है। क्‍या बैठे-बिठाये भी वह मिल सकता है?

हिंदुओं का संबंध यदि किसी प्राचीन असभ्‍य जाति के साथ रहा होता तो उनके वर्तमान वंश में अधिक बलवान श्रेणी के मनुष्‍य होते - तो उनमें भी ऋषि, पराक्रमी, जनरल और धीर-वीर पुरुष उत्‍पन्‍न होते। आजकल तो वे उपनिषदों के ऋषियों के पवित्रतामय प्रेम के जीवन को देख-देखकर अहंकार में मग्‍न हो रहे हैं और दिन पर दिन अधोगति की ओर जा रहे हैं। यदि वे किसी जंगली जाति की संतान होते तो उनमें भी ऋषि और बलवान योद्धा होते। ऋषियों को पैदा करने के योग्‍य असभ्‍य पृथ्‍वी का बन जाना तो आसान है; परंतु ऋषियों की अपनी उन्‍नति के लिए राख और पृथ्‍वी बनाना कठिन है, क्‍योंकि ऋषि तो केवल अनंत प्रकृति पर सजते हैं, हमारी जैसी पुष्‍प-शय्या पर मुरझा जाते हैं। माना कि प्राचीन काल में, यूरप में, सभी असभ्‍य थे, परंतु आजकल तो हम असभ्‍य हैं। उनकी असभ्‍यता के ऊपर ऋषि-जीवन की उच्‍च सभ्‍यता फूल रही है और हमारे ऋषियों के जीवन के फूल की शय्या पर आजकल असभ्‍यता का रंग चढ़ा हुआ है। सदा ऋषि पैदा करते रहना, अर्थात अपनी ऊंची चोटी के ऊपर इन फूलों को सदा धारण करते रहना ही जीवन के नियमों का पालन करना है।

धर्म के आचरण की प्राप्ति यदि ऊपरी आडंबरों से होती तो आजकल भारत-निवासी सूर्य के समान शुद्ध आचरण वाले हो जाते। भाई! माला से तो जप नहीं होता। गंगा नहाने से तो तप नहीं होता। पहाड़ों पर चढ़ने से प्राणायाम हुआ करता है, समुद्र में तैरने से नेती धुलती है; आँधी, पानी और साधारण जीवन के ऊँच-नीच, गरमी-सरदी, गरीबी-अमीरी, को झेलने से तप हुआ करता है। आध्‍यात्मिक धर्म के स्‍वप्‍नों की शोभा तभी भली लगती है जब आदमी अपने जीवन का धर्म पालन करे। खुले समुद्र में अपने जहाज पर बैठकर ही समुद्र की आध्‍यात्मिक शोभा का विचार होता है। भूखे को तो चंद्र और सूर्य भी केवल आटे की बड़ी-बड़ी दो रोटियां से प्रतीत होता है। कुटिया में ही बैठकर धूप, आँधी और बर्फ की दिव्‍य शोभा का आनंद आ सकता है। प्राकृतिक सभ्‍यता के आने पर ही मानसिक सभ्‍यता आती है और तभी वह स्थिर भी रह सकती है। मानसिक सभ्‍यता के होने पर ही आचरण सभ्‍यता की प्राप्ति संभव है, और तभी वह स्थिर भी हो सकती है। जब तक निर्धन पुरुष पाप से अपना पेट भरता है तब तक धनवान पुरुष के शुद्धाचरण की पूरी परीक्षा नहीं। इसी प्रकार जब तक अज्ञानी का आचरण अशुद्ध है तब तक ज्ञानवान के आचरण की पूरी परीक्षा नहीं - तब तक जगत में आचरण की सभ्‍यता का राज्‍य नहीं।



आचरण की सभ्‍यता का देश ही निराला है। उसमें न शारीरिक झगड़े हैं, न मानसिक, न आध्‍यात्मिक। न उसमें विद्रोह है, न जंग ही का नामोनिशान है और न वहां कोई ऊँचा है, न नीचा। न कोई वहां धनवान है और न ही कोई वहां निर्धन। वहां प्रकृति का नाम नहीं, वहां तो प्रेम और एकता का अखंड राज्‍य रहता है। जिस समय आचरण की सभ्‍यता संसार में आती है उस समय नीले आकाश से मनुष्‍य को वेद-ध्‍वनि सुनायी देती है, नर-नारी पुष्‍पवत् खिलते जाते हैं, प्रभात हो जाता है, प्रभात का गजर बज जाता है, नारद की वीणा अलापने लगती है, ध्रुव का शंख गूँज उठता है, प्रह्लाद का नृत्‍य होता है, शिव का डमरू बजता है, कृष्‍ण की बाँसुरी की धुन प्रारंभ हो जाती है। जहाँ ऐसे शब्‍द होते हैं, जहां ऐसे पुरुष रहते हैं, वहाँ ऐसी ज्‍योति होती है, वही आचरण की सभ्‍यता का सुनहरा देश है। वही देश मनुष्‍य का स्‍वदेश है। जब तक घर न पहुँच जाय, सोना अच्‍छा नहीं, चाहे वेदों में, चाहे इंजील में, चाहे कुरान में, चाहे त्रिपीटिक (त्रिपिटक) में, चाहे इस स्‍थान में, चाहे उस स्‍थान में, कहीं भी सोना अच्‍छा नहीं। आलस्‍य मृत्‍यु है। लेख तो पेड़ों के चित्र सदृश्‍य होते हैं, पेड़ तो होते ही नहीं जो फल लावें। लेखक ने यह चित्र इसलिए भेजा है कि सरस्‍वती में चित्र को देखकर शायद कोई असली पेड़ को जाकर देखने का यत्‍न करे।

Saturday 18 May 2013

खुदगर्ज हूँ...


थोडा खुदगर्ज हूँ ,पर दगाबाज नहीं 

मामूली  प्यादा हूँ ,बेगैरत सरताज नहीं 

जिसकी हो साली




जिसकी हो साली, वह  भाग्यशाली 


अगर हो साला, रोज निकले दीवाला 

ये ज़िन्दगी का सफ़र है प्यारे

चाहे बम विस्फोट हो 
या कोई  रेल दुर्घटना 
भीषण अग्निकांड की लपटे उठे 
या जलमग्न हो गाँव-शहर अपना 

जर्जर बस खाई में गिरे 
या पड़े कुत्सित जाति द्वेष भुगतना 
भूकंप से धरा काँपे 
या युद्ध की विभीषिका से हो गुजरना 


लू के थपेड़े चले 
या चीथड़ो में सर्द रातें को सहना 
साम्प्रदायिकता डसे 
या मेलो की भगदड़ में चप्पलो  का हो बिखरना 

महामारी फैले 
या नकली शराब के कहर का हो बरापना 
घटिया बनी ईमारत भरभराये 
या दहशतगर्द की गोलियों का हो चलना 


कभी कहाँ  कोई नेता मरता है 
ये ज़िन्दगी का सफ़र है प्यारे 

यहाँ केवल आम आदमी ही SUFFER करता है 
आम आदमी ही SUFFER करता है 




अगर मैं GSVM मेडिकल कॉलेज का प्रिंसिपल होता

जैसे सरकार  बदल जाने पर तुरंत नए आदेश जारी हो जाते है ...मैं कॉलेज का प्रिसिपल बनते ही निम्नलिखित 10 कानून मुनादी कराके लाघू करूंगा :-

  1. लस्सू होना संगीन अपराध होगा 
  2. चिकित्सा  साहित्य (ML) first prof का चौथा एवं अनिवार्य विषय होगा 
  3. GH का गेट BH की तरह  कभी बंद नहीं होगा 
  4. बैकैत चुने जाने पर  आपको घर से पैसे मागने की कभी भी  जरुरत नहीं होगी 
  5. केवल उन्ही बालक /बालिकाओ की Supply लगेगी जो exam copy completely blank छोड़ के आयेगे 
  6. Prof   के रिजल्ट के बाद दारू पार्टी का खर्च कॉलेज प्रशासन उठाएगा 
  7. Sports Meet में BC भी एक खेल होगा 
  8. Saturday के खाने और film का खर्च immediate senior batch उठाएगा 
  9. अगर किसी की attendance short होती है तो इसकी पूरी ज़िम्मेवारी उसके room partner  की होगी ...(Proxy  क्यों नहीं लगायी )
last but not the least 

सुबह 8 का Lecture इतिहास के पन्नो में दफन किया जायेगा  

GSVM तेरा बहुत-बहुत शुक्रिया

                  (1 )
Admission का वो पहला दिन 
मंत्रमुग्ध करती college building 
पिताजी की गर्वमयी मुसकान 
Boss  प्रदत्त  प्रथम जलपान 
                  
                  (2)
First year का श्वेत  परिधान 

लघु केशो में लगे  सब चम्पू महान 
तीसरे बटन पे टिकी नज़र 
line लगने की भयावह ख़बर 
                  
                  (3)
Apron पर टंगी Name Plate 
डॉक्टर बनने की feeling great 
चव्वनी से कक्ष नपाई 
रात भर की वो जबरदस्त चटाई 
                 
                 (4)
मुर्गा बन मस्तिष्क रक्तसंचार वृद्धि 

femur पर बैठ instant FRCS डिग्री 
नींद आने पे दंड बैठक लगाना 
बरसते फूल सहर्ष खाना 
                
                 (5)
DH  में प्रथम प्रवेश 

पर-हितार्थ वे शव विशेष 
कांपते हाथो चले scalpel 
Steps ढूँढ़ते, थामे Cunningham's manual  
                
                 (6)
खाली हुई  हर एक bottle 

हंगामे परिपूर्ण समस्त hostel 
पोकने  पर  पीठ सहलाई 
फिर से न पीने की कसमे खाई 
               
                  (7)
राजमन /मिठाई लाल के हाथ का खाना 

मेस में बैठ थाली बजाना 
Breakfast  के संग news पेपर 
फिल्म के पैसे मांगते mess वेटर 
               
                  (8)
सुन्दर, मिश्रा की चाय 

छेड़ी गई  लडकियों  की हाय 
बाजपेयी के गरम समोसे 
सुट्टे के वो कश अनोखे 

                (9)
Prof पूर्व संध्या का आगमन 
मिष्ठान वितरण का कार्यक्रम 
प्रातः   विजयी-भव  तिलक 
MKB के नारे गूंजते बे-धड़क 
              
              (10)
रिजल्ट वाला  दिन ख़ास 

हर्ष-मातम  मिश्रित अहसास 
Hostel wing  बहती अविरल मदिरा 
अल्हड जवानी कितनी बे-परवाह 

              (11)
उधारी में  दिन बिताना 

मेस नेगेटिव देर से चुकाना 
मेनेजर को गोले देते जाना 
और Branded  नई जीन्स ले आना 
             
               (12)
शनिवार का दिन भी  खास 
संध्या पेट भरने की जुगाड़ 
मक्खन सिंह की मटन बिरयानी 
आर्यनगर की सैर सुहानी 
             
              (13)
इंटर्नशिप की अजीब व्यथा 
भविष्य अधर में लटका 
PG के लिए मारामारी 
कुत्ते सरीखी जिंदगी हमारी 
              
              (14)
कॉलेज छोड़ने का दिन दुखदायी 
आंखे कितनी डब-डबाई 
धीमे कदम कहते  अलविदा 
GSVM तेरा बहुत-बहुत   शुक्रिया-
GSVM तेरा बहुत-बहुत शुक्रिया















Friday 17 May 2013

AC की तैसी

AC की तैसी 

गुस्से में तमतमाई 
बीवी को 
AC के सामने बैठाया 
thermostat 16 डिग्री पर घुमाया 
पंखा भी चलाया 

AC  चिल्लाया 
ज़ोर से गिडगिड़ाया 
भईया हमें  माफ करो 
इस धधकती ज्वाला को 
तुम स्वयं ही सहो 


दो आश्वासनों का शरबत 
लगाओ उपहारों का पर्वत 
पिलाओ  हर अरमान पूरा करने की ठंडाई 
करो सास-साली की बड़ाई 


इनके क्रोध का पारा तो 
मेरी क्षमता  के बाहर है 
इसका समाधान 
बिजली के उपकरण नहीं 
केवल आपका स्नेह भरा व्यवहार है 
आपका स्नेह भरा व्यवहार है 











डर गए यमराज




देश के भ्रष्टजनो से 



शायद डर गए यमराज 



चित्रगुप्त बहीखाते को भी 



कहीं चौपट न कर दे ये जालसाज ..

misc 2 courtesy Dhiraj Tewari

फुरसत में करेंगें तुझसे हिसाब ये जिंदगी |


अभी उलझे हैं हम खुद को ही सुलझाने में


ठिकाना कब्र है तेरा, इबादत कुछ तो कर ग़ाफिल,


कहावत है कि खाली हाथ घर जाया नहीं करते...



बहुत देर से आया तू मेरी जिंदगी में मेरे खुदा


अब न इबादत का वक्त रहा ना नमाज का.


फ़लसफ़ा जिंदगी का कुछ काम न आया


हर मोड़ पे एक और नया मोड़ मिलता गया.



क्यों कामयाबियों का करूं ज़िक्र फख्र से,


नाकामियों ने भी सिखाई है जिंदगी.


हमसे मिलकर वो क्या गज़ब ढाने लगे..

ईश्वर को छोड़ हमारी कसम खाने लगे.



मैं चुप रहा तो और गलत फहमियां बढीं,


वो भी सुना है उसने जो मैनें कहा नहीं.


अपने लहजे पर गौर कर के बता


लफ्ज कितने है , तीर कितने है ??



यूं न पढ़िए कहीं कहीं से हमें


हम भी इंसान हैं, किताब नही.



बड़ी गुस्ताख है तुम्हारी याद, इसे तमीज सिखा दो


दस्तक भी नहीं देती, और दिल में उतर जाती है ..



"वास्ता नही रखना.. तो फिर.. मुझपे नजर क्यूं रखता है...



मैं किस हाल में जिंदा हूँ.. तू ये सब खबर क्यूं रखता है ;



हमने देखा था फकत शौक-ऐ-नजर की खातिर


ये न सोचा था के तुम दिल मैं उतर जाओगे



धर्म को बाँटने वाले इंसान बता तेरी रज़ा क्या है?


तूने ईश्वर को भी ना छोड़ा, बता तेरी सज़ा क्या है?



मेरी कारनामा -ए- जिन्दगी, मेरी हसरतों के सिवाए कुछ नहीं,


ये किआ नहीं, वो हुआ नहीं, ये मिला नहीं, वो रहा नहीं..



खुदा बख्शे हमें उनसे.. कि उनकी दिल्लगी ऐसी..


शहर की नींद उड़ जाए तो उनको नींद आती है..!!!


ला तेरे पैरोँ मेँ मरहम लगा दूँ........।


मेरे दिल को ठोकर मारने से तुझे चोट तो आई होगी


यूँ तो मुस्कुराकर ही


घायल करने का रखते हैं हुनर वो


खुदा जाने उनके इरादे


हमें देखकर क्यूँ खिलखिला दिए..


वफ़ा करते रहे हम इबादत की तरह !


फिर इबादत खुद एक गुनाह हो गई !!


कितना सुहाना था सफर जब साथ थे तुम !


फिर क्या हुवा की मंजिल जुदा हो गई !



बहुत एहसान है तेरी उन नफरतों का मुझ पर... ऐ ज़ालिम,


तुझसे मिली ठोकर ने मुझे संभलना सिखा दिया.....!!

Thursday 16 May 2013

Misc courtesy Dhiraj Tewari

ना जाने किसकी दुआओं का फैज़ है मुझपर,
मैं डूबता हूँ और दरिया उछाल देता है...

मैं परेशां था,परेशां हूँ, नई बात नहीं,
आज वो भी हैं परेशान, खुदा खैर करे।

मेरे हाथों को मालूम है तुम्हारे गिरेबानों का पता,
चाहूं तो पकड़ लूं पर मजा आता है माफ करने में ।

तुम्हें ग़ैरों से कब फुर्सत हम अपने ग़म से कब ख़ाली
चलो बस हो चुका मिलना न तुम ख़ाली न हम ख़ाली.

उस ने फिर मेरे ज़ख्मों को ताज़ा कर दिया !
पुराने अंदाज़ में आने का कल वादा कर दिया !!




थोड़ी मस्ती थोड़ा सा ईमान बचा पाया हूँ।
ये क्या कम है मैं अपनी पहचान बचा पाया हूँ।

कुछ उम्मीदें, कुछ सपने, कुछ महकी-महकी यादें,
जीने का मैं इतना ही सामान बचा पाया हूँ .



तू अगर मुझे नवाज़े तो तेरा करम है मेरे "मालिक" !!
वरना तेरी रहमतों के काबिल मेरी बंदगी नहीं !!

-ये किन की तोहमतों से घबरा के तूने सर झुका लिया बन्दे,
वो जिन के अपने सिरों पर तोहमतों की पगड़ियाँ बंधी है.

आज कोई नया जख्म नहीं दिया उसने मुझे ,
कोई पता करो वो ठीक तो है ना .............

"ईश्वर चित्र में नहीं 
चरित्र में बसता है ;
अपनी "आत्मा" को 
मंदिर बनाओ".

मेरी कारनामा -ए- जिन्दगी, मेरी हसरतों के सिवाए कुछ नहीं,
ये किआ नहीं, वो हुआ नहीं, ये मिला नहीं, वो रहा नहीं..

रंगत लाई हैं...शायरों की महफ़िल...
दर्द भी कितना...महकता हैं यहां...


मैं और मेरा ईश्वर, दोनों एक जैसे हैं। हम रोज़ भूल जाते हैं।
वो मेरी गलतियों को और मैं उसकी
.
..
...
मेहरबानियों को।


"चलो अच्छा हुआ, जो तुम मेरे दर पे नहीं आए
तुम झुकते नहीं, और मैं चौखटें ऊंची कर नही पाता !"


तुझ सी हुनरबाज़ नहीं मैं..... ऐ शख्स.......
....लहूलुहान कर किसी को ....मुझे सीने से लगाना नहीं आता.....


बहुत एहसान है तेरी उन नफरतों का मुझ पर... ऐ ज़ालिम,
तुझसे मिली ठोकर ने मुझे संभलना सिखा दिया.....!! —

बेख्याली में भी कभी तेरा ख्याल नहीं जाता
तू साथ नहीं,पास नहीं ये मलाल नहीं जाता

मैं सदा उसके पैर और वो मेरे गले पड़ता रहा
मेरे सर पे पाँव रख के वो सीढ़ियां चढ़ता रहा.

हर एक बात पे कहते हो तुम के ‘तू क्या है ’
तुम्हीं कहो के यह अंदाज़ -ए -गुफ्तगू क्या है... ?

"एक बेहतरीन इंसान अपनी जुबान से ही पहचाना जाता है;
"वर्ना अच्छी बातें तो दीवारों पर भी लिखी होती है..

सामने हैं जो उसे लोग बुरा कहते हैं
जिसको देखा भी नहीं उसको खुदा कहते हैं.

ये मेरा इश्क था की दीवानगी की इम्तहाँ,
तेरे करीब से गुज़र गया, तेरे ही ख्याल में...

किसी के आने या जाने से जिँदगी नही रुकती...
बस जीने का अँदाज बदल जाता है

नादान हैं वो,
कुछ समझते ही नहीं ।
सीने से लगा कर पूछते हैं,
धड़कन तेज क्यो है...

आपकी नज़रें इनायत हो गई,
दूर बरसों की, शिकायत हो गई ।

बाहर के सर्द मौसम पर तो तुम्हे ऐतराज़ हो चला है;
रगों में बहते सर्द खून का कभी तुम ज़िक्र नहीं करते..

मैं ताक रहा.. उस को.. वो झांक रहा.. मुझ को..
इस ताक - झांक.. में ही.. ज़िन्दगानी गुज़र गई ...


मौज मस्ती में कटे उम्र,
यही याद रहे
मैं रहूँ या ना रहूँ,
फिर भी मेरी याद रहे.

रास्तों के सीने में भी दिल धड़कते हैं.....
जाने कौन कोई मुसाफिर जाना पहचाना निकले....

संभव क्या असंभव क्या, ये तो इक आडम्बर है...!!
पहचानो उस शक्ति को, जो छुपी तुम्हारे अंदर है....!!

तेरे दर से उम्मीद टूटी थी न टूटी है न टूटेगी,"
या रब,
मैं इस दुनिया से मायूस हो सकता हूँ तेरी रहमत से नही"

एक वक़्त तक मैं उसकी ज़रूरत बना रहा,
फिर यूँ हुआ कि उसकी ज़रूरत बदल गयी ...

ये सीडियाँ उन्हें मुबारक जिन्हें छत पर जाना है !
जो आसमा की आरजु रखते हैं, उन्हें अपना रास्ता खुद बनाना है !!

अपनी मर्ज़ी से भी दो-चार कदम चलने दे,
ज़िन्दगी, हम तेरे कहने पे चले हैं वर्षों।

फ़ासले घटा देते है दिल से नफरतों को
वो जो दूर हुए कुछ मुहब्बत सी होनी लगी !'

उन्हीं को मिलीं सारी ऊचाईयां
जो गिरते रहे और संभलते रहे

तू अगर मुझे नवाज़े तो तेरा करम है मेरे "मालिक" !!
वरना तेरी रहमतों के काबिल मेरी बंदगी नहीं !!

दुनिया मेरी तलाश में रहती है रात-दिन,
मैं सामने हूँ मुझ पे किसी की नज़र नहीं ..!!

यूँ तो कर लेता आपका इंतज़ार कयामत तक,
पर मौत से बचाने वाला कोई खुदा न मिला.....

जब किसी से कभी गिला रखना *********
सामने अपने आईना रखना !

यह आसूं
वक़्त बे वक़्त मेरी आखों मैं
टहलने चले आते हैं
ख़ुशी हो या गम
मेरा पूरा साथ निभाते हैं
हम तेरे अपने हैं
ये जताने चले आते हैं.


समर शेष है- रामधारी सिंह दिनकर

समर शेष है
ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो
किसने कहा, युद्ध की बेला गई, शान्ति से बोलो?
किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्नि के शर से
भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से?

कुंकुम? लेपूँ किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान।
फूलों की रंगीन लहर पर ओ उतराने वाले!
ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले!
सकल देश में हालाहल है दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी शेष भारत में अंधियाला है।

मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार,
ज्यों का त्यों है खड़ा आज भी मरघट सा संसार।
वह संसार जहाँ पर पहुँची अब तक नहीं किरण है,
जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर-वरण है।
देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्तस्तल हिलता है,
माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है।
पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज,
सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज?
अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है?
तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है?
सबके भाग्य दबा रक्खे हैं किसने अपने कर में ?
उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी, बता किस घर में?

समर शेष है यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा,
और नहीं तो तुझ पर पापिनि! महावज्र टूटेगा।

समर शेष है इस स्वराज को सत्य बनाना होगा।
जिसका है यह न्यास, उसे सत्वर पहुँचाना होगा।
धारा के मग में अनेक पर्वत जो खड़े हुए हैं,
गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं,
कह दो उनसे झुके अगर तो जग में यश पाएँगे,
अड़े रहे तो ऐरावत पत्तों -से बह जाएँगे।
समर शेष है जनगंगा को खुल कर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो।
पथरीली, ऊँची ज़मीन है? तो उसको तोडेंग़े।
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे।

समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर,
खंड-खंड हो गिरे विषमता की काली जंज़ीर।
समर शेष है, अभी मनुज-भक्षी हुँकार रहे हैं।
गाँधी का पी रुधिर, जवाहर पर फुंकार रहे हैं।
समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है,
वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है।
समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल
विचरें अभय देश में गांधी और जवाहर लाल।
तिमिरपुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्कांड रचें ना!
सावधान, हो खड़ी देश भर में गांधी की सेना।
बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे
मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे!
समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध।