Tuesday 19 May 2015

जेठ की  इस भरी दोपहरी खाना खाकर सब सुस्ता रहें है , माँ की जबरदस्त हिदायत भरी चेतावनी  है -- बाहर लू चल रही है , खबरदार अगर घर के बाहर पैर भी रखा तो , तू  सोयगा तो है नहीं और  कुछ न कुछ खुराफ़ात तो जरुर करेगा ही पर ध्यान रहे  कि  कोई भी खटर-पटर न हो , अगर तेरे मचाये शोर से तेरे पापा जग गए तो मै तुझे बचाने नहीं आऊँगी ...

माँ इतना कुछ कह अन्दर के कमरे में सोने चली गयी ... उसकी रोज की व्यस्त दिनचर्या में सुस्ताने का ये ही तो अल्प समय है , इस मध्यमवर्गी परिवार में एक  वो ही शेषनाग है जिसने सम्पूर्ण गृहस्थी का बोझ संभल रखा है ... पिताजी का काम पैसे कमाने और बाहर के छोटे-मोटे कामो का अलावा ज्यादा कुछ और नहीं और  घर के सारे कामो की जिम्मेदारी तो इसी के कंधो पे है ... मेहरी , धोबी , और माली की शाही  सुविधा इस बचतोन्मुख परिवार में कहाँ ?

सुबह जल्द उठ के पानी भरना , सम्पूर्ण घर की झाड़ू बुहारी और पोछा, नहा-धोकर मंदिर में दीया जलाना , दूध वाले से दूध लेना और उससे दूध के पतला होने की झिक-झिक करना , सबके लिए चाय बनाना और उसे उनके बिस्तर तक पहुचना , घर के अपने छोटे से खेत के गुड़ाई करना ,पौंधो में पानी डालना , सबके लिए नाश्ता बनाना और उसके उसके उपरांत लगे बर्तनों के अम्बार को अपने हाथो के करतब से चमकाना और इस बीच दरवाजे पे कोई मांगने वाला आ जाय तो उसे कभी भी खाली हाथ न लौटने देना , मेतरानी की भी सुनना और उसे भी चाय पिलाना और  रोटी –सब्जी खिलाना ...

सुबह के काम से निबटना और दोपहर के में जुट जाना , ये वो समय है जब न तो रसोई गैस की सुविधा है और ना हीं पिसे मसालों का विलासी सुख  , केरोसिन स्टोव , बुरादे के अंगेठी और सिल -बट्टे  से ही जूझना है ,फूंकना है और काले हाथ ,ललाट लिए, पसीने से तरबतर हो बस जुटे ही रहना है  ...बचत के लिए थोडा अधिक शारीरिक श्रम कर लेना ही मानसिकता है और हो भी क्यों ना , वर्तमान के ये थोड़े-बहुत अतिरिक्त श्रम अतीत  के विकराल  अभावो  के सम्मुख  कितने बौने जो नज़र आते है...

खैर घर में सब सो चुके है , पिताजी के खर्राटे मुझे उनके  गहरी नींद में होने की अवस्था से   आश्वस्त करा रहे है , यही सही मौका घर से बाहर निकलने का , चप्पल पैरो से निकाल के हाथ में पकड़ ली है , मेन दरवाजे के कुंडी जो पिछली दफा मेरे पकडे जाने का कारण बनी थी उसे कल रात ही सिलाई मशीन के तेल से सराबोर कर शांत किया जा चुका है , घर के लोहे के  गेट को खोलने से उत्पन्न आवाज़ का जोखिम नहीं लिया जा सकता इसलिए दीवार फांदना ही उचित रहेगा और समस्त बाधाओं को पार कर मै घर के पास की इस पसंदीदा बगिया में पहुँच चुका हूँ जहाँ चारो ओर आम के पेड़ो की बहुतायत है , और ये क्या ? पिंकू , रिंकू , नन्हे , कल्लू और बबलू भी अपने घर वालों को धता दे बाग़ में पहुँच चुके है ...

ढेले ,पत्थर इक्कठे किये जा रहे है , स्पर्धा इस बात की है कौन सबसे पहले अमिया पेड़ से  झडाऐगा , कलमी और फजली अमियाँ के पेड़ चुना गया है , ये मीठी जो होती है और अगर कोयल पद्दो मिल जाये तो और भी सोने पे सुहागा  ...दे दना दन पत्थर और ढेले फेंके जा रहे है और उनके लक्ष्य से जरा से चूकने का अपनी वाणी और सिर को  पकड़ के एक  बड़ा सा अफ़सोस भी मनाया जा रहा है , अचानक लक्ष्य भेद ही लिया गया , तीन  अमिया नीचे गिर चुकी हैं  , सब उन्हें  लूटने को दौड़ पड़े है और इस बहस के बीच कि  किसका निशाना लगा और ये गिरे हुए  अपरिपक्व फल किसके  है ,  दूर माली की गाली भरी आवाज़ कानो में पड़ रही है ... अपने आपसी  विवाद को भुला  सब के सब गिरी हुई अमिया को  उठाके  भाग रहे है हमारे घर के बाहर के  बरांडे की ओर जहाँ बैठ ,  मिल बाँट  हम सब अपनी इस मेहनत का  स्वाद लेंगे...

अपने इस सम्मलित प्रयास का मजा लिया  जा रहा है , अमिया की चेपी अच्छी तरह से  निकल ली गयी है , अब उसको हाथ से फोड़ के सबमें बांटा जा रहा है , पत्थर फेकने के कारण अपने मैले-कुचले हाथो को अपनी कमीज से पोछ सभी बालक अपनी माँओ  का काम बडा,  ख़ुशी-ख़ुशी अपनी इस उपलब्धि का उत्सव मना रहे हैं , धूप कम होने   होने का बेसब्री से इंतज़ार है , शाम को बच्चो के यही चौकड़ी पतंगबाज़ी में अपने हाथ आजमाएगी...

इस गर्मी में वातानुकूलित   मॉल्स से फल खरीदते अपने अभिभावकों के साथ बच्चो को देख बार-बार मन में यही ख्याल आता है कि हमारी उन्नति हमारी संतानों को प्रकृति से कितना दूर ले जा रही है, चका-चौंध और चमक वास्तविकता  पर कितनी  हावी  है ...
पिता –पुत्र का सम्बब्ध अनेकों उतार-चढाव  वाला होता है, जीवन की विभिन्न अवस्थाओ में इसके अलग-अलग रंग देखने को मिलते है ... बचपन में पिता ही सबकुछ होते है.. बिलकुल एक सुपरहीरो के तरह, सर्वशक्तिमान  ...वो सब जानते है ...वो सब कर सकते है ...

किशोरावस्था में पिता हिटलर सरीखे नज़र आते है ... हम पर पैनी नज़र रखने वाले , हमेशा पढने के लिए कहने वाले , हमें हर बात पे टोकने वाले और गलती करने पर  प्रताड़ित करने वाले , इस समय अपने पिता हमें सबसे बुरे लगते है और मित्रों के पिता सबसे उम्दा नज़र आते है और मन में बार-बार एक ही ख्याल  आता --- काश ! हमारे पापा भी पिंटू के पापा की तरह होते ... देखो कैसे और कितनी  जल्दी उसकी हर मुराद पूरी करते रहते है ...

१८ साल के व्यस्क होते ही दोस्त ज्यादा प्रिय हो जाते है , पिता की हैसियत  एक पैसे देने वाली ATM मशीन सरीखी हो जाती है , उन जितना कम रूबरू हुआ जाए उतना अच्छा नहीं तो कपड़ो , आदतों , मित्रों , और दिनचर्या पे लम्बे-लम्बे व्याख्यान सुनने को मिलेंगे , पिताजी अगर एक  दरवाजे से कमरे के अन्दर  घुसते है  तो बेटा दूसरे दरवाजे से तुरंत बाहर कट लेता है , व्यर्थ के वाद-विवाद में कौन पड़े ? ... पिता  मज़बूरी की वजह से जरुरी  नज़र आने लगते है ... आंखिर उन पर अपनी सम्पूर्ण आर्थिक निर्भरता जो होती है ...

शादी के समय पिता सबसे ज्यादा जरुरी होते है , निर्णय लेने के लिए नहीं अपितु हमारे निर्णय को वहन करने के लिए और थोडी बहुत सामाजिक औपचारिकताओं के निर्वहन हेतु ...

संतान उत्पत्ति  के उपरांत उसके  पालन-पोषण आने वाली दिक्कते हमें पिता की असल अहमियत समझती है और हमें अपने पिता को एक नयी नज़र से देखने को बाध्य कर देती है , हम बार-बार ये सोचने में मजबूर हो जाते है कि हम से एक नहीं संभल रहा हम तीन-तीन भाई बहनों को माँ-पिताजी ने कैसे संभाला होगा ?

रोजी –रोटी की दौड़ में मसरूफ हम लोगों का बार-बार माँ-पिताजी से आग्रह रहता है के वो हमारे साथ आकर रहे , हमारे बच्चे दो-चार अच्छी बातें सीख लेंगे , उन्हें अच्छे संस्कार मिलेंगे और हमें सुकून कि  हमारे अनुपस्थिति में घर का कोई अपना बच्चो की देखभाल के लिए है ....पर अपने इस स्वार्थ में हम उनकी स्वतंत्रता को सीमित कर देते है और उन्हें मजबूर कर देते है के वो अपनी जड़ो से दूर इस तंग महानगरीय जीवन को जीयें जहाँ पास-पड़ोस के कोई मायने ही नहीं ...

बढ़ती जिंदगी अनेकों जटिलतायें  लेकर आती है , हमें अपने प्रभुत्व को दर्शाने के लिए हमेशा सबसे बेहतरीन ,अनावश्यक भौतिक साधनों की दरकार रहती है और इसके लिए एक आशा भरी नजर पिताजी की ओर ही लगी रहती है कि वो हमारी मदद करें जो अक्सर भाई- बहनों में आपसी  खीचतान का सबब बनती है ...पिताजी के इच्छा , मर्जी या चाह कोई मायने नहीं रखती उन्हें तो बस अपनी जरूरत बता दी जाती है और वो भी बड़े ही रूखे अंदाज़ में ...

पिताजी केवल आपकी जरूरत पूर्ति का साधन नहीं , उनकी भी एक अपनी जिंदगी और सोच है , जीवनभर संघर्षरत इस योद्धा को भी विश्राम और सुकून चाहिए, उनपे अपने निर्णय इस करके न थोपिए कि वो तो अपनी जिंदगी जी चुके और उम्र के इस पड़ाव में उनका दायित्व संतान की मदद के अलावा कुछ अन्य नहीं ...उनसे आग्रह करें नाकि भावुकता की चासनी में लिपटे हुए आदेश दें ...

बड़े –बूढ़े एक विशाल वट वृक्ष की भांति है जो अपने आश्रय से सबको जोड़े रखते है , जिनमें जीवन के अनुभव प्रचुर मात्रा मौजूद है जो अमूल्य है ... समय निकालिए उनसे बात करिये , संवाद की शक्ति को पहचानिए ,फ़ोन पे केवल हाल-चाल पूछने भर की औपचारिकताओं तक सीमित न रह जाईये  उनके पास भी बताने के लिये एक से एक बढ़कर  रोचक किस्से हैं जोकि आज तक उन्होंने आपको नहीं बतायें , मसलन उनका बचपन , उनकी पहली नौकरी , उनका पहला प्यार , उनकी हॉस्टल लाइफ , उनके सुट्टे का पहला कश यकीन मानिये आप बिलकुल भी बोर नहीं होंगे और आपको अपने एकदम से बिलकुल नए पापा के दर्शन होंगे...

याद रखें जैसा बोयेंगे आगे वैसा ही काटेंगे ... पिताजी हमेशा साथ नहीं रहने वाले और उम्र के इस पड़ाव पे सबसे बेहतरीन पे पहला  हक़ उनका है ...