Sunday 29 November 2015

दूध का भरा गिलास....

माँ स्टडी टेबल  पे दूध का भरा गिलास रखते हुए बोली - ज्यादा नखरे मत दिखा ,इसे चन्न करके पी जा,बढ़ते बच्चो के लिए रोज दूध पीना जरुरी है , दूध नहीं पीयेगा  तो ठिगने का ठिगना रह जायेगा ....

किताबों से क्षण भर के लिए नजर हटाते हुए मैंने बड़े ही अनमने ढंग से दूध से भरे  हुए उस स्टील के गिलास को देखा , उसके ऊपर उठती हुई हलकी-हलकी भाप उसके गरम होने का अहसास करा  रही थी  पर सतह पर जमी पतली सी मलाई की परत मुझे उबकाई भी दिला रही थी .....

बचपन में दूध पीना मुझे कतई भी पसंद न था , श्वेत रंग के बेस्वाद से लगने वाले  इस पेय पदार्थ को कंठ से नीचे उतारना नितांत ही दुरूह कार्य था इसलिए इससे बचने के लिए तरह-तरह के प्रपंच रचे जाते , बहुत गर्म /ठंडा होने के बहाने बनाए जाते , चीनी कम-ज्यादा होने बेजा शिकायते की जाती , पेट भरे होने और तिल भर भी जगह न होने के तर्क दिए जाते, मलाई हटाने को कहा जाता  और माँ  हमारी  इन सारी  उटपटांग मांगो को पूर्ण करने के लिए रसोई और कमरे के  बीच नाचती ही  रहती और अगर इन सब के बावजूद भी हमारा बाल हठ जारी रहता तो उनकी पिताजी से शिकायत कर देने की धमकी एक ब्रह्मास्त्र का कार्य करती जिसका वार कभी भी विफल न जाता ....

वैज्ञानिक विश्लेषण से परे यहाँ अनुभवों के आधार पे उसे दूध के एक सम्पूर्ण आहार होने के इल्म था , गाय या भैस के होने पे विवाद न था पर पूर्णरुपेण शुद्ध होना उसके स्वीकार्य होने एकमात्र  कसौटी थी , पानी के अलावा किसी अन्य दूसरी चीज के  मिलने से उसके अशुद्ध या कृत्रिम होने के बारे में उस समय सोचा भी नहीं जा सकता शायद मानव का नैतिक और चारित्रिक पतन आज के दर्जे का ना था ...बच्चो को गिलास भर दूध पिलाने के बाद मातृत्व का वो संतोष अगाध था , उसकी शांत जुकड़ी  अब तल्लीनता के साथ घर के अन्य कार्यो में रम सकती थी ....

खाद्य पदार्थो के चुनाव में सबसे ज्यादा तरजीह दूध को ही मिलती , बाल्टी लेकर अपने सामने दुहवा दूध लाना पिताजी की प्राथमिकताओ में था , कभी कभार   अगर हमें जाना  पड़ता तो पहले से  दूधिये की चलाकियों के बारे में बताया जाता और सजग रहने की हिदायत दी जाती फिर भी दूधिया चलाकी कर ही देता , दूध के डिब्बे में फेन भरके वो थोड़ी घटतोली कर ही डालता.....

रोज दूध पीने के कार्यक्रम में ड्रामा होना लाजमी था , पर न चाहते हुए भी दूध तो पीना ही पड़ता , तरह-तरह के प्रलोभनो और झिडकियों का दौर जारी रहता , ममता और भयदोहन का क्रम  भी जारी रहता ....

बचत की ओर आसक्त इस मध्यमवर्गी परिवार में दूध में मिला उसकी पौष्टिकता और स्वाद में इजाफा करने का दावा  करने वाले बाज़ार में उपलब्ध डिब्बाबंद  पदार्थो के प्रति रूचि न थी , उनको नकारने के यहाँ अपने तर्क थे जो काफी हद तक सही भी थे , चीनी मिले गर्म दूध को  बिना कुछ मिलाये उसके स्वाभाविक श्वेत रूप में ही सेवन को श्रेयस्कर माना जाता था ....जाड़ो में चीनी जगह गुड का मिलना एक सुखद बदलाव होता था ....

किशोरावस्था के आगमन पे थोड़ी रियायतों का मिलाना लाजमी था , अब रसोईघर में प्रवेश किया जा सकता था , और अपने हिस्से के  मिले दूध में परिवर्तन करने में रोकटोक भी न थी , कभी दूध-पत्ती , कभी घुटी कॉफ़ी तो कभी सेवई बना कर बना मैंने दूध की उस बेस्वादीपन से आंखिरकार छुटकारा पा ही लिया , छोटी इलायची के दानों ने मुझे उस अप्रिय खालिस  दुधैन स्वाद से मुक्त कराने में काफी मदद की ....

पिताजी के विपरीत आज सोते समय मै गिलास भरके गर्म दूध नहीं पीता पर यदा-कदा हलवाई के यहाँ भट्टी पे चढी बड़ी सी लोहे की कडाही पे खोलते दूध के देख पता नहीं मन  क्यों ललचा जाता है?, कुल्हड़ में दूध गरम भी होता है और उसमें मोटी सी मलाई की परत  भी होती है , दूध को पीते -पीते अतीत में  माँ के द्वारा परोसे गए स्टील गिलास की तली में  अधघुले चीनी के  दानो याद हमेशा ही आती रहती  है ....

Sunday 15 November 2015

पुरानी पेंट रफू करा कर पहनते जाते है
Branded नई shirt देने पे आँखे दिखाते है
टूटे चश्मे से ही अख़बार पढने का लुत्फ़ उठाते है 
Topaz के ब्लेड से दाढ़ी  बनाते है 
पिताजी आज भी पैसे बचाते है ….

कपड़े का पुराना थैला लिये 
दूर की मंडी  तक जाते है
बहुत मोल-भाव करके 
फल-सब्जी लाते है
Packet नहीं अपने  सामने दुहवा हुआ 
खालिस दूध  पोते-पोतियों को पिलाते है
आटा नही खरीदते, गेहूँ पिसवाते है
पिताजी आज भी पैसे बचाते है… 

स्टेशन से घर पैदल ही आते है 
रिक्सा लेने से कतराते है 
सेहत का हवाला देते जाते है 
बढती महंगाई पे चिंता जताते है
पिताजी आज भी पैसे बचाते है ....

पूरी गर्मी पंखे में बिताते है 
सर्दियां आने पर रजाई में दुबक जाते है 
AC/Heater को सेहत का दुश्मन बताते है 
लाइट खुली छूटने पे नाराज हो जाते है 
पिताजी आज भी पैसे बचाते है

माँ के हाथ के खाने में रमते जाते है 
बाहर खाने में आनाकानी मचाते है 
साफ़-सफाई का हवाला देते जाते है 
मिर्च, मसाले और तेल से घबराते है 
पिताजी आज भी पैसे बचाते है…

गुजरे कल के किस्से सुनाते है 
कैसे ये सब जोड़ा गर्व से बताते है 
पुराने दिनों की याद दिलाते है 
बचत की  अहमियत समझाते है 
हमारी हर मांग आज भी 
फ़ौरन पूरी करते जाते है 

पिताजी हमारे लिए ही पैसे बचाते  है ...

Friday 6 November 2015

क्यों सोचे तुम्हारा मन मेरी तरह
क्यों हो मेरी हर पसंद तुम्हारी भी रूचि
क्यों बताऊँ मै तुम्हे आचरण और सलीके
क्यों ढलो तुम मेरी इच्छाओ के अनुरूप  यूँही

क्यों तुम्हारा ही दायित्व रहे परिजनों के प्रति
और मै पाता  रहूँ सम्मान अछिन्न
क्यों तुम्हारा  इंकार लगे बगावत का  स्वर
और मेरी मर्जी चले हर दिन

क्यों तुम्हारे तर्क भी लगे कुतर्क
और मेरी अपरिपक्वता उचित
क्यों मै चाह के भी स्वीकार न  पाऊं अपनी त्रुटि
और तुम बिन कुछ किये हो जाओ अभियोजित

तुम भी तो मेरी ही तरह सक्षम
फिर बार-बार घिसो क्यों तुम ही
क्यों हर निर्णय में निर्णायक बनू मै
और तुम प्रदान करो  अपनी स्वीकृति

सभवतः बचपन से आजतक
इस पुरुष प्रधान तथाकथित सभ्यसमाज ने
सदैंव रोपित और पोषित किया मुझमें
सर्वोपरी और श्रेष्ठ होने का भ्रम...

Tuesday 3 November 2015

आज का दिन हम सबके लिए  बेहद खास है 
सबकुछ अच्छा होगा इसका प्रबल अहसास है 
पिताजी के मामाजी के घर ये आयोजन है 
लड़का-लड़की को एक दूसरे से मिलाने का प्रयोजन है 

फल -मिठाई मेवे सब के सब मेज पे सजे हैं 
विविध प्रकार के पकवान भी आज घर पे बने हैं 
नाते-रिश्तेदारों की सीमित चहल पहल है 
शुरुआत हैं , बात बिगड़ जाने का भी तो  डर है 

सबके नयन प्रतीक्षारात घर के गेट पे टिके हैं 
कान भी हर आहट को सुनने की कोशिश करने लगे है 
वक्त देखों अब काटे नहीं कटता है 
कुछ याद आने पे भईया झट माँ के पास दौड़ पड़ता है 

दीदी की साड़ी पहनने से न नुकुर है 
इस दुविधापूर्ण क्षण में कैसे संभलेगी इसका डर है 
बड़े-बूढों के परामर्श का न उसपे  कोई असर है 
झट आंसू टपका देती , ये कन्या आज बड़ी नर्वस है 

चाय की ट्रे ले जाने में भी असमर्थ है 
ले गई तो पक्का गिरेगी , बहस करना व्यर्थ है 
कह रही मुझे बार-बार टोक के और न हडबड़ाओं 
क्या करना क्या न करना मुझे और न बतलाओ 

पहली बार फंसी इसमें तुम सबके कहने में 
क्या मै अखरने लगी थी साथ रहने में 
उन्मुक्त जीवन मेरा, जिम्मेदारी विहीन था 
कॉलेज और हॉस्टल जीवन जीवंत और रंगीन था 

खीचतान ,नोकझोक के मध्य आंखिर वो समय आ ही गया 
लड़का अपने लाव-लश्कर के साथ देखो घर पधार  गया 
खुसर-पुसर और कानाफुसियों के मध्य कितना संकोच है 
नये बनते संबंधों में शुरूआती तकल्लुफो का ही जोर है 

इस विचित्र से सन्नाटे को लड़के की भाभी ने तोड़ा 
परिचय कराते हुए हमारी दीदी से मुस्कुराते हुए बोला 
चाय की चुस्कियों के बीच औपचारिक वार्तालाप है 
दो परिवारों का यह मिलन कितना खास है...

अरे बेटा तुमने तो कुछ खाया ही नहीं 
तुम्हे क्या पसंद है तुमने तो बतलाया ही नहीं 
शर्म झिझक से भला किसका भला हुआ 
मुस्कुराते हुए चाची ने लड़के को छेड़ दिया 

माँ ने झट धर दिए संभावित दामाद की प्लेट में 
एक गुलाब जामुन दो समोसे 
अविरल बहती बातों की इस चासनी के मध्य 
कोई न भी तो कैसे बोले ...

बातों के बीच अक्सर उठता हंसी ठठा है 
वर्जनाए लगी टूटने , संबंध अब आत्मीय लगता है 
केवल लड़का-लड़की खामोश पड़े लजाते है 
बरबस मिल जाते नयन और होठ काट मुस्कुराते है 

शोर अब थम गया , 
फिर से सन्नाटा छा गया 
लगता है लड़का-लड़की के 
एकांत में बातें करने का वक्त आ गया 

बारी-बारी सब उठ खड़े 
इधर-उधर हो लिए 
भाभी जी मुस्कुरा के कहें 
बोलिए जी अब खुल के बोलिए 

बड़ी ही अजब स्थिति आज यहाँ बनी है
संभावित सात जन्मो के संबंधो की शायद नीव पडी है
प्रारंभिक हिचकिचाहट से पार पा
ये जोड़ी अब आपस में बोल पड़ी है
पसंद-नापसंद सब कह डाले
बहुत सी बातें फिर भी कहने को  बची हैं ...

समय बहुत  जल्दी बीता , ढेरों  हुई बात
असंख्य यादें संजोयगी इनकी ये पहली मुलाकात
माँ ने खटखटाए किवाड़ कहा खाना लग गया
बेटी का खिला-खिला चेहरा उसे कितना जच गया


भोजन उपरांत फिर से चाय का दौर है
दीदी अलग कमरे में ,दिमाग पे बहुत जोर है
हाँ करूँ के न करूँ अभी खुलके समझ न पाऊँ
असमंजस की इस स्थिति अभी निर्णय से घबराऊँ

तभी आया सन्देश लड़के वालों को लड़की पसंद है
दीदी की चिंता और बड़ी मन में अनेको द्वन्द है
माँ ,पिताजी ,बाबा दादी सब लगे उसे समझाने
घर बैठे आये इस बढ़िया रिश्ते को हाथ से न देंगे जाने


इतने लोगो के हां कहने पे वो भी साथ चलदी
पलके झुकाते हुए धीमी आवाज में उसने भी हामी भर दी
पिताजी के ननिहाल अब जश्नों का दौर है
मुबारक हो मुबारक हो का देखो मच गया शोर है ....






Monday 2 November 2015

दरवाजे पे  हुई दस्तक , मेहमान आये
साथ में अपने ढेरों सामान लाये
माँ ने झट पैसे थमा दिए बिस्कुट-नमकीन लाने को
पर मन नहीं कर रहा इस समय बाहर जाने को

दिलो-दिमाग तो उन मिठाई के डिब्बों पे ही टिका है
देखें तो सही अपने नसीब आज क्या खाने को लिखा है
मथुरा के पड़े हैं  कि मूंग की दाल का हलवा है
या फिर आगरे के पेठे और दालमोठ का जलवा है

तभी पता चला मेहमान आज रात यहीं रुकेंगे
हृदय गदगद हुआ चलो आज घर में पूरी पकवान बनेंगे
अतिथि सत्कार की  वर्षो पुरानी परंपरा है
चूल्हे पे कढ़ाई न लगे  ऐसा भला कब हुआ है ?

उनका सामान अब रख दिया अंदर के कमरे में
माँ तुरंत ही  लग गयी है बिस्तर की चादर बदलने में
सिर पे पल्लू और और धोती का एक सिरा मुंह में दबा है
बुजुर्गो के प्रति सम्मान उन्होंने  प्रकट कर दिया है

बड़े भइया दौड़ पड़े है दफ्तर से पिताजी को लाने को
उन्होंने भी जरा देर न लगाई घर आने को
सब्जी का भरा उन्होंने माँ को रसोई में थमाया
थोड़ी खुसर- पुसर हुई जैसे ही  मेहमानों को नजरों से दूर पाया

राजी-ख़ुशी ,कुशल-क्षेम पूछने  का  सिलसिला है
बातो -बातों में अतिथि आगमन का प्रयोजन पता चला है
चाची के पिताजी के साथ एक बूढ़े सभ्रांत सज्जन आये हैं
हमारी प्यारी सी दीदी के लिए अपने भांजे का रिश्ता लाये है

माँ जुटी  है पूरी तत्परता के साथ खाना बनाने में
सख्त चेतावनी है बाद की मार की, शोर मचाने में
रात के खाने की मेज अब सज गई है
रायते , आलू गोभी , मटर -पनीर के साथ खीर भी बनी है

बासमती के खिले -खिले चावलों में जीरे का तड़का है
सुना है अच्छे-खाते पीते घर का सभ्य-सुशील लड़का है
पिताजी भी चाह रहे हैं कि यहाँ बात बन जायें
अच्छे देखे-भाले घर में बेटी रुख्सत हो जाए

दीदी हमारी भी तो कितनी गुणी है
हर किसी से हमने उसकी तारीफ ही सुनी है
पढ़ने लिखने होशियार और तेज-तरार है
समस्त गृह-कार्य में भी दक्ष ,ये कन्या नायाब है

भोजन उपरांत मेहमानों ने धुम्रपान की इच्छा जताई
कठोर क़ायदे-कानून के इस घर में हो गई ढिलाई
पड़ोस के सिंह साहब के घर  से पिताजी ऐश-ट्रे मंगवाई
उनकी विल्स नेवी कट अपने हाथों से सुलगाई

हमारे इस सात्विक घर में जले तम्बाकू की महक है
नए संबंधो के सूत्रपात के लिए ढील मयस्सर है
सिगरटों के दौरों के बीच बात आगे बड़ी
तफसील मालूमात हुई , दोनों ने अपनी कही

देखते ही देखते घडी ने रात के ११ बजाये
सेकेंडो की सुई का शोर भी इस नीरवता सुन लिया जाये
माँ  ने  मेरे हाथों पानी का जग और गिलास भिजवाये
दो तकिये सिरहाने पे पिताजी ने लगाये

चलो बहुत रात हुई अब सुबह बातें करेंगे
बांकी सब तो लड़का -लड़की आपस में मिलके  ही तय करेंगे
दूर हॉस्टल में बैठी दीदी को इसकी न कोई खोज-खबर है
बड़े -बूढ़े अपने अनुभवों से रिश्ते जोड़ने में सिद्धहस्त हैं

पिताजी अब शुभरात्रि कह  मेहमानों से ले रहे विदा
कुछ जरूरत होने पे बता देने का पुनः निवेदन किया
अब लगे हैं धीमी आवाज में माँ से बतियाने
माँ समेट रही रसोई और लगी है काबुली चने भिगाने

घर-परिवार तो यथा संभव ठोक- पीट के जांचा जाता
बांकी ऊपरवाले  की मर्जी , रिश्ते तो वो ही बनाता
शादी-विवाह तो वर-वधू समेत दो परिवारों का मिल-मिलाप है
हर किसी की राजी-ख़ुशी से बना ये संबंध कितना ख़ास है

अगली सुबह सब लोग जल्दी ही  जग गए
नित्यकर्म से निवृत्त हो नाश्ते के लिए सज गए
छोले , आलू मैथी की सब्जी,पूरी  और सूजी का हलवा है
कल्लुमल की  जलेबी के बिना हर शुभ काम अधूरा है

नाश्ते करके अब अतिथि ले रहे विदा
आदर-सत्कार से अभिभूत कह रहे शुक्रिया
माँ ने सबकुछ कितना अच्छी तरह निभाया
बेटी की विदा का सोच अभी से दिल भर आया

बस में बैठा आये उनको पिताजी स्टेशन जाकर
दिया शुभ समाचार फ़ौरन घर पे आकर
दोनों सज्जन हम से बड़े मुतमईन लगे
होली के बाद फिर से मिलने की कहने लगे

लड़का-लड़की आपस में एक दूसरे को देख ले
फिर ये बात आगे बड़े
दान-दहेज़ का कोई मसला नहीं
पढ़ी लिखी दुल्हन ही दहेज़ लगे

दीदी को घर में हुई  हलचल की तनिक भी हवा नहीं
पता चलने पे चिढ़ जायेगी ये बात पक्की रही
मां कर रही बार-बार ईष्टदेव का स्मरण
सारी विघ्न-बाधाओं हरने का हो रहा मनन

समय इतनी जल्दी कैसे बीता उसे उलझन हो गई
कल तक अपने आँगन  में खेलती गुडिया आज बड़ी हो गई
लोग अब आने लगे उसे अपने घर की लक्ष्मी बनाने
बेटी के विदा होने की पीड़ा माँ से बेहतर कौन जाने

सोच के साथ आँखों में उमड़ता आसुओं का सैलाब है
माँ  को ख़ुशी के साथ इस अपूर्णीय क्षति का अहसास है
रक्त ,दुग्ध ममता सिचित को एकाएक  कैसे पराया कर दूं
त्रुटिपूर्ण है ये रीतिरिवाज , जी चाहता इसको बदल दूं

सच में स्त्री होने की अजब ही नियति है
इस जीवन के अनेको उतार चढावो में कितनी पीड़ा वो सहती है
बेटी ,अर्धांग्नी ,माँ ,बहन,सास बन उसे निभाने विविध रूप हैं
पुरुष-प्रधान इस समाज के सामंजस्य कितने कुरूप है

जारी  रहेगा .......to be continued

Monday 12 October 2015

हफ्तों पहले से साफ़-सफाई में जुट जाते हैं
चूने के कनिस्तर में थोड़ी नील मिलाते हैं
अलमारी खिसका खोयी चीज़ वापस  पाते हैं
दोछत्ती का कबाड़ बेच कुछ पैसे कमाते हैं
चलो इस दफ़े दिवाली घर पे मनाते हैं  ....

दौड़-भाग के घर का हर सामान लाते हैं
चवन्नी -अठन्नी  पटाखों के लिए बचाते हैं
सजी बाज़ार की रौनक देखने जाते हैं
सिर्फ दाम पूछने के लिए चीजों को उठाते हैं
चलो इस दफ़े दिवाली घर पे मनाते हैं ....

बिजली की झालर छत से लटकाते हैं
कुछ में मास्टर  बल्ब भी  लगाते हैं
टेस्टर लिए पूरे इलेक्ट्रीशियन बन जाते हैं
दो-चार बिजली के झटके भी  खाते हैं
चलो इस दफ़े दिवाली घर पे मनाते हैं ....

दूर थोक की दुकान से पटाखे लाते है
मुर्गा ब्रांड हर पैकेट में खोजते जाते है
दो दिन तक उन्हें छत की धूप में सुखाते हैं
बार-बार बस गिनते जाते है
चलो इस दफ़े दिवाली घर पे मनाते हैं ....

धनतेरस के दिन कटोरदान लाते है
छत के जंगले से कंडील लटकाते हैं
मिठाई के ऊपर लगे काजू-बादाम खाते हैं
प्रसाद की  थाली   पड़ोस में  देने जाते हैं
चलो इस दफ़े दिवाली घर पे मनाते हैं ....

माँ से खील में से  धान बिनवाते हैं
खांड  के खिलोने के साथ उसे जमके खाते है
अन्नकूट के लिए सब्जियों का ढेर लगाते है
भैया-दूज के दिन दीदी से आशीर्वाद पाते हैं
चलो इस दफ़े दिवाली घर पे मनाते हैं ....

दिवाली बीत जाने पे दुखी हो जाते हैं
कुछ न फूटे पटाखों का बारूद जलाते हैं
घर की छत पे दगे हुए राकेट पाते हैं
बुझे दीयों को मुंडेर से हटाते हैं
चलो इस दफ़े दिवाली घर पे मनाते हैं ....

बूढ़े माँ-बाप का एकाकीपन मिटाते हैं
वहीँ पुरानी रौनक फिर से लाते हैं
सामान  से नहीं ,समय देकर सम्मान  जताते हैं
उनके पुराने सुने किस्सों फिर से सुनते जाते हैं
चलो इस दफ़े दिवाली घर पे मनाते हैं ....

Tuesday 4 August 2015

जम्हूरियत का खुल के तमाशा देखिये
दिखावे पे ही इसको अमादा देखिये

बनते है  जो मसीहा हम मुफलिसों के
उनके घर जश्न और शोर-शराबा देखिये

जुटी है महफ़िल सियासी लोगो की
सत्ता-विपक्ष की यारी  का खुलासा देखिये

राजसी ठाठों  में थम सी  गई मुखालफत
इस सियासत में  अवाम की हताशा देखिये

है खुला दिखावा  दौलत और हैसियत का
समाजवाद की यह नई परिभाषा देखिये

फिर लटक गया किसान मुल्क में कहीं
छोटे से कोने में अख़बार की दिलासा देखिये



Thursday 30 July 2015

अपनों से ही अपना सबकुछ लुटाये बैठा हूँ...

सर पे कितना बोझ उठाये बैठा हूँ 
न जाने कितनों से खार खाये बैठा हूँ 

मेरी चुप्पी को कमज़ोरी समझते है वो 
मैं तो अंगार को बस दिल में दबाये  बैठा हूँ 

तमाशे पे तमशा लगा रहे  हर जगह 
बेगैरतो को अपना खैरख्वाह बनाये बैठा हूँ 

हर सफ़ेद लिबास की चमक अब मैली सी  लगे
इस हमाम में सबको नंगा  नहाये  देखा हूँ 

आँखों से काजल तक चुरा लेते है  वो 
जिन्हें इस मुल्क का पहरेदार लगाये  बैठा हूँ 

बगावत के सिवा अब बचा क्या  मेरे पास ?
अपनों से ही अपना सबकुछ लुटाये बैठा हूँ...

Sunday 26 July 2015

ताकि संवरे अपना भविष्य ....

अपने बचपन का वो समय
पिताजी की सरकारी नौकरी
उसकी अपनी विवशतायें
क्षमतायें और मर्यादाएँ...

सीमित साधनों में निर्वहन
बचत और उपलब्ध चीजों के 
इष्टतम उपयोग के मध्य
अंकुशित तमाम इच्छायें...

कभी-कभी खीज उठता मन
देख आस-पड़ोस की अनगिनत
भौतिक सुख सामग्रियां जो होती
हमारे लिए अभिभावकों के 
अनेकों  तर्कों से शापित...

प्रस्तुत किये  जाते समक्ष
अनुकरणीय उदहारण
कुछ गुदड़ी के लालों के ,
पूर्व की पीढ़ी के अभावों के
और बताया जाता हमें धन्य...

कठोर वित्तीय अनुशासन संलिप्त 
हमेशा ही दे जाती सीख
कम में काम चलाने की 
और खूब पसीना बहाने की 
ताकि संवरे अपना भविष्य ....

Wednesday 22 July 2015

ये दिल फिर से छोटी-छोटी खुशियों का तलबगार है...

झमाझम बारिश का इंतज़ार है
ये दिल फिर से बच्चा बनने को तैयार है

मुद्दतों से इक गुसलखाने में सिमटा  हूँ मै
अबकी रूह तक तरबतर होने का ख्याल है

कुछ मट्टी में सने पाँव लेकर
माँ की उसी  पुरानी डांट की दरकार है

गीले कपड़े, जूते  और बस्तों समेत
कागज की कश्ती बनाने का विचार है

मसरूफ हो जुदा हो गया जड़ो से अपनी
यह दरख्त पुरानी जमीं के लिए बेकरार है   

इस तरक्की ने कितना  दूर कर दिया अपनो से
ये दिल फिर से छोटी-छोटी खुशियों का तलबगार है

इस गृहस्थी का असली शेषनाग....

सुबह  होते ही चाय की पुकार 
न मिलती हवाई चप्पलो की झुंझलाहट 
बाल्टी में गन्दा कच्चा बनियान तैरा डाला 
नहाने के बाद गीला तौलिया बिस्तर पे दे मारा 

जुराबे ढूँढने में अलमारी  उथल –पुथल 
बचकानी आदतें ,  कभी  न जाते सुधर 
अब पर्स और चाबी के लिए मचाई आफत 
बीवी ने हाथ में धर दिया तुरंत लाकर 

श्रीमती जी देखें जा रही  कितना मुस्कुराकर 
आँखे या बट्टन ? का उलाहना  चिपकाकर  
अब पकड़ा रहीं  चश्मा और टिफ़िन 
पतिदेव नज़र आ रहे कितने खिन्न 

बालकनी में आकर हाथ हिला कर रही विदा 
इस फैले घर समटने में लगेंगे पूरे दो घंटा
सब जा चुके अब सांस आई 
घर में मचे विध्वंस  पे नजरे दौड़ाई 

चलो पहले सुकून से चाय पीते है 
रात के छूटे सीरियल भी देख लेते है  
टीवी चला शुरू हुए घर के काम 
तड़के जगी इस नारी का कहाँ विश्राम ? 

तभी प्रेस वाले ने घंटी बजाई 
मेमसाब कपडे है ? की आवाज लगाई 
एकाएक आया  महरी का सन्देश 
गाँव जा रही हूँ , आई जरूरत विशेष 

चौगुना हुआ  काम का बोझ 
पहले झाड़ू कि बर्तन ? की पड़ गयी सोच 
धीरे धीरे सारा काम निबटाया 
घडी की सूईयों ने एक बजाया 

बच्चों के स्कूल से आने का हो गया समय 
क्या खाने में बने उठा संशय 
जल्दी से कुक्कर गैस पे चढ़ाया 
बिटियाँ की  पसंदीदा दाल में तड़का लगाया 

बच्चे घर आ गए हल्ला मचाते 
बस्ता पटक खेलने फ़ौरन बाहर भागे 
माँ गला फाड़ खाने को बुलाये 
अपनी  धुन में रमें बच्चे कहाँ सुन पायें ?

बार-बार कहने का हुआ असर 
बच्चे खाने की मेज  की ओर अग्रसर 
बालक ने परांठे खाने की इच्छा जताई 
तुरंत ही सेकने लगी मां जरा न हिचकिचाई 

स्कूल में आज क्या हुआ की हो रही खोजखबर 
कॉपी में कितने करेक्शन, कितना मिला होमवर्क 
गलती बता वो कर रही सुधार 
कभी चपत रसीदे तो कभी पुचकार 

साँझ होते ही फ़ोन खडखड़ाया 
मायके से माँ ने अपना दुखड़ा सुनाया 
माँ- बेटी कर रही देखो चटर-पटर 
भईया- भाभी की ली जा रही जमके खबर 

ऑफिस से हस्बैंड घर लौटे कितना भिनभिनाते 
कभी बॉस तो कभी शहर के ट्रेफ़िक को गरियाते 
सर दर्द में अदरक की चाय की इच्छा जताई 
पत्नी ने रसोई जा बड़े प्रेमपूर्वक बनायीं 

रात के खाने की हो रही तैयारी
उद्योग निरत रहती देखों यह नारी 
बच्चे भी पढाई-लिखाई में जुटे 
घर के सुकूं में पतिदेव अख़बार पढने लगे 

एक और दिन हो गया ख़तम 
समय पर सारे कार्य न कोई विलंब 
निंद्रा के आगोश में सम्पूर्ण  परिवार 
पर गृहलक्ष्मी को कल की सोच-विचार 

न कोई वेतन न कोई अवकाश है 
सम्पूर्ण परिवार का देखों 
इसके कंधो  पे  ही भार है 
ये ही तो इस गृहस्थी का असली शेषनाग है ...

Sunday 19 July 2015

पिताजी कैसे बदल दे एकाएक से अपने आप को...

दो जोड़ी कपड़े ही 
तन के लिए पर्याप्त थे 
दूर के सरकारी स्कूल के 
हेडमास्टर साहब लाजवाब थे... 
कई मील रोज 
पैदल जाने की कसरत  थी 
और जी तोड़ मेहनत से
अपनी किस्मत बदलने की हसरत थी 
न घोड़ा गाडी , न कार 
न बस न स्कूटर न हवाई जहाज 
पर बहुत ऊँचे थे उनके ख्वाब...

दादा कृषक थे गेहूं उगाते थे 
और उसे पिसा हाट में बेचने जाते थे 
कम में ही गुजारा होता था 
और ईश स्तुति कर 
परिवार सुख चैन न खोता  था 
देख दिखावे का न कोई  शोर था 
बच्चों की पढाई पे ही जोर था.... 

पैरों में जूते तक न होते थे
साबुन की  पिल्ली टिक्की से 
वे अपने  सर को धोते थे 
किसी विवाह-समारोह में जाना 
भयंकर मानसिक द्वन्द था 
खद्दर के निक्कर में भी पैबंद था

स्कूल की फीस तक जुटाने में 
पसीने छूट जाते थे 
पैसे बचाने के लिए 
खुद ही खाना बनाते थे 
शहर के  कुछ 
सबल रिश्तेदारों का अहसान था 
पर मन उनकी फब्तियों से 
कितना परेशान था .... 

पढ़ लिख जल्द से जल्द 
सरकारी नौकरी पाने का ही ख्वाब था 
दादी-दादी के घोर कष्टों का
हृदय बीधता प्रबल अहसास था 
छोटे भाइयों की जिम्मेदारी उठानी थी 
बहनों के हाथों हल्दी भी लगानी थी... 

नौकरी पा अपने कर्तव्यों का 
निर्वहन करते गए 
दिन प्रतिदिन नयी पीढी के 
खर्चे भी बढ़ते गए 
सारे पुराने उधार चुकाते गए 
भविष्य सुरक्षित रखने के लिए 
बचाते भी गए...

न बाहर होटलों में कभी  खाया 
न किसी वर्ष अपना जन्मदिन  मनाया 
न शनिवार शाम की कॉकटेल पार्टी थी 
न कोई AC कार हफ्ते भर में ही 
टैंक भर तेल खाती थी
न माल न शौपिंग 
न घूमने फिरने का खर्चा था 
न नित्य नए खरीदे 
इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से 
समय और चैन  का हर्जा था ...

अपना एक गरम सूट कई वर्षो चलाया 
पर हमें अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाया 
सीमित साधनों में उनके प्रबंध अच्छे थे 
उनकी पहली प्राथमिकता उनके बच्चे थे ....

अपने पे वो आज भी खर्च नहीं कर पाते है 
हम बच्चे उनकी इस बात पे 
कितना नाराज हो जाते है 
हमें जरुरत नहीं तो अब  
पैसे किसके लिए बचाते हो 
क्यों नहीं  घर का ये पुराना सामान बदल 
नया लेकर आते हो ?
फ़ोन पे  बार-बार ये ही बतियाना 
हमारी उनसे नाराजगी का कारण बन जाता है 
पर उनका गुजरा समय 
हमें कहाँ कब याद आता है ?

अतीत के कष्टों की 
उनके हृदय में आज भी टीस है 
मितव्ययी होने की हमको 
उनकी नेक सीख है
कहते है शिक्षा नहीं देते अपने बाप को 
पिताजी कैसे बदल दे 
एकाएक से अपने आप को...

Wednesday 8 July 2015

कुछ अक्षम्य कृत्य....

कुछ अक्षम्य कृत्य
कुछ प्रयाश्चित विहीन गलतियाँ
सतत अपराधबोध लिए
कितना कचोटता रहता
अपना यह मन....
होता कितना पश्च्याताप
बार-बार अतीत में जाकर
अपने आचरण की त्रुटियों को
सुधारने की न संभव हो सकने वाली
कल्पनाओं में विचरना हमें आता पसंद
पर बीता समय तो होता
पत्थर की अमिट लकीर की तरह
जिसे नकारना, बदलना,भूलना
होता भरे दिन में
खुली आँखों से देखना स्वप्न ...

लीजिये सीख अपने इतिहास से
और करिये हर संभव प्रयत्न
न हो वर्तमान और भविष्य में
मन वचन कर्म से जाने-अनजाने
पुनरावृत अपने कलंक

Saturday 4 July 2015

पुराना घर अब भी वहीँ है.…

मकानों की तादाद पहले से ज्यादा है
गली के नुक्कड़ पे भी भीड़ बेताहशा है
बगल का बाग न जाने कहाँ खो गया है
किसने ये ढेर सारा  यह कंकरीट बो दिया है
दौड़ते बच्चों की अब आवाज़ नहीं आती
पड़ोस की आंटी कटोरे में खीर नहीं लाती
न पुलिस को चोर की तलाश है
न आईस-पाईस के धप्पे पे शोर बेहिसाब है
बचपन टीवी , मोबाइल में सिमट गया है
आगे बढ़ा कि नीचे धंस गया है ???
इतने अनजान  चेहरों के बीच
पहचाना कोई नहीं है
पुराना घर अब भी वहीँ है …

लोहे का गेट जंग खाया सा  है
बागीचे में झाड़ उग आया सा है
हैंडपम्प सूखा सूखा सा है
रंग दीवारों का रूठा-रूठा सा है
खिड़कियों की जलियां धुल में सनी है
छत पे  बस  डिश  की  छतरी ही  नई है
दीमक खा  गया है सारी  फंटियों को
ढीली पडी साल की चौखट की सुध किसको ?
शीशम  का दरवाजा पानी  पा अकड़ गया है
उसका कुंडा भी कबका बिगड़ गया है
दो बूढ़ी आत्मायें सशरीर जमी है 
पुराना घर अब भी वहीँ   है....

बरामदे  में अब पानी ठहरता है
बैठा हुआ दानेदार मार्बल का फर्श
मरम्मत के लिए कहता है
बिजली के सफ़ेद बटन मटमैले हुए
कितने फोटो फ्रेम अब टेढ़े हुए
वाश -बेसिन  का नल बेहिसाब टपकता है
उखडती पपड़ियों के बीच
दीवार का पहले वाला रंग  दीखता  है
बाथरूम की फिटिंग्स सारी ढीली हुई
सीलन से दोछत्ती  भी गीली हुई
कानिस में रखा सामान तितरबितर है 
काली पड़ी रसोई की छत की अब किसको फिकर है 
पता नहीं क्या गलत और  क्या सही है
पुराना घर अब भी वहीँ है.…

न घंटी बजा कुल्फी बेचने वाला है
न बुढिया के बाल न दूधियाँ गोले वाला है
मदारी  अब भालू नहीं लाता
संकरी हो चुकी गली में अब हाथी नहीं आता
काली माई बन के  कोई नहीं डराता
डुगडुग्गी पे अब बन्दर का नांच  नहीं
बाईस्कोप में झांकना बीते कल की बात हुई
अपनी आसमानी तरक्की की यहीं तो कमी है
पुराना घर अब भी वहीँ है …

इस आँगन का पला बड़ा बच्चा
कहीं दूर निकल गया है
खुद ही में खो शायद
रास्ता भटक गया है
इसलिए बूढ़ी आँखों को
अब किसी से कुछ आस नहीं
अवसान की इस बेला अब फ़रियाद नहीं
मकान को घर बनाने वाला अब थक गया है
विश्राम करने के लिए  रुक गया है
जितना हो सके अब उतना ही करता है
पर ये वीरानापन उसे खूब अखरता है
स्वाभिमान से  जीने में ही उसकी ख़ुशी है
पुराना घर अब भी वहीँ है.…

जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं ...

हर साल सर के  बाल  कम हो जाते है
बचे बालों में और भी  चांदी पाते  है  
चेहरे पे झुर्रियों की तादाद  बढ़ा जाते है 
रीसेंट पासपोर्ट साइज़ फोटो में  
कितना अलग नज़र आते है 
“अब कहाँ पहले जैसी बात “ कहते जाते है 
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

सुबह की सैर में चक्कर खा जाते है 
सारे मौहल्ले को पता पर हमसे छुपाते है  
दिन प्रतिदिन अपनी खुराक घटाते है  
और तबियत  ठीक होने की बात फ़ोन पे बताते है 
ढीली हो गयी पतलून को  टाइट करवाते है
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

किसी के देहांत की खबर सुन घबराते है 
और अपने परहेजो की संख्यां  बढ़ाते है  
हमारे मोटापे पे हिदायतों के ढेर लगाते है 
‘तंदुरुस्ती हज़ार नियामत "हर दफे  बताते है 
"रोज की वर्जिश"  के फायदे गिनाते है  
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

हर साल बड़े शौक से बैंक जाते है 
अपने जिन्दा होने का सबूत दे कितना हर्षाते है  
जरा सी  बड़ी पेंशन पर फूले नहीं समाते है 
एक और नई  FIXED DEPOSIT करके आते है
खुद के लिए नहीं हमारे लिए ही बचाते है  
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

चीज़े रख के अब अक्सर   भूल जाते है 
उन्हें  ढूँढने में सारा घर सर पे उठाते है 
और मां को पहले की ही तरह हड़काते है 
पर उससे अलग भी नहीं रह पाते है 
एक ही किस्से को  कितनी बार  दोहराते है 
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

चश्मे से भी अब ठीक से नहीं देख पाते है 
ब्लड प्रेशर की  दवा लेने में आनाकानी मचाते है 
एलोपैथी  के साइड इफ़ेक्ट बताते हैं 
योग और आयुर्वेद की ही  रट लगाते हैं 
अपने ऑपरेशन को और आगे टलवाते है 
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

उड़द की दाल अब नहीं पचा पाते है 
लौकी , तुरई और धुली मूंग ही अधिकतर खाते है 
दांतों में अटके खाने को  तिल्ली से खुजलाते है 
पर डेंटिस्ट के पास कभी नहीं जाते  है 
काम चल तो रहा है की ही  धुन लगाते है 
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

हर त्यौहार पर  हमारे आने की बाट जोहते जाते है 
अपने पुराने घर को नई दुल्हन सा चमकाते है 
हमारी पसंदीदा  चीजों के  ढेर लगाते है 
हर  छोटे-बड़ी  फरमाईश पूरी करने  के लिए 
फ़ौरन  ही बाजार  दौडे चले जाते   है 
पोते-पोतियों से मिल कितने  आंसू टपकाते है 
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

Saturday 27 June 2015

ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

कमीज के बटन ऊपर नीचे लगाना 
वो अपने बाल खुद न काढ पाना 
पी टी  शूज को चाक से चमकाना 
वो काले जूतों को पैंट से पोछते जाना  
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो बड़े नाखुनो को दांतों  से चबाना 
और लेट आने पे मैदान का चक्कर लगाना 
वो prayer के समय class में ही रुक जाना 
पकडे जाने पे पेट दर्द का बहाना बनाना 
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो टिन के डिब्बे को फ़ुटबाल बनाना 
ठोकर मार मार उसे घर तक ले जाना  
साथी के बैठने से पहले बेंच सरकाना 
और उसके गिरने पे जोर से खिलखिलाना 
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

गुस्से में एक-दूसरे की  कमीज पे स्याही छिड़काना 
वो लीक करते पेन को बालो से पोछते जाना 
बाथरूम में  सुतली बम पे अगरबती लगा छुपाना 
और उसके फटने पे कितना मासूम बन जाना 
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो games period के लिए sir को पटाना 
unit test को टालने के लिए उनसे गिडगिडाना 
जाड़ो में बाहर धूप में class लगवाना 
और उनसे घर-परिवार के किस्से  सुनते जाना 
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो बेर वाली के बेर चुपके से चुराना 
लाल –काला चूरन खा एक दूसरे को जीभ दिखाना 
जलजीरा , इमली देख जमकर लार टपकाना 
साथी से आइसक्रीम खिलाने की मिन्नतें करते जाना 
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो लंच से पहले ही टिफ़िन चट कर जाना 
अचार की खुशबूं पूरे class में फैलाना 
वो पानी  पीने में जमकर देर लगाना 
बाथरूम में लिखे शब्दों को बार-बार पढके सुनाना   
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो exam से पहले गुरूजी के चक्कर लगाना 
लगातार बस important ही  पूछते जाना 
वो उनका पूरी किताब में निशान लगवाना 
और हमारा ढेर सारे  course को देख चकराना 
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो farewell पार्टी में  पेस्ट्री समोसे खाना 
और जूनियर लड़के का ब्रेक डांस दिखाना 
वो टाइटल मिलने पे हमारा  तिलमिलाना 
वो साइंस वाली मैडम पे लट्टू हो जाना 
ऐ मेरे स्कूल मुझे जरा फिर से तो बुलाना ...

वो मेरे स्कूल का मुझे यहाँ तक पहुचाना 
और मेरा खुद में खो उसको भूल जाना 
बाजार में किसी परिचित  से टकराना
वो जवान गुरूजी का बूढ़ा चेहरा सामने आना ...

तुम सब अपने स्कूल एक बार जरुर जाना .....

Tuesday 19 May 2015

जेठ की  इस भरी दोपहरी खाना खाकर सब सुस्ता रहें है , माँ की जबरदस्त हिदायत भरी चेतावनी  है -- बाहर लू चल रही है , खबरदार अगर घर के बाहर पैर भी रखा तो , तू  सोयगा तो है नहीं और  कुछ न कुछ खुराफ़ात तो जरुर करेगा ही पर ध्यान रहे  कि  कोई भी खटर-पटर न हो , अगर तेरे मचाये शोर से तेरे पापा जग गए तो मै तुझे बचाने नहीं आऊँगी ...

माँ इतना कुछ कह अन्दर के कमरे में सोने चली गयी ... उसकी रोज की व्यस्त दिनचर्या में सुस्ताने का ये ही तो अल्प समय है , इस मध्यमवर्गी परिवार में एक  वो ही शेषनाग है जिसने सम्पूर्ण गृहस्थी का बोझ संभल रखा है ... पिताजी का काम पैसे कमाने और बाहर के छोटे-मोटे कामो का अलावा ज्यादा कुछ और नहीं और  घर के सारे कामो की जिम्मेदारी तो इसी के कंधो पे है ... मेहरी , धोबी , और माली की शाही  सुविधा इस बचतोन्मुख परिवार में कहाँ ?

सुबह जल्द उठ के पानी भरना , सम्पूर्ण घर की झाड़ू बुहारी और पोछा, नहा-धोकर मंदिर में दीया जलाना , दूध वाले से दूध लेना और उससे दूध के पतला होने की झिक-झिक करना , सबके लिए चाय बनाना और उसे उनके बिस्तर तक पहुचना , घर के अपने छोटे से खेत के गुड़ाई करना ,पौंधो में पानी डालना , सबके लिए नाश्ता बनाना और उसके उसके उपरांत लगे बर्तनों के अम्बार को अपने हाथो के करतब से चमकाना और इस बीच दरवाजे पे कोई मांगने वाला आ जाय तो उसे कभी भी खाली हाथ न लौटने देना , मेतरानी की भी सुनना और उसे भी चाय पिलाना और  रोटी –सब्जी खिलाना ...

सुबह के काम से निबटना और दोपहर के में जुट जाना , ये वो समय है जब न तो रसोई गैस की सुविधा है और ना हीं पिसे मसालों का विलासी सुख  , केरोसिन स्टोव , बुरादे के अंगेठी और सिल -बट्टे  से ही जूझना है ,फूंकना है और काले हाथ ,ललाट लिए, पसीने से तरबतर हो बस जुटे ही रहना है  ...बचत के लिए थोडा अधिक शारीरिक श्रम कर लेना ही मानसिकता है और हो भी क्यों ना , वर्तमान के ये थोड़े-बहुत अतिरिक्त श्रम अतीत  के विकराल  अभावो  के सम्मुख  कितने बौने जो नज़र आते है...

खैर घर में सब सो चुके है , पिताजी के खर्राटे मुझे उनके  गहरी नींद में होने की अवस्था से   आश्वस्त करा रहे है , यही सही मौका घर से बाहर निकलने का , चप्पल पैरो से निकाल के हाथ में पकड़ ली है , मेन दरवाजे के कुंडी जो पिछली दफा मेरे पकडे जाने का कारण बनी थी उसे कल रात ही सिलाई मशीन के तेल से सराबोर कर शांत किया जा चुका है , घर के लोहे के  गेट को खोलने से उत्पन्न आवाज़ का जोखिम नहीं लिया जा सकता इसलिए दीवार फांदना ही उचित रहेगा और समस्त बाधाओं को पार कर मै घर के पास की इस पसंदीदा बगिया में पहुँच चुका हूँ जहाँ चारो ओर आम के पेड़ो की बहुतायत है , और ये क्या ? पिंकू , रिंकू , नन्हे , कल्लू और बबलू भी अपने घर वालों को धता दे बाग़ में पहुँच चुके है ...

ढेले ,पत्थर इक्कठे किये जा रहे है , स्पर्धा इस बात की है कौन सबसे पहले अमिया पेड़ से  झडाऐगा , कलमी और फजली अमियाँ के पेड़ चुना गया है , ये मीठी जो होती है और अगर कोयल पद्दो मिल जाये तो और भी सोने पे सुहागा  ...दे दना दन पत्थर और ढेले फेंके जा रहे है और उनके लक्ष्य से जरा से चूकने का अपनी वाणी और सिर को  पकड़ के एक  बड़ा सा अफ़सोस भी मनाया जा रहा है , अचानक लक्ष्य भेद ही लिया गया , तीन  अमिया नीचे गिर चुकी हैं  , सब उन्हें  लूटने को दौड़ पड़े है और इस बहस के बीच कि  किसका निशाना लगा और ये गिरे हुए  अपरिपक्व फल किसके  है ,  दूर माली की गाली भरी आवाज़ कानो में पड़ रही है ... अपने आपसी  विवाद को भुला  सब के सब गिरी हुई अमिया को  उठाके  भाग रहे है हमारे घर के बाहर के  बरांडे की ओर जहाँ बैठ ,  मिल बाँट  हम सब अपनी इस मेहनत का  स्वाद लेंगे...

अपने इस सम्मलित प्रयास का मजा लिया  जा रहा है , अमिया की चेपी अच्छी तरह से  निकल ली गयी है , अब उसको हाथ से फोड़ के सबमें बांटा जा रहा है , पत्थर फेकने के कारण अपने मैले-कुचले हाथो को अपनी कमीज से पोछ सभी बालक अपनी माँओ  का काम बडा,  ख़ुशी-ख़ुशी अपनी इस उपलब्धि का उत्सव मना रहे हैं , धूप कम होने   होने का बेसब्री से इंतज़ार है , शाम को बच्चो के यही चौकड़ी पतंगबाज़ी में अपने हाथ आजमाएगी...

इस गर्मी में वातानुकूलित   मॉल्स से फल खरीदते अपने अभिभावकों के साथ बच्चो को देख बार-बार मन में यही ख्याल आता है कि हमारी उन्नति हमारी संतानों को प्रकृति से कितना दूर ले जा रही है, चका-चौंध और चमक वास्तविकता  पर कितनी  हावी  है ...
पिता –पुत्र का सम्बब्ध अनेकों उतार-चढाव  वाला होता है, जीवन की विभिन्न अवस्थाओ में इसके अलग-अलग रंग देखने को मिलते है ... बचपन में पिता ही सबकुछ होते है.. बिलकुल एक सुपरहीरो के तरह, सर्वशक्तिमान  ...वो सब जानते है ...वो सब कर सकते है ...

किशोरावस्था में पिता हिटलर सरीखे नज़र आते है ... हम पर पैनी नज़र रखने वाले , हमेशा पढने के लिए कहने वाले , हमें हर बात पे टोकने वाले और गलती करने पर  प्रताड़ित करने वाले , इस समय अपने पिता हमें सबसे बुरे लगते है और मित्रों के पिता सबसे उम्दा नज़र आते है और मन में बार-बार एक ही ख्याल  आता --- काश ! हमारे पापा भी पिंटू के पापा की तरह होते ... देखो कैसे और कितनी  जल्दी उसकी हर मुराद पूरी करते रहते है ...

१८ साल के व्यस्क होते ही दोस्त ज्यादा प्रिय हो जाते है , पिता की हैसियत  एक पैसे देने वाली ATM मशीन सरीखी हो जाती है , उन जितना कम रूबरू हुआ जाए उतना अच्छा नहीं तो कपड़ो , आदतों , मित्रों , और दिनचर्या पे लम्बे-लम्बे व्याख्यान सुनने को मिलेंगे , पिताजी अगर एक  दरवाजे से कमरे के अन्दर  घुसते है  तो बेटा दूसरे दरवाजे से तुरंत बाहर कट लेता है , व्यर्थ के वाद-विवाद में कौन पड़े ? ... पिता  मज़बूरी की वजह से जरुरी  नज़र आने लगते है ... आंखिर उन पर अपनी सम्पूर्ण आर्थिक निर्भरता जो होती है ...

शादी के समय पिता सबसे ज्यादा जरुरी होते है , निर्णय लेने के लिए नहीं अपितु हमारे निर्णय को वहन करने के लिए और थोडी बहुत सामाजिक औपचारिकताओं के निर्वहन हेतु ...

संतान उत्पत्ति  के उपरांत उसके  पालन-पोषण आने वाली दिक्कते हमें पिता की असल अहमियत समझती है और हमें अपने पिता को एक नयी नज़र से देखने को बाध्य कर देती है , हम बार-बार ये सोचने में मजबूर हो जाते है कि हम से एक नहीं संभल रहा हम तीन-तीन भाई बहनों को माँ-पिताजी ने कैसे संभाला होगा ?

रोजी –रोटी की दौड़ में मसरूफ हम लोगों का बार-बार माँ-पिताजी से आग्रह रहता है के वो हमारे साथ आकर रहे , हमारे बच्चे दो-चार अच्छी बातें सीख लेंगे , उन्हें अच्छे संस्कार मिलेंगे और हमें सुकून कि  हमारे अनुपस्थिति में घर का कोई अपना बच्चो की देखभाल के लिए है ....पर अपने इस स्वार्थ में हम उनकी स्वतंत्रता को सीमित कर देते है और उन्हें मजबूर कर देते है के वो अपनी जड़ो से दूर इस तंग महानगरीय जीवन को जीयें जहाँ पास-पड़ोस के कोई मायने ही नहीं ...

बढ़ती जिंदगी अनेकों जटिलतायें  लेकर आती है , हमें अपने प्रभुत्व को दर्शाने के लिए हमेशा सबसे बेहतरीन ,अनावश्यक भौतिक साधनों की दरकार रहती है और इसके लिए एक आशा भरी नजर पिताजी की ओर ही लगी रहती है कि वो हमारी मदद करें जो अक्सर भाई- बहनों में आपसी  खीचतान का सबब बनती है ...पिताजी के इच्छा , मर्जी या चाह कोई मायने नहीं रखती उन्हें तो बस अपनी जरूरत बता दी जाती है और वो भी बड़े ही रूखे अंदाज़ में ...

पिताजी केवल आपकी जरूरत पूर्ति का साधन नहीं , उनकी भी एक अपनी जिंदगी और सोच है , जीवनभर संघर्षरत इस योद्धा को भी विश्राम और सुकून चाहिए, उनपे अपने निर्णय इस करके न थोपिए कि वो तो अपनी जिंदगी जी चुके और उम्र के इस पड़ाव में उनका दायित्व संतान की मदद के अलावा कुछ अन्य नहीं ...उनसे आग्रह करें नाकि भावुकता की चासनी में लिपटे हुए आदेश दें ...

बड़े –बूढ़े एक विशाल वट वृक्ष की भांति है जो अपने आश्रय से सबको जोड़े रखते है , जिनमें जीवन के अनुभव प्रचुर मात्रा मौजूद है जो अमूल्य है ... समय निकालिए उनसे बात करिये , संवाद की शक्ति को पहचानिए ,फ़ोन पे केवल हाल-चाल पूछने भर की औपचारिकताओं तक सीमित न रह जाईये  उनके पास भी बताने के लिये एक से एक बढ़कर  रोचक किस्से हैं जोकि आज तक उन्होंने आपको नहीं बतायें , मसलन उनका बचपन , उनकी पहली नौकरी , उनका पहला प्यार , उनकी हॉस्टल लाइफ , उनके सुट्टे का पहला कश यकीन मानिये आप बिलकुल भी बोर नहीं होंगे और आपको अपने एकदम से बिलकुल नए पापा के दर्शन होंगे...

याद रखें जैसा बोयेंगे आगे वैसा ही काटेंगे ... पिताजी हमेशा साथ नहीं रहने वाले और उम्र के इस पड़ाव पे सबसे बेहतरीन पे पहला  हक़ उनका है ...

Wednesday 1 April 2015

छज्जे पे उगी पीपल सा

अड़ियल , जिद्दी , ढीठ
कुछ छज्जे पे उगी पीपल सा 
विपरीत परिस्थितियों में 
पनपता रहता मै , अपने 
सम्पूर्ण उन्मूलन की आशंकायें लिए.. 

न मेरी उस जैसी  कोई चाह 
के अपने विस्तार से 
अहित करूँ किसी का भी 
पर मुझ से आशंकित 
तत्पर रहते तुम क्यों ?
मेरे समूल विनाश के लिए ...

तुमने तो न दी जमीन , 
न खाद न पानी 
फिर भी स्वतः  पा गया जीवन मै 
तुम्हारे विलासी दृष्टी से बच 
पर थोड़ा जो पुष्ट हुआ 
खटकने लगा मै  तुम्हे 
तुम्हारे छज्जे पे उगे पीपल सा... 

तुम डरे, चिंतित, व्याकुल 
तुम्हारे अन्याय के खिलाफ 
मेरे इस अल्प अतिक्रमण से 
दौड़ पड़े सहसा 
सम्पूर्ण दल-बल लिए 
और अपने दुर्ग के रक्षण हेतु 
तुमने मुझे  उखाड़ फेका जड़ से  
बिना किसी विलम्ब 

पर फिर उगूंगा मै 
तुम्हारे आस-पास ही कहीं  
और प्रकट करता रहूँगा 
तुम्हारे सम्मुख 
तुम्हारे कृत्यों पर  
अपना यह  शांत प्रतिरोध...

Wednesday 18 March 2015

रिश्ते कब होते है
सीधे सपाट
हो जाते अक्सर
हमारे अहम का शिकार

जाने-अनजाने
पड जाती कितनी गांठे
और हम  कर देते
एक दूसरे को अस्वीकार

फिर  बार-बार आता
एक ही ख्याल
बोलना चाहिए था
थोड़ा सोच विचार



 

Sunday 15 March 2015

***GSVM Medical college में हमारे समय में प्रचलित कुछ short forms (भावार्थ सहित)***
1. KLPD - अत्यधिक श्रम के उपरान्त अपेक्षित परम आनंद की प्राप्ति होने के जरा सा पहले सब कुछ गुड-गोबर हो जाना ....हाथ आना पर मुंह को ना लगना ....
2. MCA - College बंटने वाला एक ऐसा अनुदान जो बालको इस जन्म में तो कभी भी नहीं मिल सकता...
3. NCNCNNJK - ये ऐसे नखरे है जो चिरकाल से जारी है और चिरकाल तक जारी रहेंगे ...जब तक इनको उठाने वाले जिंदा है...
4. LLT -नौसीखियो की ऐसी परीक्षा जिसको लेने वाला यह मानता है की उन्हें सम्पूर्ण ज्ञान मिल चुका है...
5. BBC -ऐसी उपाधि जो नियमित रूप से 'बहुत ही बड़ा उछालने' वालो को मिलती है...
6. FRCS -कॉलेज के शुरू के दिनो में वरिष्ठो द्वारा प्रदान की जाने वाली instant डिग्री...
7. MD- वो ही प्रक्रिया जो महाभारत में गांधारी ने अपने पुत्र दुर्योधन के शरीर को वज्र समान कठोर बनाने के की थी ...यह कार्य यहाँ वरिष्ठो द्वारा कार्यान्वित होता है
8. PLD -प्रचंड युवाओ को मिलने वाला ख़िताब जिससे वो जीवन भर गौरवान्वित होते रहते है...
9. MLD -दुर्घटना स्वरुप मिला ख़िताब जिसका जिक्र न ही हो तो बेहतर
10. DLP - ऐसी सुस्त,ढीली-ढाली हस्ती जिससे कछुवा भी शर्मा जाये...
11. WT -एक ऐसा जोखिम जिसे उठाने वाला अगली बार भी इसे उठाने को लालायित रहता है ...
12. SAKAKU - लडकियों द्वारा प्रयोग में लाये जाने वाले very simple, non malignant so called अपशब्द...
13. GH - ऐसा महल जिसके अन्दर क्या होता है ये जानने की प्रबल उत्सुकता बाहर हर किसी में होती है...
14. BH -एक ऐसा किला जिसकी मजबूत दीवारे बिलकुल ही पारदर्शी है ...अन्दर क्या हो रहा है ये जगजाहिर है...
15. DH-एक ऐसा विशाल कक्ष जहाँ ची-ची कर सरकते धातु के बने स्टूलो की धव्नि के मध्य पढाई गई बातो का सबसे ज्यादा OHT i mean Over Head Transmission होता है...
16. LT- Wooden benches के ascending order वाला वो स्थान जहाँ बैठ सामने से आते हुए चेहरों को निहारने में घोर आनंद का अनुभव होता है ...व्याख्यान से पूर्व के 15 min, एक घंटे वाले व्याख्यान से ज्यादा रसदाई होते है...
17. NS- एक ऐसी supply जो चाहे हो न पर seniors इसके बारे हरदम पूछते रहते है ...
18. PG-एक ऐसी गाजर जो पूरे MBBS हमेशा आँखों के आगे लटकी रहती है....Internship में यह हड्डी में परिवर्तित हो जाती और इसके लिए श्रमदान करने वाले कुत्तो में...
19. DP-तनाव मुक्ति के लिए बूढ़े पुजारी की उपस्थिति में होने वाला एक ऐसा भव्य अनुष्ठान जो आदिकाल से कॉलेज परिसर में होता आया है और आगे भी सदैव होता रहेगा...
20. BC - 'कॉलेज की आत्मा '...कानो में रस घोलती वो मधुर धव्नि जिसको उत्पन्न करने वाले और सुनने वाले सभी लोग दिव्यता को प्राप्त करते है ...

Thursday 12 March 2015

हम थे मसरूफ अपने
रोजमर्रा के कामों में
अपनी सहूलियतों के हिसाब से
तरजीह दे उनको  निबटाने में

ख्वाहिशो की परवाज पे  सवार
खुद की ही  सोच 
और सब से अनजान 
इस बीच 
पता ही नहीं चला
मां-बाप कब बूढ़े हो गए ?

Monday 2 March 2015

कुछ कड़वी यादों को अगर छोड़ दे तो अतीत हमेशा प्यारा ही लगता है , उसमें अच्छा या बुरा  सब कुछ घटित जो हो चुका होता है , वर्त्तमान का  बिना फल वाला संघर्ष या फिर भविष्य की अनिश्चतता    नहीं होती और अपनी  त्रुटियों को सुधार कर आगे के   जीवन को बेहतर बनाने की बहुत सारी सीख भी होती है... 

आज से पच्चीस वर्ष पहले त्यौहार इतने व्यवसायिक न थे , बाजारवाद इतना हावी न था जो हमारी सोच को प्रभावित कर सके , जश्न मनाने का तरीका अपनापन लिए हुए था , एक दूसरे के सहयोग से काफी काम होते , मानवीय स्वाभाव की मूलभूत खामियां उस समय भी थी पर आज के जैसा अपनी विशिष्ठता का अहंकार न था ....

होली के दिनों की अपने उस सुनहरे अतीत की यादें आज भी मुझे अपनी जमीन से जोड़े रखती है और अपने  द्वारा ही बनाये गए इस भागदौड़ भरे मौहोल में संभवतः संरक्षित करती है मेरे वजूद को ..... ........................................................................................................................

होली से दस  दिन पूर्व  पास-पड़ोस की आंटियों का जमघट आज हमारे घर पर है , आज पापड़ और चिप्स बनाने का प्रोग्राम है , कल शाम ही सब्जी मंडी से ३ धड़ी आलू मंगवा लिए गए  थे , परचून से साबूदाना, मसालें  और तेल भी आ चुका है , पिछले साल खरीदे  हमारे पहले फ्रिज की पन्नी को माँ ने उस समय धोकर  सहेज के रख लिया था और आज उसके उपयोग का दिन आ ही गया  , घर के पांच लीटर के प्रेशर कुकर से आज बात नहीं बनेगी इसलिए मेहता आंटी के यहाँ से उससे बड़ा प्रेशर कुकर मंगवा लिया है , ईमानदस्ता पन्त जी के यहाँ से मंगवाया गया है, पूरे मौहल्ले भर एक ही तो ईमानदस्ता है जो जरूरत के समय हर किसी के घर घूमता रहता है , हमारे  घर का कद्दूकस अपनी धार खो चुका  है , इसमें कसने से आलू के बढ़िया चिप्स नहीं निकल पाएंगे यह जानकर माँ ने कल शाम को ही बबलू के यहाँ से उनका इम्पोर्टेड वाला कद्दूकस मंगा लिया था ... 

इतने सारे पापड़ , चिप्स , कचरी आदि को  बनाने में बहुत सारी गैस लगने वाली है और गैस एजेंसी के नखरे और  त्यौहार के वक्त सिलिंडर के लिए मची मारामारी  के मध्य गैस खत्म होने का जोखिम  नहीं लिया जा सकता इसलिय अपना पुराना मिटटी के तेल से चलने वाला स्टोव भी निकाल लिया गया है , महरी जो अक्सर हमारे राशन कार्ड से मिटटी का तेल ले जाती  है उससे दो लीटर यह जीवश्मीय ईंधन  आज के इस खाद्य सामग्री निर्माण कार्यक्रम के दौरान आवश्यक अतिरिक्त उष्मीय ऊर्जा की जरूरत को पूर्ण करने के लिए मंगवा लिया गया है ...

स्कूल से बचने का इससे बढ़िया बहाना मुझे क्या मिलेगा ? इसलिए माँ के बार-बार मना करने पर भी आज मै इस स्कूल नहीं गया  इस तर्क के साथ के अगर बीच में किसी समान की जरूरत पड़ गयी तो भाग दौड़ कौन करेगा ??

आंटी लोगों का हमारे घर जमवाड़ा लग चुका है , पिताजी कॉलेज जा चुके है इसलिए पुरुष विहीन इस घर में बिना किसी संकोच के उनका आपसी हंसी मजाक से सराबोर  वार्तालाप प्रारंभ है, बीच –बीच में जोर-जोर से खुल के हंसने के स्वर भी वातावरण में गूंज रहे हैं  .... पूरे साल भर घर  एक जैसे काम में अपने को खपाने वाली इन मेहनतकश घरेलू महिलाओं को आज इक्कठा हो कुछ अलग करने को जो मिला है और फाल्गुन की मस्ती भी तो अपना थोड़ा बहुत असर दिखाएगी ही ...

थोड़े से विचार-विमर्श के उपरान्त आज के होने वाले कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार कर ली गयी है , आलू गैस और केरोसिन स्टोव पे उबलने के  लिए चढ़ा दिए गए है , कुछ आलू छीले जा रहे है , ये मैले कुचैले से ,आवरण विहीन हो कितनी जल्दी एक नवीन रूप को धारण कर रहे है और फिर कद्दू कस से कसे जाने के उपरांत अपना पिंडिय स्वरुप खोकर धारी युक्त हो ये और भी  आकर्षक लग रहे है, रात भर का भीगा हुआ साबूदाना भी बड़े से  डेग में उबल पारदर्शी हुआ जा रहा है , तभी माँ ने गाना शुरू किया 

शिव के मन माहि बसे काशी -२
आधी काशी में बामन बनिया,
आधी काशी में सन्यासी, 
शिव के मन माहि बसे काशी -२
काही करन को बामन बनिया,
काही करन को सन्यासी, 
शिव के मन माहि बसे काशी -२
पूजा करन को बामन बनिया,
सेवा करन को सन्यासी, …
शिव के मन माहि बसे काशी -२
काही को पूजे बामन बनिया,
काही को पूजे सन्यासी, 
देवी को पूजे बामन बनिया,
शिव को पूजे सन्यासी, …
शिव के मन माहि बसे काशी -२
क्या इच्छा पूजे बामन बनिया,
क्या इच्छा पूजे सन्यासी, 
शिव के मन माहि बसे काशी -२
नव सिद्धि पूजे बामन बनिया,
अष्ट सिद्धि पूजे सन्यासी, 
शिव के मन माहि बसे काशी -२

और बांकी सारी महिलओं का स्वर पा शरीर के रोमों को जागृत करता यह  गायन कितना दिव्य सा प्रतीत हो रहा है ....

आलू उबल चुके है , उन्हें छील, फोड़ कर पापड़ बनाने की  अन्य सामग्री और मसालों को मिलाने के दौरान  पता  चला कि हींग तो घर में ख़तम हो चुकी है, वार्ष्णेय जी ने पिछले साल ये डल्ले वाली हींग हाथरस से भेजी थी ,  खुशबूं में बेजोड़ बहुत जरा सी  लगती थी और  किसी भी खाने के स्वाद में चार चाँद लगा देती , खासकर जब दाल में इसका तड़का लगता तो मुख में लार के स्राव को प्रेरित करती  इसकी महक हर किसी के भूख जगा देती और पिताजी कह ही उठते “ श्रीमती जी अगर खाना बन गया हो लगा दो , तुम्हारे से तडके की गंध ने मेरी भूख जगा और बड़ा दी है ...

माँ को अपनी इस विशेष “हाथरसी हींग” को खत्म होने का मलाल  था और साथ ही साथ चिंता भी कि इस बार के  बने पापड़ो में शायद पिछले साल जैसी लज्जत  न हो , खैर मुझे इस हिदायत के साथ कि “लाला से कहना की बढ़िया हींग दे”, बाज़ार दौड़ा दिया गया , मै प्रसन्न था कि मुझे कुछ काम मिल गया और साथ ही साथ स्कूल न जाने के अपने फैसले को पुष्ट करती एक वाजिब वजह 

उबले आलुओं का मसाले और तेल युक्त गुन्द्का गूंध लिया गया है , हल्की पीली पृष्ठभूमि में चमकते लाल मिर्च और जीरे के काले  दाने इसके स्वादिष्ट होने का अहसास करा रहे है , मेरा मन तो इसे ऐसे ही खाने को मचल रहा है पर फिलहाल माँ के गुस्से के आगे ऐसा संभव नहीं ...

पन्नी के मध्य रख आलू की इस लोई को बेलते  समय हमारे लकड़ी  वाले चकले पे ध्यानी आंटी को असहजता  अनुभव हुई तो उन्होंने मुझे बुला के कहा – जा हमारे घर दौड़ के जा , दादी मिलेंगी उनसे कहना मैंने संगमरमर वाला चकला मंगवाया है ... उनके आदेश का तुरंत अनुपालन हुआ और मैं दौड़ के उनका इच्छित समान ले आया ...  इस कार्य में सम्मलित हो अपने योगदान के यह अनुभूति मुझे कितना हर्षा रही है  ... 

आलू के पापड़ बनने के बाद लम्बी सी पन्नी सूखने के लिए धूप में डाल दिये गए है , चिप्स भी माँ की धोती में सूर्य देव उन्मुख हो सूख के अकड़ रहे है , शायद अपने स्वरुप को खोने का शांत प्रतिरोध जता रहे  है, साबूदाने के पापड़ अपने सफ़ेद दानों के साथ अभी काफी गीले है , चावल की कचरी हाथ से चलने वाले इस मशीन से निकल अपने अवस्था परिवर्तन के दूसरे दौर में कितनी नाजुक लग रही है , जरा से ही हिलाने   से अपने स्वरूप को खो देने वाली ...

छत पे चलती हवा के मध्य मै थपकी , ईंट ,पत्थर , पुराने लोहे के पाइप , पुराने ख़राब ताले, अपने क्रिकेट के बल्ले और स्टम्प से पन्नी , मां और दादा जी इन फ़ैली हुई धोतियों  को दबा रहा हूँ जिनपे होली की यह विशेष खाद्य सामग्री सूखने हेतु  विराजमान है , माँ की  नजरों से बच ,  मन में उत्पन्न हड़बड़ी और  इनके  सूख जाने के न ख़त्म होते इंतज़ार के  बीच इन अधसूखे कच्चे पापड़ो का स्वाद ले चुका हूँ... उड़ते पक्षियों से इनके रक्षण का भार भी आज  मेरे ही  कंधो पे  है ....

आज हमारे घर का होली के अवसर पे होने वाला यह सामूहिक कार्य निबट चुका है , कल शाह आंटी के घर की बारी है और हास-विनोद करता महिलाओं का यह विशेष जमघट कल उनके घर ही लगेगा ...  कार्य सकुशल समाप्त  होने के  सुकून के मध्य चाय की चुस्कियां लेते हुए फाल्गुन का सत्कार गीतों के माध्यम से एक बार  पुनः प्रारंभ  है 

जल कैसे भरूं यमुना गहरी ..."
ठाड़े भरूं रजा राम देखत है
बैठे भरू भीजे चुनरी
जल कैसे भरूं यमुना गहरी ..."

विभिन्न घरो से एकत्र सामग्री को लौटने की जिम्मेदारी के मध्य मुझे इंतज़ार है अगले हफ्ते का जब ये संगठित नारी शक्ति पुनः हमारे घर कदम रखेगी , स्वादिष्ट गुजिया, मठरी, सेव और नमकपारे बनाने  करने  के लिए ....