Sunday 29 November 2015

दूध का भरा गिलास....

माँ स्टडी टेबल  पे दूध का भरा गिलास रखते हुए बोली - ज्यादा नखरे मत दिखा ,इसे चन्न करके पी जा,बढ़ते बच्चो के लिए रोज दूध पीना जरुरी है , दूध नहीं पीयेगा  तो ठिगने का ठिगना रह जायेगा ....

किताबों से क्षण भर के लिए नजर हटाते हुए मैंने बड़े ही अनमने ढंग से दूध से भरे  हुए उस स्टील के गिलास को देखा , उसके ऊपर उठती हुई हलकी-हलकी भाप उसके गरम होने का अहसास करा  रही थी  पर सतह पर जमी पतली सी मलाई की परत मुझे उबकाई भी दिला रही थी .....

बचपन में दूध पीना मुझे कतई भी पसंद न था , श्वेत रंग के बेस्वाद से लगने वाले  इस पेय पदार्थ को कंठ से नीचे उतारना नितांत ही दुरूह कार्य था इसलिए इससे बचने के लिए तरह-तरह के प्रपंच रचे जाते , बहुत गर्म /ठंडा होने के बहाने बनाए जाते , चीनी कम-ज्यादा होने बेजा शिकायते की जाती , पेट भरे होने और तिल भर भी जगह न होने के तर्क दिए जाते, मलाई हटाने को कहा जाता  और माँ  हमारी  इन सारी  उटपटांग मांगो को पूर्ण करने के लिए रसोई और कमरे के  बीच नाचती ही  रहती और अगर इन सब के बावजूद भी हमारा बाल हठ जारी रहता तो उनकी पिताजी से शिकायत कर देने की धमकी एक ब्रह्मास्त्र का कार्य करती जिसका वार कभी भी विफल न जाता ....

वैज्ञानिक विश्लेषण से परे यहाँ अनुभवों के आधार पे उसे दूध के एक सम्पूर्ण आहार होने के इल्म था , गाय या भैस के होने पे विवाद न था पर पूर्णरुपेण शुद्ध होना उसके स्वीकार्य होने एकमात्र  कसौटी थी , पानी के अलावा किसी अन्य दूसरी चीज के  मिलने से उसके अशुद्ध या कृत्रिम होने के बारे में उस समय सोचा भी नहीं जा सकता शायद मानव का नैतिक और चारित्रिक पतन आज के दर्जे का ना था ...बच्चो को गिलास भर दूध पिलाने के बाद मातृत्व का वो संतोष अगाध था , उसकी शांत जुकड़ी  अब तल्लीनता के साथ घर के अन्य कार्यो में रम सकती थी ....

खाद्य पदार्थो के चुनाव में सबसे ज्यादा तरजीह दूध को ही मिलती , बाल्टी लेकर अपने सामने दुहवा दूध लाना पिताजी की प्राथमिकताओ में था , कभी कभार   अगर हमें जाना  पड़ता तो पहले से  दूधिये की चलाकियों के बारे में बताया जाता और सजग रहने की हिदायत दी जाती फिर भी दूधिया चलाकी कर ही देता , दूध के डिब्बे में फेन भरके वो थोड़ी घटतोली कर ही डालता.....

रोज दूध पीने के कार्यक्रम में ड्रामा होना लाजमी था , पर न चाहते हुए भी दूध तो पीना ही पड़ता , तरह-तरह के प्रलोभनो और झिडकियों का दौर जारी रहता , ममता और भयदोहन का क्रम  भी जारी रहता ....

बचत की ओर आसक्त इस मध्यमवर्गी परिवार में दूध में मिला उसकी पौष्टिकता और स्वाद में इजाफा करने का दावा  करने वाले बाज़ार में उपलब्ध डिब्बाबंद  पदार्थो के प्रति रूचि न थी , उनको नकारने के यहाँ अपने तर्क थे जो काफी हद तक सही भी थे , चीनी मिले गर्म दूध को  बिना कुछ मिलाये उसके स्वाभाविक श्वेत रूप में ही सेवन को श्रेयस्कर माना जाता था ....जाड़ो में चीनी जगह गुड का मिलना एक सुखद बदलाव होता था ....

किशोरावस्था के आगमन पे थोड़ी रियायतों का मिलाना लाजमी था , अब रसोईघर में प्रवेश किया जा सकता था , और अपने हिस्से के  मिले दूध में परिवर्तन करने में रोकटोक भी न थी , कभी दूध-पत्ती , कभी घुटी कॉफ़ी तो कभी सेवई बना कर बना मैंने दूध की उस बेस्वादीपन से आंखिरकार छुटकारा पा ही लिया , छोटी इलायची के दानों ने मुझे उस अप्रिय खालिस  दुधैन स्वाद से मुक्त कराने में काफी मदद की ....

पिताजी के विपरीत आज सोते समय मै गिलास भरके गर्म दूध नहीं पीता पर यदा-कदा हलवाई के यहाँ भट्टी पे चढी बड़ी सी लोहे की कडाही पे खोलते दूध के देख पता नहीं मन  क्यों ललचा जाता है?, कुल्हड़ में दूध गरम भी होता है और उसमें मोटी सी मलाई की परत  भी होती है , दूध को पीते -पीते अतीत में  माँ के द्वारा परोसे गए स्टील गिलास की तली में  अधघुले चीनी के  दानो याद हमेशा ही आती रहती  है ....

Sunday 15 November 2015

पुरानी पेंट रफू करा कर पहनते जाते है
Branded नई shirt देने पे आँखे दिखाते है
टूटे चश्मे से ही अख़बार पढने का लुत्फ़ उठाते है 
Topaz के ब्लेड से दाढ़ी  बनाते है 
पिताजी आज भी पैसे बचाते है ….

कपड़े का पुराना थैला लिये 
दूर की मंडी  तक जाते है
बहुत मोल-भाव करके 
फल-सब्जी लाते है
Packet नहीं अपने  सामने दुहवा हुआ 
खालिस दूध  पोते-पोतियों को पिलाते है
आटा नही खरीदते, गेहूँ पिसवाते है
पिताजी आज भी पैसे बचाते है… 

स्टेशन से घर पैदल ही आते है 
रिक्सा लेने से कतराते है 
सेहत का हवाला देते जाते है 
बढती महंगाई पे चिंता जताते है
पिताजी आज भी पैसे बचाते है ....

पूरी गर्मी पंखे में बिताते है 
सर्दियां आने पर रजाई में दुबक जाते है 
AC/Heater को सेहत का दुश्मन बताते है 
लाइट खुली छूटने पे नाराज हो जाते है 
पिताजी आज भी पैसे बचाते है

माँ के हाथ के खाने में रमते जाते है 
बाहर खाने में आनाकानी मचाते है 
साफ़-सफाई का हवाला देते जाते है 
मिर्च, मसाले और तेल से घबराते है 
पिताजी आज भी पैसे बचाते है…

गुजरे कल के किस्से सुनाते है 
कैसे ये सब जोड़ा गर्व से बताते है 
पुराने दिनों की याद दिलाते है 
बचत की  अहमियत समझाते है 
हमारी हर मांग आज भी 
फ़ौरन पूरी करते जाते है 

पिताजी हमारे लिए ही पैसे बचाते  है ...

Friday 6 November 2015

क्यों सोचे तुम्हारा मन मेरी तरह
क्यों हो मेरी हर पसंद तुम्हारी भी रूचि
क्यों बताऊँ मै तुम्हे आचरण और सलीके
क्यों ढलो तुम मेरी इच्छाओ के अनुरूप  यूँही

क्यों तुम्हारा ही दायित्व रहे परिजनों के प्रति
और मै पाता  रहूँ सम्मान अछिन्न
क्यों तुम्हारा  इंकार लगे बगावत का  स्वर
और मेरी मर्जी चले हर दिन

क्यों तुम्हारे तर्क भी लगे कुतर्क
और मेरी अपरिपक्वता उचित
क्यों मै चाह के भी स्वीकार न  पाऊं अपनी त्रुटि
और तुम बिन कुछ किये हो जाओ अभियोजित

तुम भी तो मेरी ही तरह सक्षम
फिर बार-बार घिसो क्यों तुम ही
क्यों हर निर्णय में निर्णायक बनू मै
और तुम प्रदान करो  अपनी स्वीकृति

सभवतः बचपन से आजतक
इस पुरुष प्रधान तथाकथित सभ्यसमाज ने
सदैंव रोपित और पोषित किया मुझमें
सर्वोपरी और श्रेष्ठ होने का भ्रम...

Tuesday 3 November 2015

आज का दिन हम सबके लिए  बेहद खास है 
सबकुछ अच्छा होगा इसका प्रबल अहसास है 
पिताजी के मामाजी के घर ये आयोजन है 
लड़का-लड़की को एक दूसरे से मिलाने का प्रयोजन है 

फल -मिठाई मेवे सब के सब मेज पे सजे हैं 
विविध प्रकार के पकवान भी आज घर पे बने हैं 
नाते-रिश्तेदारों की सीमित चहल पहल है 
शुरुआत हैं , बात बिगड़ जाने का भी तो  डर है 

सबके नयन प्रतीक्षारात घर के गेट पे टिके हैं 
कान भी हर आहट को सुनने की कोशिश करने लगे है 
वक्त देखों अब काटे नहीं कटता है 
कुछ याद आने पे भईया झट माँ के पास दौड़ पड़ता है 

दीदी की साड़ी पहनने से न नुकुर है 
इस दुविधापूर्ण क्षण में कैसे संभलेगी इसका डर है 
बड़े-बूढों के परामर्श का न उसपे  कोई असर है 
झट आंसू टपका देती , ये कन्या आज बड़ी नर्वस है 

चाय की ट्रे ले जाने में भी असमर्थ है 
ले गई तो पक्का गिरेगी , बहस करना व्यर्थ है 
कह रही मुझे बार-बार टोक के और न हडबड़ाओं 
क्या करना क्या न करना मुझे और न बतलाओ 

पहली बार फंसी इसमें तुम सबके कहने में 
क्या मै अखरने लगी थी साथ रहने में 
उन्मुक्त जीवन मेरा, जिम्मेदारी विहीन था 
कॉलेज और हॉस्टल जीवन जीवंत और रंगीन था 

खीचतान ,नोकझोक के मध्य आंखिर वो समय आ ही गया 
लड़का अपने लाव-लश्कर के साथ देखो घर पधार  गया 
खुसर-पुसर और कानाफुसियों के मध्य कितना संकोच है 
नये बनते संबंधों में शुरूआती तकल्लुफो का ही जोर है 

इस विचित्र से सन्नाटे को लड़के की भाभी ने तोड़ा 
परिचय कराते हुए हमारी दीदी से मुस्कुराते हुए बोला 
चाय की चुस्कियों के बीच औपचारिक वार्तालाप है 
दो परिवारों का यह मिलन कितना खास है...

अरे बेटा तुमने तो कुछ खाया ही नहीं 
तुम्हे क्या पसंद है तुमने तो बतलाया ही नहीं 
शर्म झिझक से भला किसका भला हुआ 
मुस्कुराते हुए चाची ने लड़के को छेड़ दिया 

माँ ने झट धर दिए संभावित दामाद की प्लेट में 
एक गुलाब जामुन दो समोसे 
अविरल बहती बातों की इस चासनी के मध्य 
कोई न भी तो कैसे बोले ...

बातों के बीच अक्सर उठता हंसी ठठा है 
वर्जनाए लगी टूटने , संबंध अब आत्मीय लगता है 
केवल लड़का-लड़की खामोश पड़े लजाते है 
बरबस मिल जाते नयन और होठ काट मुस्कुराते है 

शोर अब थम गया , 
फिर से सन्नाटा छा गया 
लगता है लड़का-लड़की के 
एकांत में बातें करने का वक्त आ गया 

बारी-बारी सब उठ खड़े 
इधर-उधर हो लिए 
भाभी जी मुस्कुरा के कहें 
बोलिए जी अब खुल के बोलिए 

बड़ी ही अजब स्थिति आज यहाँ बनी है
संभावित सात जन्मो के संबंधो की शायद नीव पडी है
प्रारंभिक हिचकिचाहट से पार पा
ये जोड़ी अब आपस में बोल पड़ी है
पसंद-नापसंद सब कह डाले
बहुत सी बातें फिर भी कहने को  बची हैं ...

समय बहुत  जल्दी बीता , ढेरों  हुई बात
असंख्य यादें संजोयगी इनकी ये पहली मुलाकात
माँ ने खटखटाए किवाड़ कहा खाना लग गया
बेटी का खिला-खिला चेहरा उसे कितना जच गया


भोजन उपरांत फिर से चाय का दौर है
दीदी अलग कमरे में ,दिमाग पे बहुत जोर है
हाँ करूँ के न करूँ अभी खुलके समझ न पाऊँ
असमंजस की इस स्थिति अभी निर्णय से घबराऊँ

तभी आया सन्देश लड़के वालों को लड़की पसंद है
दीदी की चिंता और बड़ी मन में अनेको द्वन्द है
माँ ,पिताजी ,बाबा दादी सब लगे उसे समझाने
घर बैठे आये इस बढ़िया रिश्ते को हाथ से न देंगे जाने


इतने लोगो के हां कहने पे वो भी साथ चलदी
पलके झुकाते हुए धीमी आवाज में उसने भी हामी भर दी
पिताजी के ननिहाल अब जश्नों का दौर है
मुबारक हो मुबारक हो का देखो मच गया शोर है ....






Monday 2 November 2015

दरवाजे पे  हुई दस्तक , मेहमान आये
साथ में अपने ढेरों सामान लाये
माँ ने झट पैसे थमा दिए बिस्कुट-नमकीन लाने को
पर मन नहीं कर रहा इस समय बाहर जाने को

दिलो-दिमाग तो उन मिठाई के डिब्बों पे ही टिका है
देखें तो सही अपने नसीब आज क्या खाने को लिखा है
मथुरा के पड़े हैं  कि मूंग की दाल का हलवा है
या फिर आगरे के पेठे और दालमोठ का जलवा है

तभी पता चला मेहमान आज रात यहीं रुकेंगे
हृदय गदगद हुआ चलो आज घर में पूरी पकवान बनेंगे
अतिथि सत्कार की  वर्षो पुरानी परंपरा है
चूल्हे पे कढ़ाई न लगे  ऐसा भला कब हुआ है ?

उनका सामान अब रख दिया अंदर के कमरे में
माँ तुरंत ही  लग गयी है बिस्तर की चादर बदलने में
सिर पे पल्लू और और धोती का एक सिरा मुंह में दबा है
बुजुर्गो के प्रति सम्मान उन्होंने  प्रकट कर दिया है

बड़े भइया दौड़ पड़े है दफ्तर से पिताजी को लाने को
उन्होंने भी जरा देर न लगाई घर आने को
सब्जी का भरा उन्होंने माँ को रसोई में थमाया
थोड़ी खुसर- पुसर हुई जैसे ही  मेहमानों को नजरों से दूर पाया

राजी-ख़ुशी ,कुशल-क्षेम पूछने  का  सिलसिला है
बातो -बातों में अतिथि आगमन का प्रयोजन पता चला है
चाची के पिताजी के साथ एक बूढ़े सभ्रांत सज्जन आये हैं
हमारी प्यारी सी दीदी के लिए अपने भांजे का रिश्ता लाये है

माँ जुटी  है पूरी तत्परता के साथ खाना बनाने में
सख्त चेतावनी है बाद की मार की, शोर मचाने में
रात के खाने की मेज अब सज गई है
रायते , आलू गोभी , मटर -पनीर के साथ खीर भी बनी है

बासमती के खिले -खिले चावलों में जीरे का तड़का है
सुना है अच्छे-खाते पीते घर का सभ्य-सुशील लड़का है
पिताजी भी चाह रहे हैं कि यहाँ बात बन जायें
अच्छे देखे-भाले घर में बेटी रुख्सत हो जाए

दीदी हमारी भी तो कितनी गुणी है
हर किसी से हमने उसकी तारीफ ही सुनी है
पढ़ने लिखने होशियार और तेज-तरार है
समस्त गृह-कार्य में भी दक्ष ,ये कन्या नायाब है

भोजन उपरांत मेहमानों ने धुम्रपान की इच्छा जताई
कठोर क़ायदे-कानून के इस घर में हो गई ढिलाई
पड़ोस के सिंह साहब के घर  से पिताजी ऐश-ट्रे मंगवाई
उनकी विल्स नेवी कट अपने हाथों से सुलगाई

हमारे इस सात्विक घर में जले तम्बाकू की महक है
नए संबंधो के सूत्रपात के लिए ढील मयस्सर है
सिगरटों के दौरों के बीच बात आगे बड़ी
तफसील मालूमात हुई , दोनों ने अपनी कही

देखते ही देखते घडी ने रात के ११ बजाये
सेकेंडो की सुई का शोर भी इस नीरवता सुन लिया जाये
माँ  ने  मेरे हाथों पानी का जग और गिलास भिजवाये
दो तकिये सिरहाने पे पिताजी ने लगाये

चलो बहुत रात हुई अब सुबह बातें करेंगे
बांकी सब तो लड़का -लड़की आपस में मिलके  ही तय करेंगे
दूर हॉस्टल में बैठी दीदी को इसकी न कोई खोज-खबर है
बड़े -बूढ़े अपने अनुभवों से रिश्ते जोड़ने में सिद्धहस्त हैं

पिताजी अब शुभरात्रि कह  मेहमानों से ले रहे विदा
कुछ जरूरत होने पे बता देने का पुनः निवेदन किया
अब लगे हैं धीमी आवाज में माँ से बतियाने
माँ समेट रही रसोई और लगी है काबुली चने भिगाने

घर-परिवार तो यथा संभव ठोक- पीट के जांचा जाता
बांकी ऊपरवाले  की मर्जी , रिश्ते तो वो ही बनाता
शादी-विवाह तो वर-वधू समेत दो परिवारों का मिल-मिलाप है
हर किसी की राजी-ख़ुशी से बना ये संबंध कितना ख़ास है

अगली सुबह सब लोग जल्दी ही  जग गए
नित्यकर्म से निवृत्त हो नाश्ते के लिए सज गए
छोले , आलू मैथी की सब्जी,पूरी  और सूजी का हलवा है
कल्लुमल की  जलेबी के बिना हर शुभ काम अधूरा है

नाश्ते करके अब अतिथि ले रहे विदा
आदर-सत्कार से अभिभूत कह रहे शुक्रिया
माँ ने सबकुछ कितना अच्छी तरह निभाया
बेटी की विदा का सोच अभी से दिल भर आया

बस में बैठा आये उनको पिताजी स्टेशन जाकर
दिया शुभ समाचार फ़ौरन घर पे आकर
दोनों सज्जन हम से बड़े मुतमईन लगे
होली के बाद फिर से मिलने की कहने लगे

लड़का-लड़की आपस में एक दूसरे को देख ले
फिर ये बात आगे बड़े
दान-दहेज़ का कोई मसला नहीं
पढ़ी लिखी दुल्हन ही दहेज़ लगे

दीदी को घर में हुई  हलचल की तनिक भी हवा नहीं
पता चलने पे चिढ़ जायेगी ये बात पक्की रही
मां कर रही बार-बार ईष्टदेव का स्मरण
सारी विघ्न-बाधाओं हरने का हो रहा मनन

समय इतनी जल्दी कैसे बीता उसे उलझन हो गई
कल तक अपने आँगन  में खेलती गुडिया आज बड़ी हो गई
लोग अब आने लगे उसे अपने घर की लक्ष्मी बनाने
बेटी के विदा होने की पीड़ा माँ से बेहतर कौन जाने

सोच के साथ आँखों में उमड़ता आसुओं का सैलाब है
माँ  को ख़ुशी के साथ इस अपूर्णीय क्षति का अहसास है
रक्त ,दुग्ध ममता सिचित को एकाएक  कैसे पराया कर दूं
त्रुटिपूर्ण है ये रीतिरिवाज , जी चाहता इसको बदल दूं

सच में स्त्री होने की अजब ही नियति है
इस जीवन के अनेको उतार चढावो में कितनी पीड़ा वो सहती है
बेटी ,अर्धांग्नी ,माँ ,बहन,सास बन उसे निभाने विविध रूप हैं
पुरुष-प्रधान इस समाज के सामंजस्य कितने कुरूप है

जारी  रहेगा .......to be continued