Saturday 31 January 2015

खाली बैठे वो
कितने मेहनतकश से
और काम करते हम
कितने कामचोर कहलायें

चुप बैठे वो
कितने बोलते से
और हम बोले तो
सिर्फ शोर ही मचायें

निर्णय न देकर भी वो
कितने निर्णायक 
और इंतजार में झल्लाते हम
विद्रोही होने का तमगा पायें...
सुबह तडके ही सवा  पांच बजे उठ गया , यद्यपि रात को हमेशा की तरह साढ़े पांच का अलार्म लगा दिया था पर जल्दी  उठने की चिंता स्टील की मेज घड़ी से हर बार की तरह इस बार भी  जीत ही गयी और आज भी मुझे गरम रजाई के पाश से मुक्त करने का कलंकित श्रेय उसे ही मिला ....

बूबू (दादाजी  ) हमेशा ही कहते “सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्” और कितनी कडवी लगती है  यह बात पर इसके अलावा कोई अन्य चारा है  क्या ? दसवी जमात  में आते ही मानो कर्फ्यू लग गया हो , अब कितनी चीजे निषेध है,  ऊपर से रही सही कसर बड़े भईया पूरी कर गए  , उनकी मेहनत की  मिसाले दे देकर घर वालो ने जीना मुहाल कर रखा है ... वाद विवाद और डांट-डपट से बचने के लिए न चाहते हुए  भी वो ही रास्ता तय करना है  जो वो दिखा के गए  , यदा कदा  हमारी तरफ से विरोध के स्वर उठते है  पर पिताजी के कड़े अनुशासन के समक्ष वो ज्यादा देर तक बुलंद न हो पाते ...

दिसम्बर की यह सर्द भोर , भीषण ठण्ड के मध्य बाहर अभी अँधेरा है  , मुहल्ले में भी शांति ही है ,बगल के घर गुर्रानी जी को सुबह फैक्ट्री  जल्द जाना होता है ,इसलिए उनकी घर की रसोई से बर्तनों के खडकने की आवाज़े आ रही है , तभी साइकिल की तेज घंटी की आवाज इस सन्नाटे को जितनी  तेजी से चीरती हुई आई और एक थप्प के साथ उसी तेजी के  साथ गायब भी हो गयी , लगता है अखबार आ चुका है इसके प्रतिक्रिया स्वरुप अब कई घरो के बाहर वाले जालीदार  दरवाजो के खुलने में  जोर से खीचने की ची और स्वत् बंद होने की धडाम के स्वर सुनायी  देने लगी है , धीरे-धीरे शोर बढ़ रहा है ,लोहे के गेटों के खुलने बंद होने की चिर-परचित धातुमय धव्नियां स्पष्ट सन्देश दे रही है कि अमुक घर का भी कोई न कोई व्यक्ति  जाग चुका है...

जल्दी जल्दी गुसलखाने में घुस ब्रुश से दन्त साफ़ करने की औपचारिकता  निभा रहा हूँ , मंजन की समतल टयूब का  गले तक जोर से मर्दन करने पश्चात  भी  मटर के दाने बराबर पेस्ट निकल पाया , चलो फिलहाल इसी से  काम चलाओ कल इसको काट कर आज से बेहतर नतीजे निकालेंगे,  टंकी का पाने एकदम बर्फीला है , न तो गर्म करने का समय है और ना ही सुविधाजनक साधन , सी सी करते हुए , मुख और नथुनों से निकलती दृश्य भांप के मध्य ठन्डे पानी का यह सितम झेल ही लिया है , कुल्ला हो चुका है , चेहरा धुल  चुका है , आखों के  गीदड़ के सफाई शायद पूर्ण नहीं हो पाई है,  वो तो किसी के टोकने तक जारी रहने वाली है....

मेरी हौंसला अफजाई के लिए माँ भी जग चुकी है , और मेरे हाथ में पकड़ा गयी है , कम दूध की कालीमिर्च युक्त तेज चीनी  वाली चाय का गिलास जिससे मै अपने हाथो को  सेक रहा हूँ  और पीते-पीते ही टयूशन का रजिस्टर खोज रहा हूँ , मेरे इस रूखे गले को कितना तर कर रही है यह ममतामयी चाय , सुबह-सुबह इस समय कुछ खाने का सवाल ही नहीं पर माँ की तो आदत है ना  पूछने की और हमारी झल्लाने की ...

साइकिल उठा चल पड़े है नफीस  मास्साब के घर,  हिसाब के सवालों से जूझने, उनके उत्तरों को खोजने के संघर्ष में अपना भविष्य संवारने ....
लड़के भी केवल दो प्रकार के ही होते है , पहले बुरे और दूसरे बहुत बुरे। लड़कों की फितरत है ही ऐसी  कि वो अच्छे हो ही नहीं सकते इसलिए "अच्छा लड़का " एक कोरी कल्पना से ज्यादा कुछ भी नहीं...

बुरे लड़के वाकई में बुरे होते है पर बहुत बुरे लडको थोडा कम...ये अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझते , "अपना काम बनता भाड़ में जाये जनता " कहावत की उद्गम स्थली ये ही लोग है , फोकस में रहने के लिए ये कुछ भी कर सकते है , निहायत ही मतलब परस्त .... 

इनकी चेहरे की मासूमियत से आप हमेशा ही धोखा खायेंगे , साफ-सुथरे और मूंछ मुंडे , कमीज करीने से पतलून के भीतर खोसी हुई , पतली काले रंग की  चमड़े की बेल्ट , बेल्ट का बक्खल भी छोटा और डल्ल स्टील फिनिश का, अगर पेंट पहनेगें तो उसके साथ स्पोर्ट्स शूज कभी नहीं , हमेशा चमड़े के पॉलिश किये हुए जूते, जीन्स के साथ कोई भी जूता चल सकता है , हाथ पैर के नाख़ून करीने से नेल कटर द्वारा  एकसार  कटे हुए, व्यक्तिगत स्वच्छता का पूरा ख्याल, साफ़ सुथरे ब्रांडेड अंडरवियर और बनियान पहनने वाले....सर के बाल  छोटे पढ़ीस लुक में कटे हुए  , छोटी छोटी  कलमे  और दाढ़ी हमेशा बनी हुई  , ओल्ड स्पाइस की भीनी-भीनी  खुशबू इधर-उधर बिखेरते हुए ...

अतंत ही मृदु भाषी ...संयत,  सीमित और परिष्कृत  वार्तालाप , शब्द बड़े  ही नपे-तुले और सोच समझ के बोले हुए, जब किसे से मुखातिब हो तो विद्वता झलकती हुई और मुखतलिफ रहने में कितना ठहराव ...
अपने कार्य के प्रति समर्पित , भविष्य के लिए योजनाबद्ध , फालतू वक्त बरबाद करने की जरा भी आदत नहीं, अनेक जटिल समीकरणों के एक साथ हाल करने  में दक्ष , निहायत ही मेहनती , नित्य नवीन उपलब्धियों को अर्जित कर कीर्तिमान स्थापित करने वाले .... अनेकों से व्यक्तिगत सम्बन्ध पर स्वार्थ की परिधि के बाहर कोई भी नहीं ....
जीवन का हर कदम  सोचा समझा और परखा हुआ ....लोगो की प्रशंसा से मुग्ध  और ऐसा ही ही हमेशा चाहने वाले पर किसी निरीह  को ख़ारिज करने में जरा भी विलम्ब न करने वाले भी ... बहुत अच्छी लडकियों में  कितनी ख्याति प्राप्त ये बुरे लड़के ....

इसके विपरीत अपने मस्ती में खोये कुछ बहुत ही  बुरे लड़के... बड़े बाल , बड़ी दाढ़ी, मैली-कुचैली जींस ...टी-शर्ट या शर्ट हमेशा बाहर , नाख़ून ब्लेड से कटे  या मुंह से कुतरे  कुछ बड़े बड़े उबड़-खाबड़ से , पैर के अंगूठे का नाख़ून इतना बड़ा के जुराबों को फाड़ अपनी विकरालता का अहसास दिलाता हुआ , गंदे से स्पोर्ट्स शूज ,काले मैल की एक मोटी सी परत लिए हुए , नाक से एन्टीना की भांति निकले हुए बाल जो कभी कभार मूडे से भी सु-सज्जित , सर में बड़े बिखरे बालो के मध्य रुसी के मोटे पहाड़ जो किसी शैम्पू से नहीं, खरोजने से ही स्थूल रूप में  बाहर आते हुए , कान की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों गन्दगी के  कारण बने अवरोध जो साबुन से न जाने कब से स्पर्श न हों पाने की व्यथा को व्यक्त करते हुए... हाथ की छोटी अंगुली से ही अपने उन्मूलन की बाट जोहे  ,  छेद युक्त अधोवस्त्र (अंडरवियर और बनियान) जो तार पे लटकने पर ही अपनी लाचारी को बयां कर पाते , इनका टूथ ब्रुश घिस-घिस के फूल की आकृति लिए अपने नए नामकरण को कितने दिवसों से  प्रतीक्षित ...

चाल ढाल और वार्तालाप सब कुछ कितना स्थूल कितना व्यापक, नजाकत और नफासत से कोसो दूर ,शब्द नहीं मानो मुख से पत्थर बरस रहे हो .... खुद की इनको चिंता कहाँ ??? हर किसी के फटे में टांग अडाने वाले, दुनियादारी के चक्कर में खुद को भूल , मतलबो से दूर सिर्फ मतलब भर की पढाई करने वाले ये मैपरस्त...

दोस्तों की  लम्बी कभी न खत्म होने वाली फेहरिस्त , संबंधो में  हर किसी से एक अनूठे, अपनेपन  का अहसास, हर मिलने वाले से  गर्मजोशी और दिल से स्वागत सत्कार , ये वर्तमान में जीने वाले भविष्य की तमाम चिन्ताओ और जोड़-घटा,गुणा-भाग से कितने दूर कितने परे... 

इनका दर हमेशा खुला हुआ, इनकी सारी चीजी सबकी और सबकी सारी चीजे गाली के साथ इनकी, मेरा तेरा का कोई भेद नहीं, कोई प्रतिद्वंदी नही सारे वाद-विवाद और ऊँच-नीच को भुला सभी मित्र ,पढाई छोड़ गली कुत्ते से लेकर मंगल गृह की चिंता का भार इन्ही  कंधो पे .....वाकई बहुत बुरे लड़के बहुत ही बुरे  होते है खासकर अपने लिए.....

Thursday 29 January 2015

लडकियाँ दो प्रकार की ही होती है , एक अच्छी और दूसरी बहुत अच्छी , गन्दी या बुरी लड़की मन का भ्रम है, हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं है इसलिए कोई भी यह भ्रांति न पाले ....
अच्छी लडकियाँ वाकई में अच्छी होती है , बहुत अच्छी लड़कियों से कुछ ही मामलों में उन्नीस ... एक दम सीधी सादी , नाक की सीध में चलने वाली ,अपने काम से काम रखने वाली, अपने परिधानों में कोई विशेष ध्यान न देने वाली, जो मिल गया वो पहन लिया टाइप्स , कपड़ो से मेल खाते वेशभूषा के अन्य अवयवो के आपसी मिलान में इनकी कोई विशेष रूचि नहीं होती .... अधिकतर हिंदी माध्यम से पढी हुई ये बालायें थोड़ी संकोची स्वाभाव की होती है , लड़को से बात तो करना चाहती है पर झिझक के कारण नहीं कर पाती है, ये लड़कियों के बीच ही सहज होती है और आप सब की कल्पना से भी ज्यादा मुखर , यहीं इनकी दबी हुई प्रतिभायें अपना मूर्त रूप ले अन्य सभी सखी सहेलियों को अचंभित कर देती है ....
इनका बचपन वंचित तो नहीं पर बहुत ज्यादा विलासी भी नहीं होता , इसलिए बचत की आदत शुरू से ही पड़ जाती है , १२वी कक्षा तक माँ-पिता भाई का संरक्षण में रहने वाली जब ये पहली बार घर से दूर हॉस्टल पहुँचती है तो रोजमर्रा के कार्यो में काफी कठनाईयों का सामना करती है पर गलतियाँ कर देर-सबेर ये सबकुछ सीख ही लेती हैं ,
बिना घरवालों की रजामंदी के कोई भी कार्य नहीं करती चाहे वो मैगी का पैकेट खरीदना हो या फिर शादी , मन के अन्दर बहुत कुछ चलता रहता है पर वो अपने तक ही सीमित रहता है , मित्र कम ही होते पर उनपर निर्भरता ज्यादा होती है और बहुत परेशान होने पर उनसे ही बातें साँझा करती है ... कुछ ही सारी की सारी नहीं .
इनका स्वयं को छोड़ अन्य कोई प्रतिद्वंदी नहीं होता क्योंकि इनका अधिकांश समय खुद से ही जूझते रहने में व्यतीत होता है .... खुद की कोसाई ही इनकी सबसे बड़ी कमी होती है अक्सर उसी में लिप्त रहते हुए ये अपनी अच्छाईयों को भूल जाती है ...
इनकी झिझक, इनका डर , इनका असहजपन अक्सर इनके गुस्से के रूप में प्रकट होता है जो वास्तिविकता से परे इनके जिद्दी ,अड़ियल और असामाजिक होने का भ्रम पैदा करता है .... इनके अत्यंत निकट रहने वाले ही इस बात को बेहतर तरीके से जान सकते है...
खुद अपने काम पे यकीं रखने वाली ये मोहतरमायें किसी से भी अनावश्यक मदद की दरकार नहीं रखती और एकला चलो पे ही विशवास रखती है ...
बहुत अच्छी लड़कियां वाकई गजब की होती है , किसी पारिवारिक पृष्ठभूमि ,शिक्षा , शहर से इनका कोई वास्ता नहीं, खुद ईश्वर द्वारा नवाजी गई ये कहीं भी मिल सकती है .... सभी लोग इनके मुरीद होते है और इनके तमाम यत्न-प्रयत्न ,कोशिशे भी अपनी लोकप्रियता को ही अक्षुण्ण बनाये रखने की होती है ....
सिर के बालो लगे रुफ्फ्ल हेयर बैंड से लेकर पैरो की सबसे छोटी के कन की अंगुली के नाख़ून में लगी नेल पॉलिश तक सबकुछ सटीक रूप से मिलान किया हुआ होता है .... ये शुरू से ही आत्मनिर्भर होती है , अपने को किसी मामलो में लड़को से कम नहीं समझती और समझे भी क्यों उन से दो कदम आगे ही होती है ....
उपलब्ध संसाधनों का पूरा का पूरा उपयोग अपने हित में कैसे होता है ये कोई इनसे सीखे , अपना काम करवाने में माहिर, इनके मोहनी इंद्रजाल में फंसे लड़के इनके हुक्म की तामील में दौड़ते ही रहते है , कॉलेज के प्रोफेसर भी इनके मोहपाश में बंधे कितनी लार टपकते है और परीक्षाओं में उत्तर न आने की स्थिति में मुस्कान ही इनका सबसे कारगर अस्त्र होता है जो कभी विफल नहीं जाता ...
इनके लिए जीवन में सबकुछ पहले सी तय होता हो , किस लड़के को मजदूर बना के काम करवाना है , किस को साथ में टहलाना है , किस से इमोशनल सपोर्ट चाहिए और किस को भईया बना के सुरक्षा पानी है बस तय नहीं होता तो वो है जीवन साथी , परफेक्ट पार्टनर की खोज सदैंव ही जारी रहती है और मौके पे ही चौका लगाया जाता है , जीवन में स्थायत्व को रंग रूप और शारीरिक गठन से सदैव ही ज्यादा तरजीह दी जाती है ....असंवेदनशील तो नहीं पर ज्यादा इमोशनल भी नहीं .... बहुत प्रैक्टिकल होती है, विपरीत हवाओं के रुख को भी अपने पक्ष में मोड़ने में सिद्धहस्त....
लोकप्रिय होने के कारण सबसे मेल-मिलाप रहता है, जानी -दुश्मनी तो किसी से नहीं पर इनके अन्दर असुरक्षा का भाव बहुत ही ज्यादा होता है खासकर अपनी तरह की दूसरी बहुत अच्छी लड़की से जो अक्सर विवाद की शक्ल भी ले लेता है ...खुद को सांत्वना देने और ढाढ़स बंधाने के लिए खूब निंदा रस का सेवन किया और करवाया जाता है ...
सफल रहना ही पहली प्राथमिकता होती है इसलिए साथी प्रतिद्वंदी सरीखे नज़र आते है , मित्रता तो होती है पर घनिष्ठता नहीं, खुद के बेहतर साबित करने की होड़ में अक्सर सम्बन्ध पीछे छूट जाते है ... इनके बहुत से क्रियाकालाप बहुत ही नपेतुले और गुपचुप तरीके से होते है , खुद के आलावा ये किसी अन्य पे भरोसा रखने नहीं करती ..... अपने आभामंडल से उत्पन्न भीड़ की ये आदि सी हो जाती है और आगे चलकर ये ही उनकी सबसे बड़ी विवशता भी बनता जो अक्सर उनके कार्यों, आचरण और निर्णयों को प्रभावित करता है ....

Tuesday 27 January 2015

रात के एक बजे , जोशी के डबल कैसेट टेपरिकॉर्डर पर किशोर दा का स्वरबद्ध ओ हंसनीचल रहा , भारती अपने मुहं में मंजन से उत्पन्न झाग को समेटते हुए कुछ कहने की कोशिश कर रहा है ,सैंडी हाथ में साबुनदानी उठाये हमेशा की तरह पैखाने की ओर अग्रसर है , राममोहन धूम्रदंडिका ओष्ठो में दबाये अपने फेफड़ो को फूंक रहा है , नीचे की ग्राउंड फ्लोर में यदा कदा दोपहिया वाहनों के चलने और रुकने उनके स्टैंड से उतरने और चढ़ने का शोर सुनायी दे जाता है , बॉयज हॉस्टल -२ के सबसे उपरी मंजिंल का यह बरांडा  हमेशा की तरह इस समय भी गुलजार है , एक सौ वाट के  बल्ब ने अर्धरात्रि  के इस कठोर   तिमिर से जूझने का संकल्प उठाया हुआ है , कमरों के दरवाजो और खिडकियों से आता हुआ टयूब लाइट का सफ़ेद दुधिया प्रकाश उसके इस संघर्ष में उसे कितनी सहायता प्रदान कर रहा है .... जाट राम बरगोटी बाबू  सुबह जल्द उठने के फेर में  सोने जा चुके हैं  पर उनकी आँखों में नींद कहाँ ??? कान तो हमारी ओर ही लगे हुए हैं ....

 जाड़े की भीषणता अब समाप्त सी  हैजनवरी के इन अंत के दिनों में मेरे कमरे में सप्ताहांत की यह  रात दो ईंटो के ऊपर रखी हीटर की सफ़ेद प्लेट में सुर्ख लाल हुए फिलामेंट से निकलती  ऊष्मा से ऊर्जा पा यहाँ  विद्यमान हम सभी वाचाल वाचको को ऊर्जित कर रही है ... BC (बातचीत ) अपने चरम पे है ,समय का कोई बंधन नहीं , कक्ष सहयोगी लखनऊ वाला है अक्सर ,शनिवार-इतवार को घर चला जाता है इसलिए टोका टोकी से परे कमरे में पूर्ण रूप से मेरा ही अधिपत्य है .... मेहमान नवाजी अपने पूर्ण शबाब पे है , कमरे के बिखरने , चद्दर  के गन्दा होने ,सामान की छेड़छाड़ की तनिक भी चिंता नहीं ....
रावतपुर से शाम को ही एक किलो मूंगफली ले आया था , हरे धनिये ,मिर्च ,लहसुन की तीखी चटनी और भुकनु के साथ , यद्यपि बचपन से गुड या रेवड़ी के साथ मूंगफली खाने की आदत रही है पर जहाँ पिछले दो सालो में घर से हॉस्टल आने के बाद  जब आपका पूर्ण कायांतरण हो चुका हो तो मीठे और नमकीन का यह तुच्छ भेद क्या चीज है ?.... एक कुमाऊँनी अब विशुद्ध रूप से  पक्का कनपुरिया बन चुका है ...यहाँ के स्वाद और बात के  समस्त कायदों को सीख...

कमरे की उन निवाड़ वाली  चारपाईयो के मध्य छिलको के लिए प्लास्टिक की  बाल्टी रख ली गयी है ,स्टडी टेबल से किताबो को हटा उसे भी बाल्टी के बगल में रख लिया  गया है , उसके ऊपर मूंगफली एक बड़ी सी प्लास्टिक की  थैली में, कागज में रखी हरी चटनी और भुकनु  के साथ शोभायमान हैऔर सब के सब इस खाद्य सामग्री पे टूटे पड़े है ...मूंगफली छिलने की चटर-पटर बातों की चटर-पटर के साथ निर्बाध गति  से आगे बढ़ रही है , समय के साथ लोग जुड़ते चले जा रहे है पर जो एक बार आ गया उसे जाने की सुध कहाँ ??? बातों की इस चाशनी में कितना चुम्बकीय आकर्षण है ....

तकरीबन  ९०% विषय    एक ही है बस उसे अलग अलग आयामों और निंदा रस  से सराबोर करके प्रस्तुत किया जा रहा है ....आज चर्चा का केंद्र बिंदु बत्रा बाबूका सेंटीयापा है और वो हम सभी के गले रूपी तरकश से निकले  शब्द बाणों को झेल रहें है अपने लम्बे लम्बे स्पष्टीकरणों की ढाल के साथ ... जब कभी अति हो जाती है तो पैर पटक के जाने लगते हैं पर मन-मनौव्वल और topic change  करने के वादो के साथ उनको वापस बुला ही लिया जाता है ...किन्तु लोग कहाँ मानने वाले ??? आज का "SOFT TARGET" वो ही हैं ... घूम फिर के बात उन्ही के सिर पे आ  जाती है ...

तभी एकाएक  कालू  को कुछ चुल्ल मची वो भाग के अपने कमरे में जाकर अपने पॉवर हाउस में “summer of 69जोर से लगा देता है , पर हम अधिकांश देसी  बालको को इस संगीत की समझ कहाँ??? शोर को तुरंत बंद करा दिया जाता है , बहुमत के आगे कालू भी विवश है और हमें गंवार होने का तंज के साथ वो बड़े ही बेमन से झल्लाते हुए सीधे पॉवर स्विच ही ऑफ कर देता है ...बातों का प्रतिकार जारी है ...सब के अपने अपने तर्क है और अपनी अपनी सोच ...

मूंगफली ख़तम हो चुकी है पर बातें नहीं  ....बाल्टी होने के बावजूद भी छिलके कमरे में यत्र तत्र सर्वत्र बिखरे हुए हैं , दानों के ऊपर मौजूद रहने वाले महीन लाल रंग के छिक्कल अस्तित्व विहीन से रजाई,चद्दर  और गरम जर्सी से मजबूती से चिपक गए है शायद किसी शरण की तलाश में...


बिना सुरापान वाली ये रात भी गजब की रही , आगे आने वाले दिनों की कार्यवाही का मसौदा तैयार कर लिया गया ... दूर दूर तक परीक्षाओं की कालिमा फिलहाल नहीं है और हम सब  निकल चुके है गेट पे  सुन्दर की चाय पीने .... मस्त जिंदगी का एक और मस्त दिन बीत गया...  आने वाली और मस्तियों की  योजना के साथ...

Sunday 11 January 2015

कुछ ही सम्पन्नता से संतृप्त
और अनगिनत कितने  अभाव-ग्रस्त

हर रोज चौड़ी होती इस अंतर की खाई
और विषमताओं  से पनपता आक्रोश

बहलाने , फुसलाने और बरगलाने
कुछ चेहरे आते  नज़र, साथ खड़े

वायदों , कायदों ,रवायतो  को  भुला
 दोनों ओर  से खुद को  ही पोषित करता

शक्ति और साधन संपन्न
आज का यह समाजवाद


Saturday 3 January 2015

दीदी की शादी ...

परेशानियाँ मोल ले ले के कैसे खुशियाँ मनाई जाती है ये कोई हम हिन्दुस्तानियों से सीखें ... विवाह से बेहतर इसकी मिसाल और क्या होगी ... इतना सारा टीम-टाम , बेशुमार खर्च , हल्ला-गुल्ला ,भीड़-भड़क्का,रूठना मनना ,भाव खाना ,नाच-गाना ,हंसी-ठठोली, मेल-मिलाप और करुण विलाप और वो भी सब एकसाथ आपको और कहाँ मिल सकता है ?

दीदी हम तीन भाई बहनों में सबसे बड़ी है , जाहिर है उनका विवाह तय होना हमारे घर की सबसे पहली और बड़ी ख़ुशी थी , लड़के वाले देखने के लिए पिताजी के मंझले मामाजी के घर आये और तुरंत ही अंगूठी पहना के रिश्ता पक्का करके चले गए , घर में उत्सव सा माहौल था पर पिताजी प्रसन्न होने की साथ भावुक भी लगे आंखिर उनकी गुड़ियाँ की शादी जो थी...

शादी की तारीख तय करना बड़ी ही टेढ़ी खीर साबित हुआ , मौसम , रिश्तेदारों की उपलब्धता , बच्चो के इम्तिहान और लड़के वालो की रजामंदी के बीच सामंजस्य जो बैठना था , किसी को भी नाराज नहीं किया जा सकता था ,घर की पहली शादी होने की वजह से अनुभव का आभाव साफ़ नज़र आ रहा था , बातों को कैसे वक्राकर घुमाना है माँ-पिताजी को कहाँ आता था और कुछ रिश्तेदार सिर्फ इसलिए मुंह फुला बैठे कि लड़की का रिश्ता तय हो गया और हमें पहले बताया तक भी नहीं ...

खैर मान-मनोव्वल के कई दौरों के बाद ३० नवम्बर की तारीख आंखिरकार तय हो ही गयी , पिताजी सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखते थे और अपने मधुर व्यवहार के कारण वो इसमें सफल हो ही जाते ....आने वाले मेहमानों की लिस्ट बनना आरंभ हुआ , बड़ी ही ऐतिहात बरत के इसे बनाया गया , नाम भी न छूटने और भीड़ भी अत्यधिक न होने की सोच के मध्य ये कार्य भी अत्यंत दुष्कर था ....पर वर्तमान के संबंधो को ही सबसे ज्यादा तरजीह दी गई ...

कार्ड छपाने में भी काफी माथापच्ची हुई ...कार्ड की बनावट से ज्यादा चर्चा उसके प्रारूप पे हुई ...कौन सा श्लोक , कौन कौन से शब्द ,किस-किस का नाम इसमें सम्मलित किये जायें ये बड़ी बहस का विषय बने ... पिताजी वर और वधू के नाम के आगे डॉक्टर लिखवाना चाहते थे जो मुझे बिलकुल पसंद न था, मुझे ये थोडा महिमामंडन सा प्रतीत हो रह था पर मेरी छोटी उम्र की वो अल्पबुद्धि पिताजी के साधनविहीन बचपन से वर्तमान के प्रतिष्ठित पद तक के अत्यंत ही संघर्षपूर्ण सफ़र को कहाँ देख पा रही थी .... एक पुरुषार्थी इस बहाने अपने समाज से कुछ कहना चाह रहा था और उसे इसको प्रकट करने का पूरा हक़ था...

९० के दशक के शुरू के दिनों में इन “wedding point culture” का आरंभ नहीं हुआ था, घर के आस-पास खाली किसी प्लाट की सफाई करा शामियाना लगा दिया जाता ,कैटरिंग भी इतनी प्रचलित नहीं थी , शहर के किसी अच्छे कारीगर को ही खाना बनाने की जिम्मेदारी दी जाती , वो आने वाले मेहमानों की संख्या के हिसाब से आपको सामान की लिस्ट पकड़ा देता मगर ये हमेशा ही अपूर्ण रहती .....टेंट हॉउस ,लाइट ,पानी ,जनरेटर,फोटोग्राफर , सफाई वाला , फूल वाला , प्रेस वाला , नाई ,महरी ,बैंड , घोड़ी आदि आदि का इंतज़ाम भी खुद करना पड़ता और अंतिम समय तक इन सबके होती भाग दौड़ आपको मिल्खा सिंह बना देती... बहन की शादी को एन्जॉय करना भाइयो का काम न था, कम से कम छोटे भाइयो का तो कदापि नहीं ....

जैसे-जैसे तारीख निकट आयी , काम में तेजी बढ़ गयी ,बूबू (दादा),चाचा चाची और चचेरे भाई-बहिन इसमें शरीक हो गए , आमा (दादी) को गाँव में अपनी खेती-पाती और गाय से विशेष लगाव था इसलिए उन्होंने बार-बार कहने पर भी हफ्ता भर ही पहले आने का ही निश्चय किया....... विवाह से १५ दिन पहले ही घी के कनिस्तर और आटे, चावल, दाल और चीनी के बोरे घर के आँगन की शोभा बढ़ा रहे थे , बाहर वाले कार्ड पोस्ट किये जा चुके थे , और हफ्ता रहते हुए आमा के आगमन के साथ ही शहर और मुहल्ले में कार्ड वितरण प्रारभ हुआ जो आपातकालीन रूप में शादी से एक दिन पहले तक भी जारी रहा ...

मनुष्य होने की खामियों सहित, छोटी मोटी पूर्व की तकरारो को भुला सम्पूर्ण मुहल्ला सहयोग के लिए आगे आया , सिलेंडर ,कमरे ,तख़्त , ढोलक ,मंजीरे , इमानदस्ता , मोटर साइकिल ,स्कूटर , पानी का पाइप , ड्रम आदि मांगने पर तुरन्त उपलब्ध हो गए ... सब के सब बड़े स्नेह भाव से पूछ रहे थे.... हमारे लिए कोई काम हो तो बताना ...

सच में पहले सब कुछ कितना सांझा था , घर में कोई पकवान बनता तो पड़ोसियों में जरुर बंटता , दूध ,चीनी, चाय पत्ती, आटा,चावल सब्जी आदि वस्तुओ की विनमय प्रणाली कितनी कारगर थी ,तरक्की ने कितना खोखला कर लिया, ये सब करना आज कितना तुच्छ लगने लगा है,हर चीज को पैसे और रसूख से जोड़ के देखने की सोच ने हमें बड़ा होते हुए भी कितना छोटा बना दिया और हम सब सिमट के रह गए है अपने-अपने दायरों में ...

विवाह वाला दिन भी आ ही गया , गुनगुने जाड़े वाले मौसम में आने वाले मेहमानों का ताँता लगने लगा, कितने लोगो से मै पहली बार मिल रहा था और महसूस कर रह था संबंधो की उस विशेष गरमाहट को , रसोई में अनवरत बनती ,खौलती चाय के मध्य आमा रोते हुए गले लगा के हर एक रिश्तेदार से मिल रही थी... घंटी, शंख की आवाज , धूप-अगरबत्ती और तलते पकवानों की भीनी महक और पंडितजी के मंत्रोचारण के बीच आज हर रिश्ता कितना मुखर हो रहा था ...पिताजी सफ़ेद धोती-कुर्ता और गाँधी टोपी धरे , माँ रेशम की लाल साड़ी , बड़ी सी नथ और परम्परागत कुमाऊँनी पिछौड़ा पहने , और दीदी हल्दी और मंगल स्नान के बाद कितने दिव्य लग रहे थे ....

बारात गेट पे पहुँच ही गई , और हम अब भी चप्पल पहने दौड़ दौड़ हर किसी की फरमाईशो को पूरा करने में लगे हुए थे, हलवाई ने मैदे के लिए दौड़ाया ,तो भईया ने प्रेस के लिए, रसोई में गैस सिलंडर ख़त्म होने पे चाची चिल्लाई तो , टंकी में पानी खत्म होने की बात मामा ने बताई, मौसी को हल्दी नहीं मिल रही थी तो पिताजी को दुल्हर्ग के लिए लाई गई पंडितजी की अटैची , एक माँ ही शांत थी और हौंसला बढाने के लिए पीठ थपथपा देती और खाने पीने के लिए हरदम पूछती रहती ...

जैसे तैसे हम भी तैयार हो इस पाणिग्रहण संस्कार में सम्मलित हो ही गए ....कन्यादान के समय माँ-पिताजी अश्रुपूर्ण नेत्र कितना कुछ कह रहे थे और वर से इस महादान के उपरांत कितनी आशायें व अपेक्षायें अपने दिल में संजोये हुए थे ...कन्यादान के बाद तुरंत ही उनका विवाह मंडप से उठ जाना और फेरो में भाग न लेना क्या उन्हें ये जता रहा था कि बेटी अब वाकई पराई हो गयी है ...
बड़े भईया द्वारा गिराए जा रहे खीलों और होते फेरो के मध्य वरपक्ष के लोगो की चुहलबाजी चल रही थी पर मेरा मन कुछ अशांत सा था .. दूर अन्दर के कमरे से माँ की सिसकियो की धीमी आवाज मेरे कानो में पड़ रही थी .... घर के इसी आँगन में खेली कूदी बड़ी हुई लाडली अब एक नए रिश्ते में बंध, एक नयी पहचान लिए दूर जो जा रही थी ....

सुबह हुई और विदाई का समय आ ही गया , माँ का रो-रोके बुरा हाल था ,सब लोग समझाने बुझाने में लगे थे , पिताजी बारातियों को हमारे कुल ब्राह्मण उपाध्यायजी के साथ टीका करने में व्यस्त थे और सभी से हाथ जोड़ किसी भी भूल-चूक के लिए क्षमा करने के लिए कह रहे थे ...

छोले-भठूरे ,दही जलेबी और मूंग के दाल के हलवे वाले नाश्ते का लुत्फ़ उठाते लोगो के मध्य टेंट हाउस वाले अपना सामान समेट रहे थे .... और जैसे ही नब्बू बैंड वाले ने अपनी तुरतुरी पे बाबुल की दुआये लेती जा की धुन लगाई माहौल एकाएक से और भी ग़मगीन हो गया .... दीदी माँ-पिताजी से लिपटकर के फफक-फफक के रो रही थी और मै रंगीन छाता जीजाजी के सर के ऊपर रख अपनी आँखों में अश्रुओं के उमडते सैलाब को रोकने की पुरजोर असफल कोशिश कर रहा था...

शाम होते होते सारे मेहमान जा चुके थे और मेरे सम्मुख चीजो को लौटने का विकराल कार्य पड़ा था .......



Friday 2 January 2015

चेहरे पे कई चेहरे देखे

चेहरे पे कई चेहरे  देखे
हिसाब -ए -जरुरत
रंग बदलते देखे

हर बार ही, कितना टूटा  मै
बेहसी के इतने मंजर देखे


 उनको  ही रही शिकायत हमसे
हम जो अपनी ही चीज  मांग बैठे …