Wednesday 24 December 2014

शरीर रचना विज्ञान – Anatomy.. मुझे इससे दुरूह शायद ही कोई अन्य विषय अपने जीवन में लगा हो . MBBS के आरंभ के वो डेढ़ साल और उसके बाद अन्य परीक्षाओं की तैयारी में इससे जूझने के दिन याद कर आज भी बदन में सिहरन हो उठती है … खुद के शरीर की बनावट के बारे जानना वाकई बड़ी टेढ़ी खीर है ..
किसी भी नयी चीज की शुरुआत हमेशा जोश से ही होती है और अंत हमेशा ही कितना समेटने वाला... Gray, Snell, Mc Greger, Cunningham ,BDC, senior के notes, Yadav, microstat और अंत में ईश स्तुति तक के इस रोमांचकारी सफ़र को चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन करने वाले विद्यार्थी से बेहतर भला और कौन जान सकता है 
आज भी जेहन में DH(Dissection Hall ) में पहली बार घुसने के उस विशेष दिन की यादें एकदम तारोंताज़ा है ,वो विशालकाय कक्ष, वो बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ, वो बड़े-बड़े खम्बो के मध्य फर्श से दृढ़तापूर्वक जुडी स्टील की चमकदार सतह वाली वाली मेजें और उनके ऊपर ऊँची छत से लम्बे-लम्बे पाईपो से नीचे लटकते वो पंखे, वो tube light, वो सरकाने पे ची-ची की ध्वनि उत्पन्न करते, मेजों को चारो ओर से घेरे हुए धातु के बने स्टूल...
चिरनिंद्रा में लीन वे दिव्य शरीर जो प्रारंभ में थोड़ा डराते, थोड़ा कौतुहल पैदा करते पर बाद् में कितना क्या कुछ नहीं सिखाते, परहितार्थ के लिए अंतिम क्रिया विहीन... ये नश्वर नहीं कितने सजीव कितने शाश्वत....
नथुने से टकराती,शरीर को अन्दर झक-झोड़ती वो तीव्र formalin की गंध पर हर पल कुछ नया देखने की उत्सुकता के आगे हमें कहां पीछे कर पाती, और धीरे-धीरे अपना अस्तित्व ही खो देती...
एक तो उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद के हिंदी माध्यम से १२ वी उत्तीर्ण करने के कारण ही अंग्रेजी में वैसे ही अपनी हालत काफी पतली थी ऊपर से इस भाषा में इस विषय के , कभी न सुने , भारी-भरकम नए- नए शब्द और जुमलों ने उसे और ज्यादा ख़राब कर दिया...
जब तक हम anterior, posterior , superior , inferior , medial , lateral , proximal और distal के भेद को समझ पाते, गाडी काफी आगे निकल जाती , पुराना हिसाब तो चुकता होता नहीं नया उधार और अपने मत्थे और चढ़ जाता. प्रोफ़ेसर साहब का अंग्रेजी भाषा की विशिष्ठ शैली में सरपट दौड़ता वो व्याख्यान पूरा का पूरा सिर के ऊपर से गुजर जाता (OHT-OVER HEAD TRANSMISSION) और हमें सोचने मजबूर कर देता ... क्या हम वही है जो कुछ समय पहले तक अपने पूर्व के विद्यालय में गुरूजी लोगो के प्रिय विद्यार्थी हुआ करते थे.…
व्याख्यान के दौरान हम lost नज़र न आयें और प्रोफेसर साहब के एकाएक बुलाने पर उन्हें अपनी संजीदगी का अहसास करा सकें इसलिए बिना कुछ समझे ही पूरी मशक्कत के साथ टीपू सुल्तान बने ब्लैकबोर्ड पे उनका लिखा अक्षर ब अक्षर चित्र ब चित्र टीपते रहते...
कुछ समझ न आता तो रट्टा मारना ही एकमात्र सहारा बनता, सहूलियत के लिए नित्य नए MNEMONICS ईजाद किये जाते पर हाय री किस्मत,जरुरत के वक्त दिमाग में मची घोंच-पोच के कारण MNEMONICS के सिर्फ letter ही याद रहते बांकी सारा माल-मसाला गायब हो जाता. शुरुआत में Gross में सुन्दर-सुन्दर चित्र बना के , उन्हें विभिन्न रंगों से सजा के अपनी क़ाबलियत दर्शा अपनी बेचारगी के अहसास को कम करने की कोशिश रहती पर बाद में वो भी बिलकुल फ़जूल लगने लगता और उसमें भी घाँस कटाई चालू हो जाती...
stage viva , part viva का बड़ा खौफ रहता और उनमें की गई कारगुजारियो और कारिस्तानियों के किस्से कितने दिनों तक हमारे बीच हंसी-ठट्ठे का सबब बने रहते...
जैसे इस विषय के हमारे सफ़र की गाड़ी आगे बढती , हर दिन इसके नए- नए आयामों से दो चार होना पड़ता और professional आते आते तीन किताबो के साथ-साथ osteology, embryology, histology , surface anatomy का ऊँचा चट्टा जूझने के लिए तैयार मिलता और हमारी हालत बद से बद्दतर हो जाती ...
खैर जैसे तैसे ,हिचकोले खाते हुए पहला prof पार हो ही गया और इस विषय से निजात पा उस समय कितना सुकूं मिला हालाँकि वो स्थाई नहीं था ...
मेडिकल के पढाई के दौरान वरिष्ठो से मिली सीखें काफी कारगर साबित हुई और उन्हें जिंदगी में आज भी उपयोग में लाता हूँ .... चाहे जैसी भी परिस्थितियां हो , बस जुटे रहो , अपना कर्म करते चले जाओ , मैदान छोड़ के कभी न जाओ . मेडिकल कॉलेज में आपकी सफलता/असफलता आपके कर्मो के साथ-साथ आपके साथियों के कर्मो पे भी निर्भर करती है , यहाँ बहुत सी चीजे एक दूसरे के सापेक्ष चलती रहती है. जवाब न मालूम होते हुए भी जवाब कैसे देना इस कला में एक मेडिको से सिद्धहस्त शायद ही कोई और हो...

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