Wednesday 31 December 2014

कड़ा अनुशासन , संस्कारों की हरदम पिलाई जाने वाली घुट्टी , और सिर्फ और सिर्फ पढाई पे जोर.… कुछ ऐसा ही था ना हमारा बचपन ... घर में लकड़ी के शटर वाला ब्लैक एंड वाइट टीवी तो था पर देखने पर जबरदस्त राशनिंग थी , समाचार के समय खुलता और एक धारावाहिक ख़तम होने पे बंद हो जाता , स्कूल खुले होने पे चित्रहार देखने की मनाही थी अगर गलती से ऐसा करते हुए पकडे जाते तो तुरंत ही लक्षण अच्छे न होने का ताना मिल जाता और साथ ही मिलता बम्बई जाकर हीरो बन जाने का चुभता सा परामर्श...
घर में कोई फ़िल्मी पत्रिका न आती थी , इतवार को बाल कटाते समय नाई की दुकान की मायापुरी/पंजाब केसरी अख़बार ही मायानगरी की मसालेदार खबरों को जानने का जरिया बनते , यदा कदा इंडिया टुडे आ जाती थी पर उसमें लिखे अधिकांश लेख बड़े नीरस लगते , अंतिम पन्ने पे ही दिलचस्पी होती इसलिए हमेशा उसे पीछे से ही खोला जाता, किशोरावस्था में अन्तःस्रावी ग्रंथियों का प्रचुर मात्रा में होता स्राव मस्तिष्क कितनी जिज्ञासाएँ उत्पन्न करता और प्रेरित करता कुछ दुःसाहस करने के लिए.… दूरदर्शन में शुक्रवार देर रात्रि आने वाली फिल्म को चुपके से देखने का सफल/असफल प्रयत्न इसी श्रेणी में आता .… 
घर में सबसे छोटे होने का फायदे से ज्यादा मुझे नुक्सान लगा , हालांकि माँ-पिताजी का खूब स्नेह भी मिला और भाई -बहनो से होने वाले झगड़ो में अनुचित लाभ भी पर हर बार पढाई में उनसे होने वाली तुलना अंदर तक कुढ़ा देती और हीनता का यह अहसास और प्रबल हो जाता जब स्कूल में गुरूजी लोग भी आपके सम्मुख उनकी प्रशंसा करते नहीं थकते... उनकी सफलतायें मेरे लिए प्रेरणा न होके एक चुनौती बन जाती और खुद को साबित करने की जिद्द और फितूर लिए देर-सबेर हम भी कूद ही जाते बिलकुल भी न भाने वाले इस पठन-पाठन के इस कार्य में.…
खैर हम भी पहुँच ही गए GSVM KANPUR, नाकामयाबी की गठरी सिर उतार सफलता की अटैची हमारे हाथो में थी और दिल में था बहुत सारा सुकून। आमा (दादी ) की देहावसान के कारण पिताजी क्रिया में बैठे थे इसलिए उनका एडमिशन के लिए कानपुर जाना संभव न था अतः ये जिम्मेदारी ली बड़े भईया ने ...
जनता एक्सप्रेस से लखनऊ पहुँच आगे का सफर उत्तर प्रदेश रोडवेज की बस से तय हुआ , इससे पहले भइया भी कभी कानपुर नहीं आये थे इसलिए ये शहर हम दोनों के लिए नया था , जाते समय पिताजी अपने हम सबके परिचित दुबेजी का पता दे दिया था और हम खोजते-खोजते उनके घर पहुँच ही गए.…
प्रवेश की औपचारिकता पूरी करने के बाद जद्दोजेहद शुरू हुई रिहाइश की.… हमारे समय बॉयज हॉस्टल -५ (BH -5 ) नहीं था , प्रथम वर्ष के विद्यार्थी को अपने रहने का इंतज़ाम कॉलेज से बाहर खुद ही करना पड़ता था , आने-जाने , खाने पीने की सैकड़ो दिक्कतें होती और हम जैसे मध्यमवर्गी परिवार से आये लोगो के लिए ये वित्तीय संकट भी उत्पन्न करता था.…
इन सब के बीच घर से दूर स्वतंत्र माहौल ने हमें पंख दिए , दबी ख्वाहिशें बाहर निकल पूरी होने लगी , यह खुद से प्रयोग करने का समय था, वयस्क होने का नया-नया अनुभव था , पहले निषेध सी लगनी वाली चीजे अब कितनी सहज थी , सुबह की चाय से लेकर रात में सोने के समय के सुट्टे तक की हर चीज एक नयापन और ताजगी लिए थी , पहली बार रोजमर्रा के अपने निर्णय खुद लेने का वो अहसास कितना सुखद था..
बाहर रहने की परेशानियों के मध्य पहचान के वरिष्ठों से college हॉस्टल में आकर रहने का आदेश निहित प्रस्ताव प्राप्त हुआ। उन्होंने अपने संबंधो के बलबूते एक tetra (बड़े से कमरे) का जुगाड़ BH-1कर दिया था, नवागुंतक होने का डर, बाहर रहने की रोज की होती दुश्वारियो के आगे कितना छोटा नज़र आने लगा और हम अपना बोरिया-बिस्तर समेंट के आंखिरकार छात्रावास आ ही गए.…
नए बनते संबध पुराने सबंधो के छूटने के कमी को काफी हद तक पूरी कर रहे थे और हम तल्लीन थे खुद की खोज में...

Monday 29 December 2014

कहते है नाम मे क्या रखा ? अजी सिर्फ कहते ही है, असल में नाम में ही तो सबकुछ रखा है , जिसे देखो वो ही तो brand conscious है , brand की चेपी चिपकने से फालतू सी लगने वाली चीज भी अमूल्य है.… लोग बिना कुछ सोचे समझे उसके पीछे दौड़े चले जाते है.... एक भेड़ चाल है सब आँखे मूंदे चल रहे है ,पीछे चलने वाली भेड़ो को मालूम ही नहीं कि आगे चलने वाली भेडे गड्डे में गिर रही है और जो गड्डे में गिर रहीं वो चाप खुद को झाड पोझ के पतली गली से निकल लेती है , दूसरो को कुछ भी बताने की जहमत ही नहीं उठातीं...
'PK' को देखने के बाद कुछ ऐसा ही महसूस हुआ … मुन्ना भाई MBBS , लगे रहो मुन्ना भाई और थ्री इडियट्स जैसी बेहतरीन फिल्म बनाने वाले राजकुमार हीरानी की इस फिल्म से हमने कुछ ज्यादा ही उम्मींदे लगा रखी थी.…
पूरी फिल्म बिखरी -बिखरी नज़र आई , बहुत कुछ कहने की कोशिश में कुछ भी न कह पाई और मुझे पूरी फ़िल्म में यही इन्तेजार रहा कि अब कुछ अच्छा नज़र आएगा …
विषय वाकई उम्दा उठाया गया था पर कहने का ढंग बिलकुल ही अप्रभावी लगा , बहुत से मौको पे फिल्म की कहानी अपने व्यावसायिक हितो को साधती नज़र आयी, मसलन आमिर का एलियन होना , उसका भोजपुरी बोलना , शुरू और अंत में प्रेम कहानी में पाकिस्तानी ऐंगल होना आदि...
कुछ पुराने चुटकुलो से प्रेरित और कुछ न पचने वाले (DANCING CAR ) सन्दर्भ लिए कहानी मौलिकता और विश्वसनीयता से कोसो दूर भटकती नज़र आई.कई श्रेष्ठ कलाकारों से सजी होने के बावजूद आमिर के अलावा किसी को कुछ करने को मिला ही नहीं , बोमन ईरानी ने पता नहीं क्यों की.… पिछला कर्ज या फिर आगे का जुगाड़ लगाना शायद उनके दिमाग में रहा हो...
मै हिन्दू हूँ , पढ़ा लिखा हूँ , मेरा धर्म , मेरी आस्था, मेरा विषय है , अन्धविश्वासी नहीं हूँ पर रोज के होते कई क्रियाकलापों और रीतिरिवाजों को मैं अपने जीवन का अभिन्न अंग मानता हूँ और इस तरह से जीने का तरीका ही मुझे काफी हद तक उदार दिल और सहिष्णु बनाता है.…
जीवन के इस पड़ाव पे केवल चुनिंदा फिल्म देखने वाला मैं आगे से हीरानी साहब की किसी भी फिल्म को पैदा की कई कृत्रिम hype में बह के तो कम से कम देखने तो नहीं जाऊंगा...

मेरी नजरों में परेश रावल और अक्षय कुमार अभिनित ‘OH MY GOD’ इस विषय पर इससे लाख दर्जा बेहतर फिल्म है ...

Wednesday 24 December 2014

शरीर रचना विज्ञान – Anatomy.. मुझे इससे दुरूह शायद ही कोई अन्य विषय अपने जीवन में लगा हो . MBBS के आरंभ के वो डेढ़ साल और उसके बाद अन्य परीक्षाओं की तैयारी में इससे जूझने के दिन याद कर आज भी बदन में सिहरन हो उठती है … खुद के शरीर की बनावट के बारे जानना वाकई बड़ी टेढ़ी खीर है ..
किसी भी नयी चीज की शुरुआत हमेशा जोश से ही होती है और अंत हमेशा ही कितना समेटने वाला... Gray, Snell, Mc Greger, Cunningham ,BDC, senior के notes, Yadav, microstat और अंत में ईश स्तुति तक के इस रोमांचकारी सफ़र को चिकित्सा विज्ञान का अध्ययन करने वाले विद्यार्थी से बेहतर भला और कौन जान सकता है 
आज भी जेहन में DH(Dissection Hall ) में पहली बार घुसने के उस विशेष दिन की यादें एकदम तारोंताज़ा है ,वो विशालकाय कक्ष, वो बड़ी-बड़ी खिड़कियाँ, वो बड़े-बड़े खम्बो के मध्य फर्श से दृढ़तापूर्वक जुडी स्टील की चमकदार सतह वाली वाली मेजें और उनके ऊपर ऊँची छत से लम्बे-लम्बे पाईपो से नीचे लटकते वो पंखे, वो tube light, वो सरकाने पे ची-ची की ध्वनि उत्पन्न करते, मेजों को चारो ओर से घेरे हुए धातु के बने स्टूल...
चिरनिंद्रा में लीन वे दिव्य शरीर जो प्रारंभ में थोड़ा डराते, थोड़ा कौतुहल पैदा करते पर बाद् में कितना क्या कुछ नहीं सिखाते, परहितार्थ के लिए अंतिम क्रिया विहीन... ये नश्वर नहीं कितने सजीव कितने शाश्वत....
नथुने से टकराती,शरीर को अन्दर झक-झोड़ती वो तीव्र formalin की गंध पर हर पल कुछ नया देखने की उत्सुकता के आगे हमें कहां पीछे कर पाती, और धीरे-धीरे अपना अस्तित्व ही खो देती...
एक तो उत्तर प्रदेश माध्यमिक शिक्षा परिषद के हिंदी माध्यम से १२ वी उत्तीर्ण करने के कारण ही अंग्रेजी में वैसे ही अपनी हालत काफी पतली थी ऊपर से इस भाषा में इस विषय के , कभी न सुने , भारी-भरकम नए- नए शब्द और जुमलों ने उसे और ज्यादा ख़राब कर दिया...
जब तक हम anterior, posterior , superior , inferior , medial , lateral , proximal और distal के भेद को समझ पाते, गाडी काफी आगे निकल जाती , पुराना हिसाब तो चुकता होता नहीं नया उधार और अपने मत्थे और चढ़ जाता. प्रोफ़ेसर साहब का अंग्रेजी भाषा की विशिष्ठ शैली में सरपट दौड़ता वो व्याख्यान पूरा का पूरा सिर के ऊपर से गुजर जाता (OHT-OVER HEAD TRANSMISSION) और हमें सोचने मजबूर कर देता ... क्या हम वही है जो कुछ समय पहले तक अपने पूर्व के विद्यालय में गुरूजी लोगो के प्रिय विद्यार्थी हुआ करते थे.…
व्याख्यान के दौरान हम lost नज़र न आयें और प्रोफेसर साहब के एकाएक बुलाने पर उन्हें अपनी संजीदगी का अहसास करा सकें इसलिए बिना कुछ समझे ही पूरी मशक्कत के साथ टीपू सुल्तान बने ब्लैकबोर्ड पे उनका लिखा अक्षर ब अक्षर चित्र ब चित्र टीपते रहते...
कुछ समझ न आता तो रट्टा मारना ही एकमात्र सहारा बनता, सहूलियत के लिए नित्य नए MNEMONICS ईजाद किये जाते पर हाय री किस्मत,जरुरत के वक्त दिमाग में मची घोंच-पोच के कारण MNEMONICS के सिर्फ letter ही याद रहते बांकी सारा माल-मसाला गायब हो जाता. शुरुआत में Gross में सुन्दर-सुन्दर चित्र बना के , उन्हें विभिन्न रंगों से सजा के अपनी क़ाबलियत दर्शा अपनी बेचारगी के अहसास को कम करने की कोशिश रहती पर बाद में वो भी बिलकुल फ़जूल लगने लगता और उसमें भी घाँस कटाई चालू हो जाती...
stage viva , part viva का बड़ा खौफ रहता और उनमें की गई कारगुजारियो और कारिस्तानियों के किस्से कितने दिनों तक हमारे बीच हंसी-ठट्ठे का सबब बने रहते...
जैसे इस विषय के हमारे सफ़र की गाड़ी आगे बढती , हर दिन इसके नए- नए आयामों से दो चार होना पड़ता और professional आते आते तीन किताबो के साथ-साथ osteology, embryology, histology , surface anatomy का ऊँचा चट्टा जूझने के लिए तैयार मिलता और हमारी हालत बद से बद्दतर हो जाती ...
खैर जैसे तैसे ,हिचकोले खाते हुए पहला prof पार हो ही गया और इस विषय से निजात पा उस समय कितना सुकूं मिला हालाँकि वो स्थाई नहीं था ...
मेडिकल के पढाई के दौरान वरिष्ठो से मिली सीखें काफी कारगर साबित हुई और उन्हें जिंदगी में आज भी उपयोग में लाता हूँ .... चाहे जैसी भी परिस्थितियां हो , बस जुटे रहो , अपना कर्म करते चले जाओ , मैदान छोड़ के कभी न जाओ . मेडिकल कॉलेज में आपकी सफलता/असफलता आपके कर्मो के साथ-साथ आपके साथियों के कर्मो पे भी निर्भर करती है , यहाँ बहुत सी चीजे एक दूसरे के सापेक्ष चलती रहती है. जवाब न मालूम होते हुए भी जवाब कैसे देना इस कला में एक मेडिको से सिद्धहस्त शायद ही कोई और हो...

Friday 19 December 2014

GSVM कानपुर में   इन्टर्नशिप से पहले का समय काफी हसीन गुजरा , हालाँकि तालीम की कई दुश्वारियां थी ,आये दिन होने वाले इम्तिहान आप को अन्दर तक चूस लेते थे , लम्बे अरसे तक  सिर  उठाने और खुलके सांस लेने से महरूम रखते थे पर इनका भी अपना अलग ही मज़ा था , ये आपके धैर्य और सामर्थ्य को अच्छी तरह परखते थे और इनके उपरांत होने वाले  वे  विशेष “आनंदोत्सव” जिसमें आप अपनी समस्त वर्जनाओ को तोड़ खुद को व्यक्त करते थे , सभी को  प्रफुल्लित और पोषित कर अगली चुनौती के लिए फिर से तैयार कर देते थे  ...

UG में पढाई के अलावा अन्य कोई  विशेष चिंता नहीं होती थी , और तमाम कोशिशे रहती थी  उन अदद ५० प्रतिशत नम्बरों की ...अंतिम समय में होने वाला वो अपार श्रम, विरोधियो द्वारा जकड़े हुए उस कबड्डी के खिलाडी की दशा को बयां करता  था जो सांस रोके हुए उस  सफ़ेद लकीर को छूने के लिए  अपना सर्वस्व दाव पे लगा देता है...

इन्टर्नशिप की इससे  अलग बड़ी ही अजीब व्यथा थी , एक तो final prof के लंम्बे ३ महीने तक चलने वाले exam आपके अन्दर तक निचोड़ कर रख  देते  थे ठीक उस crusher की तरह जो गन्ने का समस्त रस निकल कर केवल सूखी खोई ही छोड़ देता है और दूसरा PG entrance exam की विकराल चुनौती मुँहबाय सामने खडी हो जाती थी जो  हम जैसे अधिकतर महानुभावों की हालत दुबले पे दो  आषाढ वाली कर देती   थी ....

अपने इंजिनियर साथियों की निरंतर लगती अच्छी नौकरियां , स्कूल की साथ पढी लडकियों की होती शादियाँ, पड़ोसियों के वो  पड़ताली सवाल , माँ-पिताजी भाई-बहनों की हम से महत्त्वकांक्षाएँ, अपना अधर में लटका भविष्य, और निरंतर बढ़ती उम्र , सब एक साथ मिश्रित हो अपने भीतर बड़ी ही खीज उत्पन्न करते थे ...

लोगों की नज़र में डॉक्टर बन जाते थे पर अपनी  हकीकत से सिर्फ हम ही वाकिफ होते थे ...

सीमित अवसर ,प्रबल प्रतिस्पर्धा और खुद को दूसरे से बेहतर साबित करने की सोच आपसी संबंधो को पुन: परिभाषित  करती थी , पुराने टूटते थे और नए गठजोड़ बनते थे , साथी अब प्रतिद्वंदी सरीखे नज़र आते थे , बहुत कुछ गुपचुप तरीके से होता था और मन और कर्म  न चाहते हुए भी बहुत कुछ हद तक स्वार्थी हो जाते  थे ...

कुछ हम जैसे लोग जिन्हें अपना लक्ष्य साफ़-साफ़ नजर नहीं आता था एक अजीब उधेड़बुन में लिप्त रहते थे , सेना में जाना , PMS की नौकरी , दिल्ली की HOUSE JOB, या फिर अगले साल पूरी मशक्कत से फिर तैयारी की सोच के मध्य मन कितना चलायमान होता था पर  एक बात तो बिलकुल तय थी हम किसी  के लिए कोई खतरा/प्रतिस्पर्धा  उत्पन्न नहीं करते थे इसलिए हमारी लोकप्रियता अक्षुण बनी रहती थी...

इस दौरान कई कक्ष-सहयोगियों की जोड़ियाँ टूटती, अपने समीकरणों के  हिसाब से लोग अपनी तैयारी को अंजाम देते थे ,college से इन्टर्नशिप करना अधिकतर लोगों को नहीं भाता था , क्योंकि यहाँ कार्य करने की बाध्यता थी , सब को तलाश रहती थी एक ऐसे जगह की जहाँ जाना न पड़े और  बिना किसी व्यवधान के प्रचुर मात्रा में समय मिले उन वस्तुनिष्ठ प्रश्नों से जूझने के लिए...

PG entrance exam   देने के लिए जाना किसी उत्सव से कम न होता था , महीनो पहले से रेल टिकट अरक्षित  करा लिया जाता था , रुकने की जगह तय कर ली जाती थी , और एडमिट कार्ड आते ही परीक्षा केंद्र  की खोज-खबर आरंभ हो जाती थी... अनेको अनिश्चिताओं के मध्य स्वयं को धैर्य और दिलासा देते हुए ये सफ़र भी तय हो ही जाता था...

परीक्षा से एक दिन पूर्व ही उस शहर में पहुँच लिया जाता था , और शाम  को परीक्षा केंद्र की recci करने के उपरांत अगला कदम होता था उन रिश्तेदार को (जिनके घर फ़िलहाल आप शरण लिए हुए हो)   यह समझाना की आप डॉक्टर बनने के बाद ये कौन सी परीक्षा दे रहे हो और इससे क्या होंगा ... बहुत से  लोग इस बेचारगी से बचने और एकाग्रता के लिए रिश्तेदार के घर को छोड़ किसी सस्ते, मद्दे और टिकाऊ होटल की शरण ले  लेते थे...

परीक्षा केंद्र में बड़ा ही कब्जियत (constipated) वाला माहौल  होता था , अनेको नए पुराने चेहरे नज़र आते थे , अभिवादन तो होता था पर शायद दिल से नहीं , क्या साथी , क्या वरिष्ठ,क्या कनिष्ठ .... हर एक उपस्थित जन यहाँ सिर्फ एक  प्रतिद्वंदी होता था... अपनी श्रेष्ठता को सिद्ध करने की राह  में एक अवरोध ... कई काफी पुराने सीनियर्स को यहाँ देख हर्ष और अफ़सोस  की मिश्रित सी अनुभूति होती थी ... और वो भी भरसक कोशिश करते, नज़र मिल जाने पर भी नज़र चुराने की ...

खैर कई सालो की अथक मेहनत का मूल्यांकन हमारी रिवायती व्यवस्था द्वारा उन चंद घंटो में कर लिया जाता  और  योग्यता को  परखने की इस प्रणाली पर हर दिन उठते  आरोपो- प्रत्यारोपो,  अपने द्वारा attempt किये गए सही-गलत सवालो की प्रतिदिन होती गणना के   मध्य सबको इंतज़ार रहता था रिजल्ट वाले दिन का जो अक्सर ही विलम्ब से ही  आता था.…

आंखिरकार वो बहुप्रतीक्षित दिन भी आ ही जाता था , किसी को बहुत कुछ मिलकर भी मलाल रहता तो किसी को सिर्फ पार पा जाने की बेतहाशा   ख़ुशी, किसी की सफलता घनघोर शक के दायरे में होती थी तो  कई छुपे रुस्तम वाकई में सबकी प्रशंसा के पात्र होते थे. हर्ष और मातम के मध्य एक चीज का होना तो बिलकुल तय था और वो थी ‘दारू पार्टी’... hostel wing में उसदिन  बहती अविरल मदिरा की  धारा का  सबसे ज्यादा लुत्फ़ लेने वाले जूनियर्स ही होते थे ....

सफलता का जश्न थोडे दिनों का ही होता है ... बड़ी सफलता कुछ अरसे बाद बड़ा निर्वात भी लाती है और इसका अहसास तब तक रहता है जब तक आप फिर से किसी नई जिम्मेदारी मे मसरूफ नहीं हो जाते ....

ये नहीं होता तो वो होता , थोड़ी  कसक और कई क्रमचय और संयोजन (permutation and combination) लिए  मन आज भी  कितना सोचने पे मजबूर हो ही जाता है ..... :)

Saturday 13 December 2014

बहने कितना जुड़ी रहती परस्पर
अपनी क्षमताओं से अधिक 
एक दूसरे के लिए
करने को रहती तत्पर

ससुराल देता पहचान नयी
महक सारी बाबुल के आँगन की  लेकर

पर ये  पोषित करती रहती
हर एक सम्बन्ध
नए-पुराने का अंतर खोकर

जब तक माँ तब तक पीहर
ये बात समझती बेहतर

जब भी मिलती
चहकती भोर की चिड़यों जैसी
नहीं दिखता इनमें कोई अंतर

बहने कितना जुड़ी रहती परस्पर






Tuesday 25 November 2014

ओहदों ने तकल्लुफ बड़ा दिए

ओहदों ने तकल्लुफ बड़ा दिए
हमप्याले , हमनिवाले  भुला दिए 

एक होड़ से लगी रही , हम सबके दरमियाँ 
पास रह  के भी, फांसले बड़ा लिए 









the wall... :)

बुद्धू बक्से पे एक विज्ञापन देखा तो यूहीं ख्याल आया कि बचपन में हमारी टीचर ने तो कभी हम से दीवार पे निबंध लिखने के लिए कहा ही नहीं , उनको दीपावली , अगर मै प्रधानमंत्री होता , विज्ञान वरदान है या अभिशाप , मेरा प्रिय मित्र , जनसंख्या वृद्धि , हमारा पर्यावरण आदि रिवायती शीर्षकों के अलावा कुछ ऐसा अलग हट के सूझा ही नहीं , और हम सब महरूम रह गए एक इतने महत्वपूर्ण विषय पर अपने विचार रखने से ...
तब रह गए सो रह गए , अब कर लेते है , इसमें हर्ज ही क्या है ?
१० वी कक्षा तक जिस विद्यालय में पढ़े उसकी दीवारे ज्यादा ऊँची नहीं थीं , घंटे गोल (class bunk) करने के लिए उन्हें आसानी से फांदा जा सकता था , बार- बार फांदने की जहमत से बचने के लिए दूर झाड़ी के पीछे उसमें एक बड़ा सा छेद भी बना लिया था जिससे आर-पार बिना किसी दिक्कत के आया -जाया जा सकता था....
दसवी के बाद विद्यालय बदल गया ,नये विद्यालय की दीवारे किलेनुमा ऊँची-ऊँची थी , ऊपर से जवानी के जोश को रोकने के लिए प्रधानाचार्य और स्कूल प्रबंधन ने उन पर लोहे का कांटेदार तार और कांच लगा के रखा था ... पर हम लोग कहाँ रुकने वाले थे? ... न जाने कितनी पतलूने और बुशर्ट इनको फांदने में शहीद हुई ...
चुनौती जितनी बड़ी शरारत का मजा उतना ही ज्यादा .....
किशोरावस्था परिणामो की चिंता कहाँ करती है ? , उसकी नज़र तो हमेशा ऐसा कार्यो को करने के उपरांत होने वाले उस तात्कालिक आनंद पर ही होती है और वो ही अनुभूति उसे बार-बार ऐसा करने को प्रेरित भी करती है ....
साधनविहीन बड़ा ही जुगाडू प्रवृति का होता है , दीवार पे ईंट की लालिमा या फिर कोयले की कालिख से विकेट बना लिया जाता था , इसके कई फायदे थे ... एक तो किसी को विकेट कीपर नहीं बनना पड़ता था और दूसरा दीवार पे पड़े गेंद के टप्पे का ताजा निशान ही हमारा instant थर्ड-अम्पायर होता था ....
स्कूल की ड्रेस अक्सर कक्षा की दीवारों का आलिंगन पा झड़ते चूने से रंग जाती थी और उसको साफ़ करने के बहाने अपने सहपाठियों पे हाथ सेकने का मजा ही कुछ और था ,
शौचालय की दीवारों पे अनेको उद्गारो का वह प्रतिबंधित प्रकटीकरण हमसे निंदा तो पाता था पर न जाने क्यों बार-बार पढने को लालायित भी करता था ...
हर पल कुछ न कुछ जानने को आतुर बाल मन में कोई निषेधित बात कितनी सारी उत्सुक्ताओ को एक साथ जन्म दे देती है और उनका समुचित निराकरण कई बार अभिभावकों के लिए कितना बड़ा यक्ष प्रश्न बन जाता है ....
दीवार की आड़ का कितना सहारा होता था , उसको पीछे छिपकर किये गये वो अनगिनत कार्य और उनको पहली बार करने का वह रोमांच आज भी एक दम तरोंताजा है ....
उस विज्ञापन से अलग मुझे अपने बचपन की हर दीवार एक दम साफ़-साफ़ नज़र आती है... और हाँ सारी दीवारे सीमेंट की नहीं बनी थी कुछ सुर्खी-चूने की भी थी ....

Thursday 20 November 2014

उच्चारित कुछ  शब्द 
अपने मूल अर्थो से कितने पृथक 
प्रस्फुटित तत्काल अकारण ही 
कितना क्षोभ, कितनी भावनाए … 


कितनी देर तक 
विचलित होते तुम और मै 
उधेड़ते न जाने कितने 
पूर्व-कथन और क्रियाएँ 

और किसी निष्कर्ष पे पहुंचे बिना 
पटाक्षेप होता एक और विवाद 
अपनी-अपनी त्रुटियों को कर स्वीकार 
हर दिन प्रगाढ़ होता ये सम्बन्ध,,,









Wednesday 24 September 2014

स्वस्थ परंपरा का निर्वाहन मानव जीवन की अमूल्य निधि है और आज इसी का निर्वाह हो रहा है , Prof की इस पूर्व संध्या पे सभी वरिष्ठ अपने हाथो में  कुछ न कुछ लिए हुए, शुभकामनाएँ व्यक्त करने हेतु  अपने कनिष्ठों के कक्षों की ओर अग्रसर हैं , तनाव से संतृप्त हो चुके इस BH में थोड़ी देर  के लिए ही सही मौज-मस्ती की बयार फिर से चलने लगी है , फिर से चुहलबाज़ी आरम्भ है.

तनाव मुक्त रहने और exams को फोड़ देने की बातो -अश्वाशनो के बीच Study table पर मिष्ठान , पान , चॉक्लेट , सिगरेट , पान मसाले , फ्रूटी , कोल्ड ड्रिंक्स आदि का अम्बार लग गया है .... साफ़, स्पष्ट और बड़ा सन्देश एक ही है  - प्रश्नपत्र में पूछा गया कोई भी प्रश्न निरुत्तर नहीं छोड़ना है, आता हो तो कायदे से लिखो  और अगर नहीं आता हो तो और भी  कायदे से..... प्रश्न छोड़ देना ही असफलता की पहली निशानी है -ये बात कतई गाँठ बाँध के रख लो.....

इस रात की सुबह नहीं , हमेशा रौनको से गुलज़ार रहने वाला यह छात्रावास , फ़िलहाल संजीदा है , सभी लोग अपनी रणनीति के अनुसार पढाई या अन्य किसी कारगुजारी में तल्लीन है , कोई सुबह जल्दी उठने के भरोसे alprax खा के जल्दी सो गया है तो कुछ योद्धा अभी भी डटें हुए है , सब कुछ समेट के ही सोयेंगे , सुबह जल्दी उठने का जोखिम नहीं लिया जा सकता... अगर न उठ पाये तो.....???? :)

सूर्यादय से पहले ही कई लोग जग चुके है , कमरे से चाय , कॉफ़ी बनने की महक व आवाजें आ रही हैं , परस्पर जाहिल आचरण करने वालो में आज सभ्यता अपने चरम पे है , एक दूसरे की जरूरते पूछी जा रही है  और उनका यथा संभव तुरंत निराकरण भी हो रहा मोहन प्यारे हाथ coffee Mug थामे  मुझे देने मेरे पास आये और मै लबो पे दबी सिगरेट और हाथो में थामी रंगीन -पुती और underlined किताब होने के वजह से उन्हें अपने नेत्रों के माध्यम से अपनी कृतज्ञता व्यक्त कर रहा हूँ  और साथ ही साथ अपनी दयनीय स्थिति भी...

नाश्ता समय से कमरे पे ही आ गया है , राजमन को मालूम साहब लोगो के दुर्दिन चल रहे है , गलती की सुई की नोक के बराबर भी गुंजाइश नहीं.पराठा जल्दी से गोल कर के निगल लिया गया है , चाय आधी ही पी  और आधी छोड़ दी गयी है.और दिनों इत्मीनान से घंटो में होने वाला काम आज चंद मिनटो में ही निबट गया है
जरूरते और परिस्थितियाँ  मानव को कितना कार्य कुशल बना ही देती है , श्रम की सीमा तो व्यक्ति और शरीर तय कर देता है  पर आलस्य तो विकराल है , विशाल  है , सिंधु  सदृश्य ....

अपने-अपने  असलहो  (पेन-पेन्सिल ,स्केच पेन , मार्कर्स  और कई कीन कुमारो की ये फेहरिस्त कुछ ज्यादा ही लम्बी है ) को समेट सभी  योद्धा युद्धभूमि (Examination Hall) जाने को अब तैयार है अनेक अनिश्चताओ को अपने जेहन में लिए हुए .

हॉस्टल के गेट पे उत्सव सा माहौल है , जूनियर्स टीके की थाली लिए हुए पूरे जोशो-खरोश  के साथ  मौजूद है , आते- जाते सीनियर्स भी रुक गए है तो कुछ ऊपर की wing से नीचे झांक रहे है .… सभी योद्धाओ (परीक्षार्थियों  ) ललाट  पे अंगूठे से अक्षत युक्त  तिलक लगाया जा रहा है,"यावत गंगा कुरुक्षेत्रे " का मंत्रोच्चारण है  , विजयी भव -विजय भव का शोर गुंजायमान है  और साथ के साथ कॉलेज आरम्भ होने के समय से चलते आ रहे MKB के नारे भी समस्त गुरुवर  लोगो का स्मरण है , कुछ को तो हिचकियाँ अवश्य ही आ रही होंगी ...

हमारी हर स्वस्थ प्रथा के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक कारण  अवश्य है..... अंत समय तनाव से निजात दिलाने का इससे उत्कृष्ट उदहारण मैंने आज तक नहीं देखा , अब उल्लास, डर पे हावी है .... सारी आशंकाओ का अब समाधान सा प्रतीत हो रहा है , विषाद खत्म.हो चुका है ... अब जो भी होगा देख लेंगे की  सोच के साथ हम सभी अपने गंतव्य यानी  परीक्षा कक्ष की तरफ प्रस्थान कर रहे है.

चूँकि ये लिखित परीक्षा है अतः समस्त बालक परीक्षार्थी जो मन आया वो पहन के आये है , बाल बिखरे और दाढ़ी बड़ी हुई है , चेहरे  पे कितने बेचारगी वाले भाव है , मस्त-मलंग दबंग आज कितने दीन-हीन और मलीन है ...
बालिकाओं में  आज जरूर एकरूपता है ....सभी apron पहन के जो आयीं हैं....

प्रश्नपत्र   बांटा जा रहा , बगल की सीट वाले सहपाठी/सहपाठिन से खुसर-पुसर जारी है , मदद के वादों के मध्य मौन भी कितना मुखर है आज , शब्द गौण है , भाव-भंगिमायें जो कितना कुछ व्यक्त कर रही है...
डर और अनेक आशंकाओ के बीच प्रश्नपत्र आंखिरकार हाथ में आ ही गया ,इष्टदेव का स्मरण कर उसको पढना चालू कर दिया है और साथ ही साथ अपनी औकात को तोलना भी ... मिश्रित से भाव है पर लगता है इससे निबट ही लेंगे।  समय और कलम की जद्दोजेहद जारी है , अपनी तो पहली कॉपी ही नहीं भरी और मेजर बाबू ने दूसरी B कॉपी मांग ली है , सोच के साथ कोफ़्त भी है के ससुरा इतनी तेजी से लिख क्या रहा है ?

मानव सबंध बड़ा ही विकट विषय है , आवश्यकता तो अविष्कार की जननी है, और समय की मांग भी यही  है इसलिए उन बालक –बालिकाओं के बीच भी आज इशारे-बाज़ी और मान-मनोव्वल जारी है जिन्होंने इससे पूर्व  शायद ही कभी आपस  राबता कायम किया हो और इससे आगे भी शायद ही करे .... खीज , हर्ष , मातम और अहमकाना हरकतों के बीच  फिलहाल कॉपी भरना जारी है ....

Invigilator अध्यापक के आंखिर पांच मिनट के चेतावनी के मध्य में अपनी उत्तर पुस्तिकाओं को नत्थी करने में मसरूफ हूँ , पर  कुछ योधाओ और वीरांगनाओ  की अंत समय की fire fighting अब भी जारी है  उन महत्वपूर्ण  ५० प्रतिशत अंको के लिए....

अगले paper  से  पहले कल एक दिन का gap है इसलिए हम साथियों का कारवां अब चल दिया है कोपरेटिव की ओर... चाय की चुस्कियो और सिगरेट के कशो के बीच अपने-अपने फैलाये गए रायते पे विचार-विमर्श करने ...
जोड़ो के गुनगुनी खिली धूप में आपस खेलते हुए कुत्ते के बच्चो को देख कितना ईर्ष्या भाव है और उनकी मस्ती के बीच अपनी हालत पे कितना तरस .... :(


Sunday 21 September 2014

फितरत वही तो

फितरत वही तो
तेरी इन तब्दीलियों को
हम क्या माने ?

दिखावट के ये खेल
कितने जाने-पहचाने

Thursday 4 September 2014

आज अनुष्ठान का दिन है , पिछला पखवाड़ा काफी व्यस्त रहा.... terminal  exams  की वजह से सर उठाने की फुर्सत ही नहीं मिली... किताबों  से फिलहाल छुटकारा  ,सांप का जन्मदिन , लकड़ी की नयी Bike , कालू के नए Double  cassette music system , और BBC को उनकी पुरानी मोहब्बत से इज़हार-ए -इश्क़ और न जाने क्या-क्या …  वजहों की एक लम्बी सी फेहरिस्त  है आज celebrate करने के लिए...न जाने कितने दिन पढाई की टेंशन में सूखे- सूखे निकल गए ...अब  हर किसी की तरबतर होने की ख्वाइश है.…

पार्टी में किसी को निमंत्रण नहीं दिया जायेगा , शोरगुल  को सुन जो अपना समझ के आ जाए उसका खैरमकदम  ,  यहाँ कोई मेहमान नहीं पर कई दिनों से बचते रहे सांप , लकड़ी, कालू  और  BBC मेजबान जरूर है .... आज की शाम और कल की सुबह तक चलने वाले इस भव्य उत्सव के खर्चे के लिए आवश्यक मुद्रा इन्ही लोगो की जेबो से निकाली जायेगी ....

Contribution आ गया है , menu तय हो चुका है , जिम्मेदारियाँ  बाँटी जा चुकी है , अब हर किसी को शाम होने का बेसब्री से  इंतज़ार है…

आज कई दिनों बिखरा हुआ कमरा समेटा जा रहा है , किताबे और गंदे कपडे किसी तरह से अलमारी में ठूंस दिए गए है , गंदी हो चुकी चादर को झाड़  के उल्टा करके फिर से बिछा  दिया है , लटकते हुए जालों को तौलिये के फटकों  से हटा दिया गया फिर भी  ये छोटे हो यत्र -तत्र ये झूलते हुए मुझे चिड़ाने की कोशिश कर रहे है ...

Study  table खाली कर दी गयी है ,  झाड़ पोंछ के  उसके ऊपर  पुराना साफ़ -सुथरा हसीनाओं की विभिन्न हसीन मुद्राओ वाला  रंगीन  अख़बार बिछा  दिया गया है , आज शाम इसे  BAR-TABLE  की पदवी से नवाज़ा जायेगा , सुरा पात्र विभिन्न कक्षों  से एकत्र किये जा रहे है ....विभिन्न- विभिन्न आकार के प्लास्टिक , चीनी मिटटी,  कांच और स्टील से निर्मित ये   कप , गिलास, कटोरी  और Coffee Mug आज अपने गठन के अंतर को खो हमारे परम  आनंद की अनुभूति का माध्यम बनने वाले है और इनमे से कुछ का शहीद होना भी तय है....

Table lamp की गर्दन को मरोड़ उसे कमरे के एक कोने में दीवार से सटा के रख दिया गया , tube light पे रंगीन पन्नी चढ़ा दी गयी है गई है , एक ,दो फोटो और चंद अगरबत्तियों  वाले अति सूक्ष्म मंदिर को साफ -सुथरे कपडे से ढक दिया गया है और और ईश्वर से क्षमायाचना  करते हुए दियासलाई की डिब्बी धीरे से जेब के  सुपुर्द  कर दी गई है.....
 आयोजन की सफतला हेतु सभी  लोग जी जान से जुटे हुए है , विभिन्न परामर्श , वाद विवाद ,रूठने , मनाने की कवायदों की बीच समय धीरे-धीरे गुजर रहा है.… वाकई आज दिन काफी बड़ा प्रतीत हो रहा है....

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आंखिर शाम हो ही गयी , रिन्दों का जमावड़ा लग चुका है , जुबान रूपी असलहे से एक से एक उम्दा शब्द रुपी गोलियों की धका -धक  बौछार है , सरगोशियों के लिए लेश मात्र भी स्थान नहीं , शोर अपने चरम पे है , सब कुछ व्यापक , स्थूल  और अपने मूल स्वरुप में है, कुछ भी परिष्कृत नहीं …

बनाव -श्रृंगार, , सजे-धजे लिबास,  उपहार, कार्ड , केक की  औपचारिकताओं से परे विशुद्ध देशी माहौल है यहाँ , कमरा मद्धिम रंगीन रौशनी में सराबोर है , टेबल लैंप का  छतोन्मुख प्रकाश अनुपम छठा बिखेर रहा  है , हलकी आवाज़ में चल रही पंकज उधास की गज़ल हम से मैकदे और उसके घर में से किसी एक को चुनने की कश्मकश को बयां कर रही है , तरह-तरह का चखना बिस्तर के ऊपर रखे अखबार पे छोटे-छोटे चट्टो के रूप में विराजमान है,  धूम्र दण्डिकाओ के पैकेट चरसियों की नजरों से दूर  माचिस समेत आयोजको के जेबों में शोभा पा रहे हैं  ,घुटन्ना और T -shirt ही सर्वमान्य dress कोड है और हर कोई यही जानने का इछुक कि मंगवाई किस Brand  की है ?

अंगूर की बेटी की चमचमाती bottle  अलमारी बाहर आ चुकी है , और सबकी आँखे फटी के फटी , पैसो की किल्लत की वजह से हमेशा बूढ़े  पुजारी (OLD MONK) की शरण में रहने वाले मैपरस्तो को आज  ROYAL CHALLENGE मयस्सर है  और सब लगे है मोहन प्यारे की पीठ ठोकने , अपने बापू को पटा आर्मी कैंटीन से उसने यह  बेहतरीन जुगाड़ जो किया है.…
मुस्कुराते हुए , गरियाते हुए सबका अभिवंदन  स्वीकारते  और सबकी शंकाओ का समाधान करते हुए  वो तेज आवाज़ में   कह रहा है .... पूरा इंतज़ाम है   कम नहीं पड़ेगी… चाहे पियो या  नहाओ.... J

बोतल खोली गई पर ये क्या अंदर तो जाली का एक और  ढक्कन  और मौजूद है , सभी  दुविधा में ,अब इसे कैसे निकला जाये  , इस नई  अड़चन से कैसे पार पाया जाये ,  किसी ने पेंचकस तो किसी ने प्लास का मशवरा दिया लेकिन तभी राजा बाबू पंचलाइट के गोधन की तरह प्रकट हुए , बोतल को एक झटके अपने हाथ में उल्टा करके,घुमाते हुए  के वहाँ मौजूद पैमानों में उड़ेलने लगे हमारे गंवार होने के तंज की साथ.… 

सच ही तो है ज्ञान और अनुभव के आभाव में  क्षुद्र से क्षुद्र चीज भी कितनी व्यापक और कठिन प्रतीत होती है..... 

अब ये BOY'S HOSTEL की यह  रिवायत बन चुकी है के सबसे पहले जय भैरव होगा , ढक्कन में भरके neat सुरा कमरे के अन्दर चारो दिशाओं की ओर  उड़ेली जा रही है , जय भैरव का जाप हो रहा , असंतृप्त आत्माओं की शान्ति हेतु….
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पार्टी अब अपने पूरे शबाब पे है, , स्वच्छंदता चरम पे है , अभिव्यक्तियों की अतिरेक  है , सीमाओं  में बंधे रहने की किसी की भी मंशा नहीं , सभी अपने को व्यक्त करने में लगे है , तरीके भिन्न भिन्न है पर उद्देश्य  एक ही है  .… समस्त वर्जनाओं  को तोड़ खुद से भी अनिभिज्ञ हो अपना सर्वश्रेष्ठ बेतकल्लुफ अंदाज़ प्रदर्शित करना .....

चखना निबट   चुका है , Non Drinkers की फ़ौज cold drinks के साथ उसे चौपट कर चुकी है , कमरे और wing में भसड फ़ैली हुई  है , music काफी loud है , पंकज उधास को अब Vengaboys प्रतिस्थापित कर चुके है , पसीने से लतपथ कुछ  लोग अपनी बेजोड़ नृत्य क्षमता प्रस्तुत कर रहे और पकड़-पकड़ के सभी को वैसा ही करने के लिए बाध्य कर रहे है ....

भावनाए अब हिलोरे मार रही है , दोस्ती का वास्ता दिया जा रहा है , कुछ भी कर गुजरने की कसमे खायी जा रही है , कोई अपने मेहबूब को याद करके ग़मज़दा है , कोई अपनी भड़ास निकालने के लिए जोर-जोर से चिल्ला रहा है, कोई किसी से कोई पुराना हिसाब चुकता करने की बात कर रहा है ,कुछ खाली पडी बोतलों को जांघ से बार-बार रगड़ उसके अन्दर दियासिलाई डालने के खेल में मशरूफ है तो कोई उनको तीसरी मंजिल से नीचे पटक कर शहीद करने में....

कमरे और wing की हालत किसी युद्ध के उपरांत हुए विध्वंस की छवि प्रस्तुत कर रही है , स्टूल , कुर्सी , कूलर ,बाल्टी, मग्गे , गिलास ,नमकीन और चिप्स के खाली पैकेट इधर-उधर बिखरे हुए है , पता नहीं खाना किसने खाया , किसने नहीं खाया पर कुछ लोग आगे से  ना पीने की कसमो के साथ उसे निकालने में जरुर लगे हुए है , गाली और concern के साथ कुछ साथी इन महानुभावो की पीठ सहला रहे है...

शिव के बांकी गण नारे लगाते ,शोर मचाते निकल चुके कॉलेज  गेट की ओर   इस भव्य अनुष्ठान में अपनी अंतिम आहुति देने , Divider पर बैठ सुन्दर की चाय पीने....




Friday 29 August 2014

गुनाह  तो जगजाहिर है
पर मुलव्वस बड़ा माहिर है
खबरों में खबर नहीं
कायम रहती सियासी रंगीनियाँ
और हम तुम करते
सिर्फ कानाफूसियाँ

Thursday 28 August 2014

अपना कालेज कई मायनो में विशिष्ट था , है और आगे भी रहेगा....

न जाने कितनी पीढ़ियां निकल गयी इन BH-1 ,BH-2,BH-3, BH-4 , GH और BH-5 ( हमारे ज़माने में  नहीं था ) से पढ़कर , बस समय बदला ,चेहरे बदले ,प्राथमिकतायें  बदली पर किसी भी काल खंड में हम 'GANESHIANS' की फितरत न बदली ।  मेधा  ,मस्ती और उज्जड़पने की त्रिवेणी सदैव ही कायम रही और यही बात हम सबको आपस में जोड़े रखती है

मोटे तौर पे हॉस्टल के दिनों में हम लड़के दो भागो (Groups ) में विभाजित थे , एक जो दारू पीते थे और दूसरे जो नहीं पीते थे.....

न पीने वाले highly  image conscious लोगो  की श्रेणी में आते थे , इन्तेहाँ नज़ाकत और नफासत पसंद... इनका हर एक काम GH को अपने जेहन में लेके होता था । साफ़-सुथरे,नहा धोके ,समय से सुबह 8 बजे वाले lecture में पहुँचना , front row में बैठना , टक-टकी लगाये प्रोफेसर साहब को देखना , तीन-चार रंगो की  कलमों   (Pens )और   शदीद मशक्कत के साथ गुरूजी के द्वारा बोली और black board पे लिखी हर बात नोट करना जैसे वो कोई ब्रह्मवाक्य हो इनकी रोज की आदत में शुमार था.… 

हर पूछे  सवाल पे तुरंत अपना हाथ रूपी एंटीना खड़ा कर देना , और ऐसी कोई हरकत करना जिससे सबका ध्यान इनकी और आकर्षित हो और जवाब  देने के बाद वो विश्व-विजेता वाली चमक इनके चेहरे पे देखने लायक होती थी.… Lecture के बाद जब तक ये किसी बालिका से लस न ले इनका सुबह का नाश्ता  हजम नहीं होता था.… 

इन लोगो का कमरा हमेशा व्यवस्थित रहता था , बिलकुल सफाई से,बिस्तर के पीछे  लगा बिना सिलवटो वाला  प्लास्टिक  वॉल पेपर, उसके ऊपर पीतल की चौड़ी drawing pins से ठुकी black ribbon , सलीके से सजी study table और उसके ऊपर चमचमाता  टेबल लैंप और emergency light , करीने से रखी किताबे ,घर-परिवार, देवी देवताओं की फोटो आदि-आदि ..... कितना विहंगम दृश्य प्रदान करती  थी .… 

इनके पास हमेशा घर से आये लड्डू,मठरी ,देशी घी व अन्य खाद्य सामग्री प्रचुर मात्रा विद्यमान  रहती थी  पर इनकी हर जरुरी चीज ताले में बंद रहती थी और आप इनसे कुछ भी मांगने की गुस्ताखी नहीं कर सकते थे, अगर गलती से आप से ये गुनाह हो गया तो ये अपनी लानत भरी नज़रो से आपको ये जता देते थे कि आप से बड़ा भिखमंगा इस जहान में कोई दूसरा कोई और  नहीं  …

ये लोग व्यवस्थित थे पर सीमित थे , इनके दोनों सिरे आसानी से प्रदर्शित हो जाते थे.… 
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और दूसरा group था पीने वालो का ....धर्म, जाति ,शहर , स्कूल , पारिवारिक पृष्टभूमि , juniority, seniority का फर्क यहाँ नदारद था.… RUM में रमे ये लोग ख़ुदपरस्त नहीं खुदा-परस्त थे 

भेद को मिटा देना उस मालिक की सच्ची इबादत है और ये लोग इस कला में माहिर थे.… 

जो सोये ही रात के तीन बजे उसके लिए सुबह के  lecture के क्या मायने ?   Proxy के सहारे इनका  वजूद कायम था.… 

ये लोग कॉलेज और कानपुर की नस-नस से वाकिफ थे , हर छोटी ,बड़ी घटना पे इनकी सटीक और पैनी नज़र होती थी  , संगठन में शक्ति वाली कहावत  को ये लोग ही अपने पौरुष से चरितार्थ करते थे....
GSVM में होने वाले हर छोटे बड़े आयोजन का भार इनके कंधो पे ही होता था और ये लोग बख़ूबी उसे अंजाम भी देते  थे.… 

ये लोग BH के इतने आदी होते थे कि इन्हे GH जाने की आवश्यकता ही नहीं   थी , सलीको में सिमटजाना इनके मिज़ाज में  था ही नहीं  … 

कमरा भी बेतरतीब सा फैला रहता था , इधर ,उधर पड़े  कपडे , किताबे, cassettes, हवा में मौजूद जले तम्बाकू की गंध ,  फ़िल्टर सिगरेट के थूड्डो से लबालब स्टील की कटोरी  ,कपड़ो ख़राब करता दीवारो से  छूटता हुआ रंगीन चूना, उखड़ते हुए हसीनाओं के फड-फडाते  पोस्टर  ,कमरे के बाहर नाश्ते और खाने की औंधे मुँह गिरी हुई  प्लेटे/गिलास   और न जाने क्या -क्या  इन लोगो की  बहुमुखी प्रतिभा के विभिन्न रंगो को प्रदर्शित करता था.मजाल है के आप इनके इस तरह से  बिखरे हुए व्यक्तित्व का कोई सिरा तलाश कर  पाए , ये सीमओं से परे था , असंख्य संभावनाए लिए … 

कमरे की कोई भी चीज ताले के सुपुर्द नहीं ,  अगर आपको किसी भी चीज की जरुरत हो , पूछने की जहमत ना कीजिये बस उठा के ले जाइए , इन्हे कोई मसला नहीं पर हाँ   काम हो जाने के बाद शराफत से उसे वापस रख दीजिये वरना गाली खा के तो आप को रखनी पड़ेगी ही .... :)

image build  up की जगह ये खुद अपनी image destroy करने पे ज्यादा यकीं रखते थे और हो  भी क्यों न सम्पूर्ण विनाश ही तो नव-सृजन की पहली शर्त है.…  

संबंधो शर्त कैसी ? कोई पसंद  है तो उसे वैसे ही पसंद कीजिये जैसे कि वो  है , बिना किसी लाघ-लपेट के या मीनमेख निकाले.... नए सबंधो को स्थापित करने में यदि दिमाग लगाओगे तो हर दिन फायदे नुक्सान के हिसाब में ही मसरूफ रहोगे और चीजें अगर दिल से तय होंगी तो प्यार और विश्वास हर दिन परवान चढ़ेगा  .... 

जिंदगी में अनेक मुकाम हांसिल होंगे , बात तो बस उनको हांसिल करने के सफ़र की है ,संजीदा रह के करोगे तो राह कठिन लगेगी, मस्त-मौला रह के करोगे तो दुश्वारियों का पता भी नहीं चलेगा ...


उम्र के  चौथे दशक की और बढ़ते हुए, पुराने दिन और याद आने लगे है , काफी समय गुजर गया  ज़िन्दगी और carrier के बीच सामंजस्य बैठाते हुए.ये कभी न ख़त्म होने वाली जद्दोजेहद आगे भी जारी रहेगी ...
अपने कॉलेज के दिनों को याद करके  कुछ सुकूं हांसिल करने में हर्ज़ ही क्या है ? मै तो एक लम्बे अरसे से कर रहा हूँ , आप भी कीजिये 












Saturday 23 August 2014

अक्सर पूनम और मेरे बीच बहस का एक मुद्दा होता  है  "कानपुर" .... हर बार की तकरार में वो हमेशा कहती रहै पता नहीं क्या है तुम्हारे इन कानपुर मेडिकल कॉलेज के दोस्तों में  जो तुम इनके पीछे बौराय हुए घूमते रहते  हो.… अगर कोई कनपुरिया घर आज जाए तो तुम अपनी सुध-बुध ही खो देते हो और तुम सब मिलके घंटो तक कानपुर -कानपुर की ही रट लगाये रहते हो.…

शादी के ७ सालो में लगभग ९०% लोग जो घर आ के खाना खा के गए वो Ganeshian ही थे.… उनके साथ अत्तीत के उन सुनहरे लम्हो को  बांटने में जो दिव्य  आनंद  मिला  है वो कहीं और कहाँ ,? MBBS  के बाद अर्जित की  गई डिग्रियां और  कमाए गए नोट उसके कहीं आस-पास भी नहीं फटकते...

 ऐसा इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि  हम सब आज भी उसी  पुरानेपन  को अपने में समाये हुए है ,कोई चाहे जिस भी मुकाम पे हो,  इन होनी वाली मुलाकातों में  अपना वहीं पुराना ट्रेडमार्क कमीनापन और अपनापन प्रदर्शित  करता है  जोकि  उसकी खास पहचान रही है , वर्तमान की उपलधियां अत्तीत की उन UG वाली संग की गई कारगुजारियों पे कभी भी हावी नहीं हो पाती

जिन संबंधो में स्वार्थ नहीं होता वे चिरस्थाई होते है …

कानपूर वालो को समझने के लिए कोई "Rocket  Science" की आवश्यकता नहीं , बस आपको उन्ही की तरह फक्कड़  और उन्ही की तरह दबंग, उन्ही के तरह मस्त और  उन्ही की तरह मलंग बनना पड़ेगा जो हर किसी के बूते की बात नहीं...

गंगा मैया का पानी किस्मत वालो को ही पीने को मिलता है  और हम कनपुरिये तो उस में नहाये हुए है.…

तो इस भाग-दौड़ और रेलम-पेल वाली ज़िन्दगी में मिलते रहिये , मेलजोल बड़ाते  रहिये,जाम टकराते रहिये और हमारे घर आते रहिये.... आप लोग ही मेरे लिए बेस्ट tranquilliser & best anti hypertensive हो ...






Friday 22 August 2014

हमारे इश्क़ की मियाद खत्म है
रकीबों को हमारी ये हालत पसंद है

अपने कहे से मुकर रहे है बार -बार
लगता है मेहबूब को सियासत पसंद है

न टूटेंगे ,न बिखेरेंगे तुझ से जुदा हो के हम
हमारी शख़्सियत में अभी  इतना दम है

बे रोक टोक जश्न मन रहा है  तेरे जाने का
हमारे मैकदे की रौनक से दुनियां दंग है


जब जन है तो मत भी होगा ,और अगर मत है,,, वो तो निसंदेह अलग-अलग होगा।।। उत्कृष्ट होगा , निकृष्ट होगा (खुरपेची वाला ), नहीं भी होगा , पर ये अलग-अलग अलगाव पैदा न करे कुछ पोस्ट और विचार पढ़ के मन व्यथित हो जाता है। । अच्छे को सराहिये बुरे की निंदा कीजिये  जमकर कीजिये बाल की खाल निकालिये उसके अंदर के बबाल का भी विश्लेषण कीजिये मगर तर्क के साथ.… कुतर्क के लिए लेशमात्र भी स्थान नहीं।।। ऐसा लिखिए के पढ़ने वाले को  kick मिले वही सलमान खान वाला।।।






अच्छे -बुरे का भेद एक व्यापक चर्चा का विषय है। देश , काल ,रीति और समाज के अनुसार ये परिभाषित होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। हमारी हिन्दू सनातन धर्म के परंपरा के अनुसार मांस- मदिरा का सेवन हमेशा से ही बुरा और निषेध माना गया है और इसके लिए किसी दिन या महीने के कोई विशेष छूट नहीं। समय के अनुसार लोगो की खान-पान की आदते बदली है और नई पीढ़ी तो हमेशा से ही प्रयोगात्मक रही है। स्वनिर्मित ये अल्पकालिक निषेध शायद उस अपराधबोध को कम करने में थोड़े बहुत सहायक होते है जो हमें इन वर्जित माने गए  कार्यो को करने के बाद  होता है … और भईया Liver भगवान ने एक ही दिया है उसे भी तो थोडा बहुत आराम चाहिए ना 
बात कानपुर के कॉलेज के दिनों की है.… sale से एक सफ़ेद अंगूरा का स्वेटर ले दीवाली पे पिताजी को भेंट किया। पिताजी ज्यादा brand conscious  न तो पहले थे न अब  है पर उस समय woolmark के निशान को देख बस इतना समझ गए कि यह गरम तो जरूर होगा (पहाड़ी आदमी को ऐसी ही चीजों की तलाश रहती है) …

काफी कहने और बढ़ते जाड़े में एक दिन वे उसे पहनकर विद्यालय चले गए। स्वेटर को देख साथी अध्यापकों (जो कि उनके स्वाभाव और आदतों से भली-भांति परिचित थे ) ने कहा.… प्रिंसिपल साहब ये कहाँ से  से ले आये? , आपने तो पक्का नहीं ख़रीदा होगा , बहुत महंगा है जरुर बेटे ने दिया होगा...

अगली छुट्टियों पे जब दोबारा घर पंहुचा तो देखा के  पिताजी ने वो स्वेटर ,वापस मोमजामे की पन्नी चढ़ा कर ,सहेज कर वापस डिब्बे में रख दिया है.… मेरे ऐसा पूछने पर वे बोले .... काफी कीमती है, इसलिए संभाल  के रखा है.… कभी-कभार विशेष मौको पे ही निकलता हूँ...

इस घटना के लगभग 13 वर्षो बाद , पिछले वर्ष जब में घर पहुँच एकाएक बड़ी ठण्ड पे जब मैंने उनसे स्वेटर माँग की  तो उन्होंने उसी को लाकर मेरे सामने रख के मुस्कुरा के बोले... ले तेरा ही लाया हुआ तुझको दे रहा हूँ

गजब की क्षमता है हम से एक सिर्फ एक पीढ़ी पहले के लोगों में चीजों को सहेज के रखने  और मितव्यता की जिसे हम अक्सर कंजूसी कह के हास-परिहास में उड़ा देते है.....

घर में लगे  सामान के अंबार बावजूद हर दिन कुछ न कुछ खरीदने की खुजलाहट की बीच कभी- कभी जरूर ये ख्याल आता है.… काश ईश्वर  हमें भी वो ही सलाहियत बख्श  देता …

वैसे अब भी वो स्वेटर मेरे पास है पर हालत काफी खस्ता है....

फिर से इंतेखाब का वख्त है
छूटेगा कोई इसकी कशमकश है

शायद जो मुनासिब हो नसीब हो हमें
मुश्किल वख्त इम्तिहान सख्त है 
नग्नता में  सृजनात्मकता तलाश …  कुछ लोगों  की हमेशा से ही ये ही कोशिश रही और वे इस पे वाद-विवाद करने के लिए हमेशा ही आतुर रहते है.… अपने को सही साबित करने की इनकी मशक्कत पहले भी थी और आज भी है.… अब ये PK भी इससे ज्यादा और कुछ नहीं।।। फिल्म बॉक्स आफिस पे हिट हो जायेगी और इनका किया हर  अनुचित कार्य उचित।।।। जब सिक्के की खनक ही सफलता और सही-गलत का मांपदंड हो जाये तो इन जैसे लोगो से आशा रखना सिंधु में मीठे जल तलाशने जैसा ही है


हर सियाह यहाँ पे  सफ़ेद है 
 अपनी मौजूदगी पे हमें खेद है 

हक़ हलाल की बातें बेमानी 
छीनने में कब किसे गुरेज है 

लानत मिल रही है अपनी तरबियत पे 
क्योंकि हमें बेमानी से परहेज है 

क्या नेता क्या नौकरशाह  
यहाँ तो अदना चपरासी भी सेठ है 

सबने मिलके बना रकखी चौकड़ी 
खींचतान, बन्दर बाँट का खेल है 

जमीर मर चुका है कितनो का यहाँ 
जिनमे बाँकी  वो तो मटियामेट है 

बचा लो इस मुल्क को नौजवानो 
तुम से ही उम्मीद  अब शेष है 





पहले खूब  भाता था कितनो को
पर अब  कितना  अखर  गया  हूँ
मै जो मुख़ालफ़त पे   उतर गया हूँ

हर दिन मुझे रहती है  कोई   शिकायत
लोग कहते है  हद से गुजर  गया हूँ
मै जो मुख़ालफ़त पे   उतर गया हूँ

अल्फ़ाज़ अब न रहे चासनी सरीखे
सच की कडुवाहट में घुल गया हूँ
मै जो मुख़ालफ़त पे  उतर गया हूँ.…

यार-दोस्त ,नदारद है आसपास से
गलत को सही कहने से मुकर गया हूँ
मै जो मुख़ालफ़त पे  उतर गया हूँ.…






















दोस्ती

अपनी दोस्ती का जश्न मनाने के लिए क्या हमें कोई तारीख मुकर्रर करने की जरुरत है ? भइया हम तो रोज मनाते है और जमकर मनाते है.… 

ईश्वर ने नेक माँ-बाप दिए , लाड करने वाले भाई बहन , सबसे पुराने,पक्के और सच्चे दोस्त आज भी वही है.… हमारे पिता थोड़े सख्त मिजाज के थे , उस समय प्रचलन भी वैसा था , होते हुए भी बच्चों से स्नेह का खुल्लम-खुल्ला प्रदर्शन प्रायः पिता नहीं किया करते थे पर इसकी भरपूर भरपाई माँ के द्वारा कर दी जाती थी.… , हमारी गलतियों ,शैतानियों ,परेशानियों ,जरुरतो और गुस्से का पहला ठिकाना वो ही थी ,माँ कवच की तरह होती थी, हर विपदा में रक्षण उसी से प्राप्त होता था.…

अच्छे संस्कार मिले ,पढ़ लिख के अल्लाह मियां की गाय की तरह कॉलेज पहुंच गए.… बस यहीं से लाइफ ने एक जबरदस्त यू-टर्न मारा। अपनी क़ाबलियत सिद्ध होने के तमगे साथ-साथ एकाएक आज़ाद माहौल मिला, सुबह के संडास से लेकर रात के २ बजे की चाय के बीच हर छोटी बड़ी चीज हमारे लिए नई थी.… और हमारे साथ पहली बार जिस किसी ने इनका अनुभव किया वो कमीने दोस्त ही जिंदगी की कमाई हुई सबसे बड़ी दौलत है और हमारे सबसे बड़े राजदार भी...

कौन सा दिन नहीं जब ये ससुरे याद नहीं आते , इन्हे गरियाने,लतियाने का मन नहीं करता, बस बंधे रहते है कुछ खुद की बनाई हुई मजबूरियों से और काफी समय यूँ ही गुजर जाता है इन से मिले और बात किये हुए.…

और जब कभी सोमरस के आधिपत्य में बहुत खुश और Senti हो जाते है तो फ़ोन पे चिल्लाकर देर तक बात करके इन्हे अपने होने अहसास करा देते है.… फिर से मिलने के वादो के बीच हम फिर से मशगूल हो जाते है अपने अपने उन्ही रोजमर्रा के कामो में.…

शादी के बाद बीवी से आस रहती उन्ही कमीनो के थोड़े बहुत अंश की जो पूरी न होने पर अक्सर हमारे बीच एक न खत्म होने वाली बहस का कारण बन जाती है.....

पतंगबाज़ी

बहुत ज़्यादा साधन -सुलभ तो नहीं पर अन्वेषणों से परिपूर्ण था हमारा बचपन.... हर छोटी-बड़ी बात कुछ न कुछ सिखाती थी और ऐसे ही कुछ सीख-सीख कर हम बड़े हो गए....
मुक्कमल तो कोई नहीं हो सकता...अगर हो जाए तो खुदा न बन जाए.… 
बचपन में पतंगबाज़ी का बहुत शौक था... पिताजी को ये पसंद तो न था पर गर्मियों की छुट्टियों में इसकी इज़ाज़त मिल ही जाती थी और साथ-साथ एक हिदायत भी कि सम्भल के...इसके आगे कबूतरबाज़ी , मुर्गाबाज़ी ,बटेरबाज़ी शुरू मत कर देना और ये रियायत बस स्कूल खुलने तक ही है...
छिद्दन मियां की दुकान हमारे शहर में पतंगबाज़ी के सामान के लिए सबसे मशहूर थी, कल्लूमल हलवाई और बूरा बताशा गली की मंडराती मक्खियों से ज्यादा यहाँ हम जैसे पतंगबाज़ बालको की भीड़ होती थी और सबके सब भिड़े रहते थे जल्दी से जल्दी सामान लेने के लिए....
सालाना परीक्षा पास करने के बाद १० रुपिये मिलते थे और हम भी किसी कुशल अर्थशास्त्री की तरह अपना बजट बनाने लगते थे.… दो रुपिये की चरखी , उस पे चार रूपिए की पतली सद्दी का गुल्ला , एक-एक रुपिये लाल और काला रामपुरी मांझा , पच्चीस पैसे वाली चार पतंग, और एक अठन्नी वाला चाँदतारा... बांकी के बचे पचास पैसे लाल जीभ की गोली और चूरन के लिए होते थे। पाई-पाई का इतना सटीक मौखिक हिसाब होता था कि साल भर कान मरोड़ने वाले गणित के मास्साब अगर उतर पुस्तिकाओ की जगह इसे देखते तो जरुर हमपे फर्क करते....
शिक्षा में रूचि रखने की बात कहने की बजाय अगर रूचि में शिक्षा रख दी जाए तो इस देश की कायाकल्प हो जाये ....
घर से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पे स्थित इस दूकान पर स्वयं अकेले ही खरीदारी करने जाते थे, भीड़ से बचते बचाते उस एक अदद जान से प्यारे दस के नोट को अपने दिल से लगाये हुए ....
कनकव्वे बड़ी ही बारीकी से छांटे जाते थे, कटी-फटी न हो ,बीच की बांस की तिल्ली मोटी न हो और पतियाना निकाल के उसकी प्रत्यास्था (elasticity) का झट अनुमान लगा लेना कितना विशिष्ट अनुभव प्रदान करता था ....
कन्ने (सुत्तल) बांधने ने गाँठ लगाने का पहला रोचक अनुभव दिया , अगली सुतल छोटी करने से पतंग घूमेगी मगर कम हवा में भी उड़ जायेगी , पिछली को छोटी करने पे शुद्ध (स्थिर) रहेगी और अगर तेज हवा है तो पुछल्ला बाँध के आप अपनी पतंग को उड़ा सकते है और ऐसी न जाने कितनी सुनी-सुनायी बातों को खुद अनुभव करके परखा और उन्हें सही पाया वरना आजकल तो सियासी झूठ को बिना जांचे हम सच मान लेते है और कुछ बेगैरतो की स्वार्थ की अग्नि में खुद को इंधन की तरह झोंक देते है.... खुद तो जलते ही है, कई औरो को भी जलाते है....
बचपन में सयाने थे और सयाने होके बेवकूफ हो गये ....
छुटकाई लेने की प्रक्रिया में छत और मैदान के विभिन्न कोणों को भांप लिया जाता।आटे,भात और बेल के फल का गोंद की जगह पतंग चिपकाने के उपयोग ने हमें उपलब्ध साधनों में काम चलाने की कला में निपुण किया ...
पेंच लड़ाने ने ज़िन्दगी की पेचीदगियों से दो-चार करवाया , कब अपने के ऊपर रखना है, कब नीचे, कब ढील देनी है, कब खेच मारनी है और कब बिन मौका दिए हत्ते से सूत देना इसका पहला सबक हमें यहीं से मिला...
किसी की पतंग काटने पर आह्लाद के उस प्रकटीकरण ने खुद को व्यक्त करना सिखाया , खुद की कट जाने के विषाद ने पुनः प्रयास करने को उकसाया, कइयो की भीड़ और डंडे पे लगे झाड के बीच भी कटी पतंग को लूट लेने की सफलता ने खुद पे गर्व करना सिखाया, उलझी हुई सद्दी को सुलझाने ने समस्याओं से निबटने और अटियां करने की कसरत ने चीजों को पास-पास सहेज कर रखने की सलाहियत से हमें नवाज़ा...
कभी टीवी के एंटीने , पेड़ , बिजली के तारों पे फंसी पतंग को सफलतापूर्वक निकाल लेने ने छोटे-छोटे सधे हुए निरंतर होते प्रयासों की उपयोगिता समझाई और हर स्थिति में डंटे रहने की प्रेरणा दी ....
कितनी तरक्की कर ली ,छोटे कस्बो के बड़े घरो से निकल हम बड़े महानगरो के छोटे-छोटे flats में आ गए , और कीमत अदा की छत और आँगन को खो कर ,घर के साथ दिल भी छोटे हो गए, रहन-सहन का स्तर तो जरूर ऊँचा हुआ पर कुछ पा लेने की उधेड़बुन में स्वयं न जाने कितना नीचे गिर गए ,बड़ी-बड़ी चाहतो ने छोटी-छोटी खुशियाँ हम से छीन ली , और इस सबका सबसे बड़ा खामियाजा हमारे बाद की पीढ़ी उठा रही जो भौतिक साधनों में बचपन की खुशियाँ तलाश रही है ...
मुट्ठी में मिटटी भरके हवा का रुख को पहचानने की उस पतंगबाजी वाली आदत ने ही शायद मुझे अपनी मिट्टी से जोड़े रखा है और एक अपराधबोध के साथ ऐसा लिखने को निरंतर प्रेरित करती रहती है ...
“संगमरमर पे चलता हूँ तो फिसल जाता हूँ
मिट्टी पे चलकर ही अपनी पकड़ बनता हूँ “

Friday 8 August 2014

अच्छा खोजिए , हमेशा कुछ न कुछ जरूर मिलेगा ,

बात ये नहीं कि पहले के ज़माने में ही अच्छी फिल्में बनती थी ,आज कल भी बनती है बस जरा चकाचौध में खो जाती है.… पर काम बनती है
समय बदला है , लोग बदले है ,सामाजिक सरोकार बदले है ,इसलिए फिल्में भी बदली है.… अब मनोरंजन के अनगिनित साधन उपलब्ध है ,पहले ऐसा न था.… पूरे परिवार  को ले एक साथ सिनेमा हाल में फिल्म देखना किसी उत्सव से कम न था जो साल में यदाकदा ही संभव हो पाता था और और उसकी मधुर स्मृतियाँ जेहन में  आज भी शेष है.।

अब ज़माना weekend और multiplex का है। फिल्म देखना कईयों के लिए हफ्ते में एक बार होने वाला time pass है इसलिए फिल्म भी किसी disposable  item सरीखी हो गयी है.… दिमाग घर पे छोड़ के जाइये ,popcorn और ठन्डे आनंद लीजिये और हफ्ते भर से झुंझलाती और outing के लिए ताने मारते बीवी की क्रोधाग्नि पर centralized air conditioner की हवा मारिये कहानी , अभिनय गीत-संगीत जाए तेल लेने