Wednesday 2 May 2018

पिताजी का रुमाल ...

बात उस समय की है जब ये मोमजामे की पन्नियाँ नहीं होती थी , होता था माँ का हाथ का सिला झोला जिसमे घर का रोजमर्रा का सामान आता , दूध भी प्लस्टिक की थैलियों में ना आता , उसको लाने के लिए एक ढक्कन वाली स्टील की बाल्टी तय थी ...

पर इन सबसे अलग था पिताजी का रुमाल... रोज विद्यालय जाते समय माँ एक साफ़ सुथरा बड़ा सा रुमाल पिताजी को थमाती , ये रुमाल बड़े ही काम की चीज थी , पिताजी विद्यालय से लौटते समय इसमें बाँध जरूर कुछ न कुछ खाने का सामान लाते , खासकर के फल ....

गर्मियों में आडू , आम ,बेल ,खीरे ,ककड़ी , खरबूजा ,शहतूत, बरसात में अमरुद , हेमंत में सेब , नाशपाती और जाड़ों में बेर ,संतरे आदि इसी रुमाल में बंधे आते ...

बच्चों वाले इस घर में पिताजी कभी खाली हाथ न लौटते और हम सब भाई बहन दौड़ पड़ते इस भरे रुमाल को पकडने कि देखें आज खाने के लिए क्या आया है ...

सबसे छोटे होने का मुझे अतिरिक्त फायदा मिलता ... मै लाये गए फलों में सबसे बड़ा अपने लिए चुनता ... दीदी, भईया प्रतिरोध जताते मगर माँ उन्हें मेरे छोटे और नासमझ होने की बात बता मना ही लेती ...

फल खाने पे टूट पड़े हम भाई- बहनों से माँ कहती जाती ... अरे ऐसे नहीं पहले धो लो , तुम्हारे लिए ही है ,कहीं भागा नहीं जा रहा ....