Saturday 2 January 2016

पुराना नया साल ....

दूरदर्शन का प्रोग्राम
देर रात्रि जगने के इन्तेजाम
पिताजी का पढाई का  उलाहना
पर कान पे जूं जरा भी न सरकाना
बंदिशों में थोड़ी छूट पाना
नींद भगाने के चाय बनाना
और रजाई के सफ़ेद खोल पे दाग लगाना

बस बारह बजने का इन्तेजार
शगुन के लिए किताब उठाने को तैयार
जो काम सबसे पहले  नए साल में करेंगे
साल भर वोही तो करते रहेंगे ...

वो थोड़े बहुत ग्रीटिंग कार्ड
खुशियाँ दे बेशुमार
घर की बैठक में  दीवार पे लटकाए
पीछे लिखे दामों को
बार-बार बस देखते जायें
सीमित साधनों में
सादगी से मनते उत्सव सच्चे थे
चकाचौंध विहीन समय के
हम सीधे साधे बच्चे थे ...

न पैसे,वैभव ,ऐश्वर्य का
खुलम-खुल्ला दिखावा
पिताजी का कोट छोटा करा के
पहले भाई फिर मैंने पहन डाला
दो अदद पतलून में १२ वी तक निभाया
ढ़ीली पडी इलास्टिक ने
पहनी जुराबों में फूल सा खिलाया
जूते यूहीं ही नहीं आ जाते थे
मोची जवाब दे दे तब पिताजी नए लाते थे...

अभाव तो नहीं , अति भी नहीं
अनुशासन और बचत का बोलबाला था
बचपन से अभिभावकों ने
ये ही संस्कार डाला था
मितव्ययी होने और
चीजो के  इष्टतम उपयोग की सीख थी
बच्चों के  चरित्र निर्माण की पक्की नीव थी....

आज के बचपन से मुझे शिकायत नहीं
भटकाव के दौर में कोई हिदायत नहीं
हम बस पैसे कमाने में ही  जूझे रहते
समय की कमी को उपहारों से भरते
हमने ही उन्हें चीजों का आदि बनाया
बचपन घर पे पड़ा रहा
बाहर न निकला और मुरझाया ....