Sunday 10 April 2016

"शिकाकाई" साबुन

अभी पिछले हफ्ते की बात है इस मध्यमवर्गी परिवार में इस बात पे कोहराम मच गया कि सर के बाल धोने के लिए ये "शिकाकाई" साबुन किसने मंगवाया ??? , जब सब लोग नहाने के साबुन से अब तक ऐसा करते आये हैं तो ये अतिरिक्त फिजूलखर्ची क्यों ???, ऊपर से बाबा ने भी तंज जड़ दिया, " तुम लोगो ने अब तक गरीबी देखी कहाँ है ? इस लिए अनाप-सनाप पैसे उड़ाए जाओ.... हमारे ज़माने में अगर कपडे धोने वाले साबुन की पीली बट्टी भी हमको मिल जाती थी तो हम अपने आप को खुशकिस्मत समझते थे , जरा सी शहर की हवा क्या लगी तुम लोगो के तो पर ही निकल आये.....

बाबा के तरफ से निकले इस हृदय विदारक तीर ने माँ- बेटी को अंदर तक बीध डाला , ऊपर से पिताजी अपने पिताजी के स्वर में स्वर मिलाते हुए बोल उठे.... देखो श्रीमती जी मुझे इसके लक्षण अच्छे नहीं दिखाई दे रहे , बालों में ये महंगा साबुन लगा क्या इसको हीरोइन बनना है ,अगर ऐसे ही कुछ विचार है तो अभी बम्बई के टिकट कटा देता हूँ , पढ़ने-लिखने की क्या जरुरत और तुम भी साथ ही चले जाना आखिर शय भी तो तुम्हारी ही दी हुई है....

पिताजी के इस मश्वरे ने रही सही कसर भी पूरी कर दी , माँ के लिए छिपने ,बचने का कोई स्थान न बचा , किशोरावस्था में पहुंची अपनी लाड़ली की इस विशेष साबुन मांग को पंसारी की दुकान में उसने जो पूरा किया था ... इस छोटी सी बात का इतना बड़ा बखेड़ा बन जायेगा इस बात का उसे जरा भी इल्म न था पर मां की ममता इस पूरे हो हल्ले के दौरान ढाल बनी अपनी सुता की रक्षा के लिए विद्यमान थी , सारे आक्षेप अपने ऊपर लेते हुए वह पूरी प्रतिबद्धता और संयम के साथ मैदान में डटी रही....

जब तक माँ तब तक मायका...

जब तक माँ तब तक मायका... इस बात को बेटियों से बेहतर भला कौन समझ सकता है ...?
भरा पूरा घर है , पति है, बच्चे है पर अपनी पुरानी पहचान से स्वयं को जोड़े रखने का एकमात्र वो ही तो जरिया है...

बिना संकोच अपना बचपन फिर से जीने, जिद्द मनवाने, नाराज हो जाने, डांट खाने, खिलाने का एक वो ही तो माध्यम है...

माँ -बेटी का संबंध पिता- पुत्र के सम्बन्ध की तुलना में ज्यादा भावुक,ज्यादा प्रगाढ़ और ज्यादा जीवंत होता है , संभवतः स्त्री होना और उससे जुडी वेदनाओं से गुजरना , पुरुष प्रधान समाज की सीमाओ का अनुपालन और विवाहोपरान्त अपनी पुरानी पहचान तत्काल खो ,नए अनजान परिवेश में नयी पहचान पाना दोनों को एक दूसरे के और निकट लाता है ...

गर्भावस्था, प्रसूति, बच्चों के लालन पालन से जुडी पेचेेदगियो से गुजरना दोनों के रक्तसंबंध को और गाढा करता है, यहाँ पिता-पुत्र दोनों के पुरुष होने के जैसा अहम् का टकराव नहीं होता अपितु स्त्री होने की सीमाओ का ज्ञान दोनों में सखाभाव और संवेदनशीलता उत्पन्न करता है...

पिता, भाई, भाभी लाड जताने वाले हो सकते है पर मायके की आत्मा तो माँ में ही है, संसार में एक वो ही है जिस पे बेटी का बस चल सकता है, शेष सारे मायकेे के सम्बन्ध कुछ मर्यादाए , कुछ औपचारिकतायें और कुछ किन्तु परंतु लिए हुए होते है...

Monday 4 April 2016

क्राइसिस ऑफ़ कांशस

हिन्दुस्तान में पढ़े-लिखे लोग कभी-कभी एक बीमारी के शिकार हो जाते हैं! उसका नाम "क्राइसिस ऑफ़ कांशस" है !… कुछ डॉक्टर उसी में ""क्राइसिस ऑफ़ फ़ैथ" नाम की एक दूसरी बीमारी भी बारीकी से ढूँढ निकालते हैं . यह बीमारी पढ़े-लिखे लोगो में आमतौर से उन्ही को सताती है जो अपने को बुद्धिजीवी कहते हैं और जो वास्तव में बुद्धि के सहारे नहीं, बल्कि आहार-निंद्रा-भय-मैथुन के सहारे जीवित रहते हैं ( क्योंकि अकेले बुद्धि के सहारे जीवित रहना एक नामुमकिन बात है)
इस बीमारी में मरीज मानसिक तनाव और निराशावाद के हल्ले में लम्बे-लम्बे वक्तव्य देता है , जोर-जोर से बहस करता है, बुद्धिजीवी होने के कारण अपने को बीमार और बीमार होने के कारण अपने को बुद्धिजीवी साबित करता है और अंत में इस बीमारी का अंत कॉफ़ी हाउस की बहसों में, शराब की बोतलों में, आवारा औरतों की बाँहों में, सरकारी नौकरी में और कभी कभी आत्महत्या में होता है
----------------------------------- राग दरबारी- श्रीलाल शुक्ल पृष्ठ १४७.....

Saturday 26 March 2016

#प्रेश्या , #खबररंडी , #presstitute यही तो प्रचलित संज्ञाएं हैं ना आजकल हमारी मीडिया के बारे में और हो भी क्यों न इन लोगो का आचरण ही ऐसा रहा है , मोदी सरकार के आने के पूर्व इनकी कोशिश थी कि वो न आ पाए और आने के बाद तो जैसे इनके सीने पर सांप ही लौटने लगे और अब यह इस मंशा से काम कर रहे कि वो चल न पाये ...

खबरनवीशो की एक पूरी जमात जुटी हुई है सामान्य जनभावना के खिलाफ रिपोर्टिंग और ख़बरें प्रसारित करने में , तिल का ताड बनाया जाता है, ताड़ का पहाड़ और फिर उसी पहाड़ पे चढ़कर गोले दागे जाते है , मोदी विरोध का आलम तो यह है कि उसके लिए राष्ट्र विरोध भी मंजूर है , अंग्रेजी पत्रकारिता जिसका दायरा भारत में तो सीमित है का स्तर तो और भी निम्नकोटि का है , कुछ एक चैनल को देख के ऐसा लगता है मानो वो पाकिस्तान से प्रसारित हो रहे हो , अंतर्राष्ट्रीय पटल पे भारत की छवि धूमिल करना ही इनका एकमात्र मकसद है....

किसी भी संस्थान को चलाने का एक अर्थतंत्र होता है , उसको समझिए , उसी को चिन्हित कर प्रहार कीजिये , ये लोग सिर्फ पैसे की भाषा समझते है उसे पे चोट कीजिये ,खाली गुस्सा करने या खिस्याने से काम नहीं चलेगा...

अगर आप किसी न्यूज़ चैनल से इत्तेफाक नहीं रखते तो केवल उसको न देखने भर से आप का कार्य संपन्न नहीं हो जाता , ये भी सुनिश्चित कीजिये कहीं आप उसके लिए अपने केबल या डी टी एच ऑपरेटर को पैसे तो नहीं दे रहे , आपके घर आपके ड्राइंग रूम में आकर आपको मुंह चिढ़ाने वाले पत्रकारों के कार्यक्रम यू ही नहीं बन जाते , उनके पीछे प्रायोजकों का पोषण होता है , ऐसे प्रायोजकों के पहचानिए और उनके सामान का बहिष्कार कीजिये , उन उत्पादों को अपनाइए जिनका आपके दिल को जलने वालो से कोई गठजोड़ नजर नहीं आता , उपभोक्ता आप है और इस बाजारवाद चुनने की शक्ति आपके हाथ है ,आप सर्वशक्तिशाली हैं.... आमिरखान और शाहरुख़ खान के उदाहरण आपके सामने हैं , गंद फ़ैलाने का खामियाजा जब पैसो के रूप में भरा तो कैसे मिमयाने लगे....

अंगेजी भाषा के अख़बार जो अपने शीर्षकों और मुख्य पृष्ठ पे जगह देने के लिहाज से हमारे राष्ट्र और राष्ट्रभावना के लिए तंगदिल नज़र आते है उनको उपयोग पढ़ने के लिए नहीं टॉयलेट के टिश्यू पेपर की तरह ही करे और इस भ्रान्ति का त्याग करे कि अंग्रेजी का अख़बार और न्यूज़ चैनल बच्चों की अंग्रेजी अच्छी करने के लिए जरुरी हैं इसके लिए और भी बतरे श्रेष्ठ तरीके हैं उन्हें अपनाए , चली आ रही गलत मान्यताओं के त्याग का समय है , अंग्रेजी सुधारने के चक्कर में संस्कारो को प्रदूषित न होने दे....

समाज में हो रही घटनाओं पे अपने दृष्टिकोण के समर्थन और पोषण हेतु इस दलाल मीडिया से आशा न रखें, वो हर हाल में अपना एजेंडा ही चलाएंगे , घटनाओं को उसी तरह से दिखाया जायेगा जैसे उनके आका बताएँगे , इन सब को देख और सुन अपना दिल न जलाए , अपनी बात कहने और भड़ास निकालने के लिए सोशल मीडिया जैसा सशक्त माध्यम का इस्तेमाल करें , मुखर हो पुरजोर तार्किक तरीके से अपनी बात रखें ,सत्य को परेशान किया जा सकता है पराजित नहीं...

घर के सात्विक खाने का आनंद लें रोज ज्यादा चटपटा खाने से हाजमा ख़राब होने का भय रहता , ८ से ९ काम से काम एक घंटा दूरदर्शन समाचार जरूर देखें , मुल्क में बहुत कुछ उम्दा भी हो रहा है.....

जो दिखता है वही बिकता से उलट , जो बिकता है वही दिखता को समझिए , अपने अंदर मौजूद उपभोक्ता की हनुमान रूपी शक्ति का जगाइए , एक बार बस ठान लीजये ये खबर व्यापारी आपका चरण वंदन न करें तो बताईएगा ...

Thursday 17 March 2016

लकड़ी को खोजती बच्चो की उत्पाती टोली
होलिका दहन की तैयारियाँ जोरो से होती
गुप्ताजी के घर चंदे पे चकल्लस है
२१ ,५१ ,१०१ के शोर में रस ही रस है....

बगल के मुहल्ले से कड़ी प्रतिस्पर्धा है
अपनी ऊँचे हरे बांस का ही हो- हल्ला है
सुतली पे लई से चिपके तिकोने लहरते हैं
पुरानी खटिया की चोरी पे शर्माजी बिदकते है....

आंटी लोगो का दल गुजिया-पापड़ में व्यस्त है
रस्तोगी जी का हुआ ,अब रुख पंत जी के घर है
खोलते तेल में तलती मठरी की सुगंध लाजवाब है
मुँह में पानी और दिल चखने को बेताब है....

माँ ने थोड़ा धीरज धरने को कहा
पर जिद्दी यह बालमन अपनी पे अड़ा
गरमा-गर्म पकवान जो मुख में धरे
जीभ-जलने पे फ़ौरन फूं -फूं करने लगे ....

स्त्रियों के सामूहिक श्रम से उपजा ये स्नेह निश्छल हैँ
मिलके उत्सव बनाने में कितना अपनापन है
गीत ,हंसी-ठिठोली ,छेड़छाड़ तो कभी खुसर-पुसर है
फाल्गुन के मस्ती का सब पे असर है ....

घर के ड्राइंग रूम में बैठकी होली सजी है
फर्श पे दरी गद्दे के ऊपर ,जाजम -चाँदनी बिछी है
सोफ़ा ,मेज कुर्सी ,टेबल बाहर गैलरी पे पड़े हैं
आस-पड़ोस के बच्चे उनपे बेफिकर कूद रहे हैं....

हर अतिथि के माथे अबीर ,गुलाल से तिलक है
सत्कार में सौंफ, मिसरी, छोटी इलायची प्रस्तुत है
चूल्हे पे बड़े से भौगोने में ढेरों चाय चढ़ी है
पकौड़ो के लिए घुले बेसन में माँ की अंगुलियाँ सनी हैं...

फाल्गुन के गीतों में शास्त्रीय संगीत की प्रधानता है
बजता हारमोनियम , और तबला इसमें जान डालता है
मिलती दादो के बीच गायक लंबा सुर तानता है
कितनी फरमाइशें, दिल एक से कहाँ मानता है ?

खुशनुमा बदलता मौसम ,त्यौहार के लिए मस्त है
केवल एकदिन का जश्न नहीं , हफ्तेभर का बंदोबस्त है
गिले-शिकवे भूल , सबसे गले मिलने पर जोर है
भंग की मस्ती में हर छोटा बड़ा गुनाह ना काबिल-ए-गौर है....

स्कूल से होली की छुट्टियों के पूर्व का आंखिरी दिन
सख्त चेतावनियों के बावजूद तैयारियाँ विभिन्न
बस्ते के एक कौने में छिपाया रंग और गुलाल
बस छुट्टी की लंबी घंटी का बड़ी ही शिद्दत से इन्तेजार...

गाल , बाल,यूनिफार्म, मौजे सब रंग में सने
छीनाझपटी में तुरपन उधड़ी ,कुछ बट्टन टूटे
सफ़ेद कमीज पे पक्के रंग के दाग से डरे
घर पे मम्मी के गुस्से का सामना हम कैसे करें ...
सहपाठिन को कैसे लगाये रंग थोड़ी हिचकिचाहट
देख़ो अनायास बंध टूटे जो देखा उसने मुस्कुराकर
कोमल गालो पे होले से हम अबीर मलने लगे
नव यौवना का स्पर्श पा अंदर तक सिहर उठे

आज रात्रि होलिका दहन का प्रोग्राम है
सबको देर रात्रि तक जगाने का इन्तेजाम है
VCR पे लगातार दो पिक्चर देख तीसरी पे जुटे
आती नींद बावजूद आँख मिचमिचाते वहीँ डटे

देर रात्रि होलिका जलने से पूर्व सबको जगाया
खाली कंटर पीटा ,दरवाजे का कुंडा जोरो से बजाया
कोई सोता रहा तो कोई निकल बाहर आया
कर्मठ कार्यकर्ताओं ने अपना कर्तव्य बखूबी निभाया

विधिवत पूजा-अर्चना उपरांत होलिका जली
बुराई पे अच्छाई की जीत बड़ी धूम-धाम से मनी
ईख पे गेहूं की बालियाँ लगा आग में सेकते हैं
प्रजव्ल्लित अग्नि की प्रदिक्षणा कर आशीर्वाद लेते हैं

बूंदी के दो-दो लड्डू प्रसाद में बटे
लौड़-स्पीकर पे होली के गाने जोरो से बजे
अबीर गुलाल जम-जम के उड़े
थके हारे सब थोड़ी देर सोने चले

प्रातः हम लोग थोड़ी देर से जगे
रंग वाली होली की तैयारियों में लगे
कडुआ तेल पूरे शरीर में अच्छी तरह पोता
सड़क से जल्दी आ गया होली खेलने का न्योता

सभी संगी साथी आपस में भिड़े
सफ़ेद कुर्ते पैजामे पे हर पड़ता रंग खिले
जमकर मचाया होली का हुडदंग
न शराब की जरुरत और ना ही पी भंग

हर आते जाते पे पानी की बौछार है
पिचकारी की धार , गुब्बारे की मार है
हर अजनबी से होली है की पुकार है
भूख लगने पे गुजिया की दरकार है

दिन भर होली की खूब मस्ती रही
कभी चिप्स पापड़ सूते , कभी बड़ा-दही
मुहल्ले का हर आंगन अपना से लगे
बचपन चलता रहे न हो कभी बड़े...

दोपहर हुई सूरज चढ़ आया
मम्मी ने बस करो का फरमान सुनाया
बाथरूम में नहाने के लिए गर्म पानी मिले
चेहरे का रंग छुटाने में पसीने छूटे

नहा धो जैसे ही बाहर निकले
कुछ साथी पोत गए आकर फिर से
कहाँ तुमने खेली हम संग होली
हमारा हक़ भी बनता हम हैं हमजोली

त्यौहार बीता खूब रहा धमाल
अब सारे हंगामे होंगेअगले साल
शाम को होली मिलन में जायेंगे
हर मिलने वाले को दिल से गले लगायेंगे

क्यों बड़े हुए क्या मिला बड़े शहर आकर
फ्लैट में अजनबियों सी जिंदगी बिताकर
कोई न मिलता यहाँ खुद से आकर
चार पैसे कमाये अपनापन गंवाकर

हर साल हर होली मेरा दिल जलता है
होलिका के खजूर के अधजले बूटे सा सुलगता है
गम को स्कॉच व्हिस्की में घोलता हूँ
नशे में खुद को भूलने की कोशिश करता हूँ

त्यौहार अब दिल से नहीं मनाता
औपचरिकता पूरी करने के बाजार से गुजिया ले आता
होलिका जले देखे जमाना गुजर गया
तरक्की के इस खेल में कितनो से कट गया....

पुराना बचपन रह रह के याद आता है
दिल के किसे कौने में पड़ा मासूम बच्चा झटपटाता है
बार बार मन उसी पुरानी होली के लिए मचलता है
खुद के बनाये जाल से देखे कौन पहले निकलता है.....

Saturday 2 January 2016

पुराना नया साल ....

दूरदर्शन का प्रोग्राम
देर रात्रि जगने के इन्तेजाम
पिताजी का पढाई का  उलाहना
पर कान पे जूं जरा भी न सरकाना
बंदिशों में थोड़ी छूट पाना
नींद भगाने के चाय बनाना
और रजाई के सफ़ेद खोल पे दाग लगाना

बस बारह बजने का इन्तेजार
शगुन के लिए किताब उठाने को तैयार
जो काम सबसे पहले  नए साल में करेंगे
साल भर वोही तो करते रहेंगे ...

वो थोड़े बहुत ग्रीटिंग कार्ड
खुशियाँ दे बेशुमार
घर की बैठक में  दीवार पे लटकाए
पीछे लिखे दामों को
बार-बार बस देखते जायें
सीमित साधनों में
सादगी से मनते उत्सव सच्चे थे
चकाचौंध विहीन समय के
हम सीधे साधे बच्चे थे ...

न पैसे,वैभव ,ऐश्वर्य का
खुलम-खुल्ला दिखावा
पिताजी का कोट छोटा करा के
पहले भाई फिर मैंने पहन डाला
दो अदद पतलून में १२ वी तक निभाया
ढ़ीली पडी इलास्टिक ने
पहनी जुराबों में फूल सा खिलाया
जूते यूहीं ही नहीं आ जाते थे
मोची जवाब दे दे तब पिताजी नए लाते थे...

अभाव तो नहीं , अति भी नहीं
अनुशासन और बचत का बोलबाला था
बचपन से अभिभावकों ने
ये ही संस्कार डाला था
मितव्ययी होने और
चीजो के  इष्टतम उपयोग की सीख थी
बच्चों के  चरित्र निर्माण की पक्की नीव थी....

आज के बचपन से मुझे शिकायत नहीं
भटकाव के दौर में कोई हिदायत नहीं
हम बस पैसे कमाने में ही  जूझे रहते
समय की कमी को उपहारों से भरते
हमने ही उन्हें चीजों का आदि बनाया
बचपन घर पे पड़ा रहा
बाहर न निकला और मुरझाया ....