Saturday 31 August 2013

जो बार-बार गिरे
रोज गिरे 
लगातार गिरे 
बोलो किया ???

रुपिया … 
गलत जवाब … 
सही जवाब है … 

अपना बेगैरत  मुखिया 

नज़र नज़र का फेर है

वो किसी को देखें
तो इनायत है

और हम देखें  तो
नज़र लगने की शिकायत है 
तुम्हारी शराफत
किस काम की
ये तो है बस
सिर्फ नाम की 

मुल्क लुटता रहा 
और तुम चुप रहे
हाथ पे हाथ धरे 
बस बैठे रहे 

यह दरबार जनता का है 
जवाब तो देना होगा 
कुछ न कुछ इल्जाम 
तुमको  अपने सर लेना होगा 

कल जो तवारीख लिखी जाएगी 
तुम्हारी इस खता के लिए 
यक़ीनन तुमको भी 
मुजरिम ठहरायेगी 





जिस की लाठी उस की भैंस
तो कहानी कुछ यों है कि एक ब्राह्मण को कहीं से यजमानी में एक भैंस मिली। उसे लेकर वह घर की ओर रवाना हुआ। सुनसान रास्ते में वह पैदल ही चला जा रहा था। बीच रास्ते में उसे एक चोर मिला। उसके हाथ में मोटा डण्डा था और शरीर से भी वो अच्छा तगड़ा था। उसने ब्राह्मण को देखते ही कहा – “क्यों ब्राह्मण देवताखूब दक्षिणा मिली लगती हैपर यह भैंस तो मेरे साथ जाएगी।
ब्राह्मण ने झट कहा- क्यों भाई?”
चोर बोला- क्यों क्याजो कह दिया सो करो। भैंस छोड़ कर चुपचाप यहाँ से चलते बनोवरना लाठी देखी हैतुम्हारी खोपड़ी के टुकड़े- टुकड़े कर दूँगा।
अब तो ब्राह्मण का गला सूख गया। हालाँकि शारीरिक बल में वह चोर से कम नहीं था। पर खाली हाथ वह करे भी तो क्या करेविपरीत समय में बुद्धिबल काम आया। ब्राह्मण बोला- ठीक है भाईभैंस भले ही ले लोपर ब्राह्मण की चीज यों छीन लेने से तुम्हें पाप लगेगा। बदले में कुछ देकर भैंस लेते तो पाप से बच जाते।
चोर बोला- यहाँ मेरे पास देने को धरा क्या है?” ब्राह्मण ने झट कहा- और कुछ न सहीलाठी देकर भैंस का बदला कर लो।
चोर ने खुश हो कर लाठी ब्राह्मण को पकडा दी और भैंस पर दोंनो हाथ रख कर खड़ा हो गया। तभी ब्राह्मण कड़क कर बोला- चल हट भैंस के पास सेनहीं तो अभी खोपड़ी दो होती है।
चोर ने पूछा-“ क्यों?”
ब्राह्मण बोला-“ क्यों क्या जिस की लाठी उस की भैंस।
चोर को अपनी बेवकूफी समझ आ गयी और उसने वहाँ से भागने में ही भलाई समझी। किसी ने सच ही कहा है कि जिसमें अक्ल हैउसमें ताकत है।

तो अब समझे कि यह कहावत यहीं से शुरू हुईजिस की लाठी  उस की भैंस।

Thursday 29 August 2013


too many economists  in a government ruin the economy of a nation
एक सरकार में ज्यादा  अर्थशास्त्री  ,देश की अर्थव्यवस्था का  भट्टा बैठा देते है.… 

Tuesday 27 August 2013

बंदगी उसकी करता रहा
कुछ ना कुछ 
पाने की ख्वाइश लिए ...

उसको ही पाने की करता 
तो सब कुछ मिल जाता
बिन ख्वाइश किये  ...
जब भी खुद को
मुसीबत में पाता हूँ
अकेला पड़ जाता हूँ 
पिताजी का हाथ 
अपने कंधो पे पाता हूँ 

अपनी नादानियो पे 
कितना लजाता हूँ 
लड़कपन में मिली 
उनकी डांट की अहमियत 
अब जान पाता हूँ 

समझ में आता है हमारे 
बचपन में क्यों सख्त था
मिजाज उनका
जब रोजमर्रा की जिंदगी में 
अपने को बेहतर पाता हूँ 

खुदा सलामत रखे
साथ हमारा
अपने हर दिन  को
उनके तजुर्बो से
रोशन पाता हूँ …





***खाद्य सुरक्षा बिल पारित होने की बधाई ***

ये खेल सियासत का
बड़ा अजब  है

खिलाड़ी  की हमेशा फ़तेह
और देखने वाले की
हर दफे शिकस्त है

Monday 26 August 2013

सुना है उनकी तबियत नासाज़ है
चमचो की भीड़ एकाएक उमड़ी तो खबर हुई… 
बेतरतीब सा फैला है
सामान  मेरे घर का
मुद्दते हुई  किसी
खैरख्वाह को आये

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खैरख्वाह =शुभचिंतक 
तेरी ग़ुरबत भी
जल्द दूर हो जाएगी
बस तू उनकी तरह
अपने ईमान का
सौदा कर ले …

तुझको भी उनकी
बेपनाह मुहब्बत मिल जाएगी
बस तू  अपनी खुद्दारी से
समझौता कर ले…

तेरी ये मुफलिस सी आवारगी
जलवा-आराई में तब्दील हो जाएगी
बस तू अपनी जुबान की
सिलाई कर ले

तेरी भी हर मुराद पूरी हो जाएगी
बस तू सही-गलत के फेर में
न पड़ने का अपने से
वादा कर ले …

तेरी भी रंगत बदल जाएगी
बस तू इस हमाम में
सबके साथ नहाने का
पक्का इरादा कर ले…







Saturday 24 August 2013

खामोश रहने और सहने की
सजा क्या खूब पाई है
कहने को ही लोकतंत्र है
घोटाले  है ,महंगाई है

गैरो की बात छोड़ो
अपनों ने अपनी बस्ती जलाई है

बगैरतो के हाथो
मुल्क  की बागडोर सौंप 
खुद ही हमने
अपनी लुटिया डुबाई  है …







इश्क़ में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती...मुनव्वर राना

इश्क़ में राय बुज़ुर्गों से नहीं ली जाती


आग बुझते हुए चूल्हों से नहीं ली जाती

इतना मोहताज न कर चश्म-ए-बसीरत मुझको


रोज़ इम्दाद चराग़ों से नहीं ली जाती

ज़िन्दगी तेरी मुहब्बत में ये रुसवाई हुई


साँस तक तेरे मरीज़ों से नहीं ली जाती

गुफ़्तगू होती है तज़ईन-ए-चमन की जब भी


राय सूखे हुए पेड़ों से नहीं ली जाती

मकतब-ए-इश्क़ ही इक ऐसा इदारा है जहाँ


फ़ीस तालीम की बच्चों से नहीं ली जाती....मुनव्वर राना

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बसीरत=चातुर्य ,मकतब-ए-इश्क़ =प्रेम की पाठशाला , 
इदारा =सभा
अजब कायदा है सियासत का मेरे मुल्क में
मुलजिम भी खुद ,मुंसिफ भी खुद … 

Friday 23 August 2013

बसर रही है अपनी जिंदगी
कुछ इस तरह से
लोग खफा है
अलग-अलग वजह से...





Thursday 22 August 2013

और क्या मांगता
खुदा से ए बन्दे ?
रहमते बख्शी है
तुझपे बेपनाह उसने

अब तो कर अपनी
मेहनत पे यकीं
खैरात में मिली चीज
ज्यादा नहीं चलती …

खुदा दुश्मनों को  सलामत रखे 
अपनों की वकालत आजकल बंद है 
छल से
बल से
दल  से
खल से
चले सियासत हमारी

पैसो से
ऐसो से
वैसो से
कैसो से
चले सरकार हमारी

जात से
घात से
लात से
मात से
चले  नेतागिरी हमारी

किन्तु …

आन से
मान से
शान से
जान से
चले  सेना हमारी 












कब्र पे उनकी आये हो,
जरा सब्र तो धरो
अब तो मुखातिब हो ,
मुखतलिफ न रहो

न कर पाएंगे तुमसे
अब वो जिरह
दो  फूल अकीदत के
कम से कम  पेश तो करो। …


अपना रुपिया चवन्नी हो रिया है
डालर उसे हर दिन धो रिया है

देश का अर्थशास्त्री सो रिया है
मुंगेरी लाल के हसीन सपनो में खो रिया है

आम आदमी  रो रिया है
महंगाई का बोझा बस ढो रिया है.…





Wednesday 21 August 2013

त्यौहारो पर बाज़ार हावी है
बस खरीदारी ही खरीदारी है 
खुशियों के अब बदल गए मायने 
तोहफों से ही तय होती औकात हमारी है… 
बांध सकता कौन
तरंगिणी के उन्मुक्त प्रवाह को 
कौन ले  सकता 
गहरे जलधि की थाह को 

गगन के विस्तार को 
कौन जान पाया 
सम्पूर्ण धरा को 
कहाँ कोई  माप पाया

बरसते रवि अनल से
क्या कोई  बच पाता  है ?
अनिल के वेग समक्ष
कब कौन ठहर पाता है ?


अविष्कारों ,खोजो के बल पे
मनुज कितना इतराता
अपनी शक्ति का दंभ भरता
इसका विवेक मर जाता

संसाधनों का असीमित दोहन कर
वो सोचता है 
दक्ष है, सर्वेश्रेष्ठ है वो 
ये सब उसके लिये  ही बना है 

सहनशील प्रकृति कुछ समय 
उसकी यह  धृष्टता सहती 
और अति होने पर आपदा ला 
दुगुना वसूल कर लेती ....
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तरंगिणी =River,जलधि =Sea, रवि =Sun, अनल=Fire,अनिल=wind







Tuesday 20 August 2013

बेकार ,बेमतलब , बेफिजूल के सरकारी विज्ञापन = मीडिया को दी जाने वाली घूस 

Monday 19 August 2013

बड़ा तंग है मिजाज उनका
सामने आते है पर भाते नहीं … 



Sunday 18 August 2013

रो लेना जार-जार  मेरी कब्र पे आके
नए चिने गए ईंटो को तराई की जरुरत होती है 
दायें हाथ को पता नहीं
इनका बायां हाथ क्या करता है
ये अपने  नेता है भईया
देश इन्ही से चलता है???…

देशहित  की बाते पुरानी
कौन यहाँ इन्हें करता है
रेत,कोयला ,खेल,खेत  खा गए
पर पेट इनका कहाँ भरता है ??
हर बार ही  कुछ नया खाने को
इनका जी मचलता है

ये अपने  नेता है भईया
देश इन्ही से चलता है …

कुर्सी से चिपकते ऐसे
लाज शर्म बेचीं हो जैसे
गरीब की सुध ले ये  कैसे ??
इनके हर कार्य होते ही ऐसे
की दिन-रात  इन्ही का  परिवार पनपता है

ये अपने  नेता है भईया
देश इन्ही से चलता है…

हर किसी को अपने पैरो की जूती समझे
जो मन में आये वो कह दे
पांच साल जनप्रतिनिधी चुने जाने का
कितना दंभ यह भरता है
कुछ भी गलत इसे कब कहाँ अखरता है

ये अपने  नेता है भईया
देश इन्ही से चलता है…


धर्म न हुआ धंधा हो गया
वोटो के खातिर दंगा हो गया
इंसानियत का भाव मंदा हो गया 
धू-धू कर जलते घरो पर
यह कितना तेल छिड़कता है

ये अपने  नेता है भईया
देश इन्ही से चलता है… 









Saturday 17 August 2013

थाली में छेद
अर्थव्यवस्था फेल
महंगाई की रेलमपेल
मुंहजोरी में ही श्रेष्ठ

घर का भेद
शत्रु का खेल
सेना का मनोबल ढेर
इनकी कथनी -करनी बेमेल

हर रोज घोटाले अनेक
अपना ही घर भरे सदैव
मौनव्रतधारी धृतराष्ट्र कृपा विशेष
खुल्ली छूट ,कुछ नहीं निषेध

किसी की नीयत नहीं नेक
किसी बात का नहीं खेद
सत्तालोलुपो का छदम वेश
जमीर तनिक भी नहीं शेष

साम्प्रदायिकता बनाम धर्मनिरपेक्ष
मिथ्या दुष्प्रचार,मन में द्वेष
जल्द तख़्त छूटने के मिल रहे स्पष्ट संकेत 
भयाक्रांत हो  मचा रहे सिर्फ क्लेश …



















अपने मक़सद से अगर दूर निकल जाओगे

ख्वाब हो जाओगे अफ़सानो में ढल जाओगे


ख्वाबगाहों से निकलते हुए डरते क्यों हो

धूप इतनी तो नहीं है के पिघल जाओगे



अब तो चेहरे के खद ओ ख़ाल भी पहले से नहीं

किसको मालूम था तुम इतने बदल जाओगे



दे रहे हैं तुम्हे जो लोग रफाक़त का फरेब

इनकी तारीख पढ़ोगे तो दहल जाओगे



अपनी मिट्टी पे ही चलने का सलीका सीखो

संग ए मरमर पे चलोगे तो फिसल जाओगे



तेज़ क़दमों से चलो और तसादुम से बचो

भीड़ में सुस्त चलोगे तो कुचल जाओगे



हमसफ़र ढूँड़ो न गैरों का सहारा चाहो

ठोकरें खाओगे तो खुद ही संभल जाओगे



तुम हो एक ज़िंदा जावेद रिवायत की मिसाल

तुम कोई शाम का सूरज हो जो ढल जाओगे



सुबह सादिक़ मुझे मतलूब है किस से माँगूँ

तुम तो भोले हो चिरगों से बहल जाओगे

( इक़बाल अज़ीम )

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रफाकत = रफीक या साथी होने का भाव , मेल-जोल
तसादुम =परस्पर टकराना
जावेद =स्थायी
रिवायत =सुनी सुनाई बात
सादिक =सत्यनिष्ठ 

Friday 16 August 2013

आज एक  नेक काम करते है
चलो मैकदे संग-संग जाम भरते है 
हफ्ते से पड़े इस मुर्दा शरीर में  
चलो फिर से जान भरते है ....

HAPPY WEEKEND...CHEERS...:)


Tuesday 13 August 2013

बड़े इज्ज़तदार है वो
कौम के  सिपहसलार है वो
रहनुमा बन लोगो के
हुए काफी मालदार हैं वो…

सुना है कुर्सी  के लिए
अपना ज़मीर बेच दिया
लालच की बुनियाद पर
फरेब का महल खड़ा किया

अब वो पहनते है खादी
और घूमते है लाल बत्ती में
नाम शुमार है सियासत की 
बड़ी हस्तियों में …





यूँ ही न लपेटो
मेरी हर बात को
जरा गौर से देखो
इस दिल को मिले घाव को

खाली-मूली  में हमारे तेवर
बागी न हुए
अल्फाज तल्ख़ और हम
इंकलाबी न हुए

कुछ तो शरारत की  होगी
इस नामुराद सियासत ने
हमारे साथ
वरना हम भी चैन से
घर बैठते
हाथो पे धरे हाथ ....
पराजय स्वीकार्य नहीं
अपने हौसलों  की
कभी भी  हार नही

लड़ता रहूँगा ,भिड़ता रहूँगा 
मुसीबतों से जूझता रहूँगा 

नहीं थकूंगा , नहीं रुकूँगा
लक्ष्य को अपने नहीं चूकूंगा

क्योंकि ये संसार
मेहनतकश  लोगो के लिए है
उन्ही की  होती सदैव
जय और विजय है …









जितना ऊँचा उठते है
उतना ही नीचे गिरते है
अपने देश में नेता
ऐसे ही मिलते है …



Monday 12 August 2013

क्यों मचाते हो चरस ?
काहे बो रहे  धान ?
क्यों करते  हो लकड़ी ?
काहे बाँटने लगते
हर बात पे अपना ज्ञान ?

हम नहीं इतने भी नादान
आगे बढ़ो और अब
हम पे कृपा करो श्रीमान …


Sunday 11 August 2013

हम में ही कुछ कमी रही होगी
तेरी नज़र यूहीं न फिरी होगी …

कल तक तो थे तुम
हमारे  कायल कितने
खता हम से जरुर
बहुत बड़ी हुई होगी … 
शिष्ट हो
निष्ठ हो
अभीष्ट हो
उत्कृष्ट हो
बच्चे हमारे

स्वस्थ हो
मस्त हो
आश्वस्त हो
सरपरस्त हो
बुजुर्ग हमारे

सहज हो
प्रत्यक्ष  हो
उपलब्ध हो
समृद्ध हो
मित्र हमारे

धुले हो
खुले हो
मिले हो
खिले हो
दिल हमारे

विश्वसनीय हो
दर्शनीय हो
प्रशंसनीय हो
अतुलनीय हो
कर्म हमारे

सीधी हो
सपाट हो
विराट हो
विशाल हो
सोच हमारी

खुश हो
खुशहाल हो
रोशन हो
मालामाल हो
घर हमारे ….




























ग़दर क्यों मचाई तुमने
हमारे देर से घर आने पे ?
हम कभी नहीं करते मौज
काम के बहाने से …

मुद्दे और भी है,
जो वख्त लेते है
जरा यकीं तो करो
जो हम कहते है

शक करना तो तुम्हारी
फितरत में शुमार है
पर इस अंधी दौड़ की
हम पर बेतहाशा मार है

दौड़ते रहते दिन-रात
एक बेहतर कल के लिए
अपना सुकूं खो दियें  है
चंद सिक्को के लिए …







वो बेवजह नहीं काटता
तलवे नहीं चाटता
लोगो को नहीं बांटता 

सीनाजोरी नहीं करता 
अपनी शक्ति का दंभ नहीं भरता 
सत्ता के लिए नहीं मरता 

कभी झूठ नहीं बोलता 
swiss बैंक में खाता नहीं खोलता 
बिन पेंदी के लोटे की तरह नहीं डोलता 

परिवारवाद नहीं चलाता 
भ्रष्टाचार  नहीं फैलता 
संसद में नहीं चिल्लाता 

गिरगिट के जैसे रंग नहीं बदलता 
कुर्सी के लिए  नहीं मचलता 
पैसे के लिए नहीं उछलता 

खादी नहीं पहनता 
अपनी शर्म को नहीं बेचता
शत्रु समक्ष घुटने  नहीं टेकता

इसलिए इस नागपंचमी
आप सब से  अनुरोध है

नेताओ को नाग  न कहे
उनके लिए उनके कार्यकलापो  अनुसार
अन्य कोई और उपयुक्त शब्द चुने

नाग को सिर्फ नागदेवता मान
सच्चे मन से उनकी स्तुति करे …


















Friday 9 August 2013

तेरे  तीखे तलख तेवर
मेरी मजबूर,मजलूम मुहब्बत 

संग साथ-साथ रहे
तो कैसे रहे ???
क्या क्या छोड़े ???
क्या क्या सहे  ???

तेरी तंग, तुनक मिजाज तबियत 
मेरी मस्त ,मलंग ,मनमौजी फितरत 




अहसान कौन
मानता मुल्क का
वो तो अपने इल्म के
गुरुर में जीते है

देने को और कुछ नहीं
तोहमतो के  सिवाय
इनके पास

बस अपना मतलब निकाल
रुखसत यहाँ से
ये अहसान फरामोश हो लेते है 

Thursday 8 August 2013

अजी तुमने
क्या पी शराब ??
कब कहाँ
मचाया बवाल ?

भसड फैलाई ?
ग़दर मचाई ?
अंग्रेजी सुनाई ?
बोतल ख़त्म करने की
शर्त लगाई ??

क्या कभी
ऐसे कदम लड़खड़ाये ?
शाम के घुसे
यारो पर  लदे
सुबह को ही
मैकदे से घर को आये …

क्या कभी जोर से चिल्लाये
अपनी न हुई
माशूका के नाम के
नारे लगाये ???

किसी  को गरियाये ??
बापू द्वारा  पकडे जाने पर लजाये ?
hostel के कमरे में
खाली बोतलों को सजाये ??

कभी रात भर
पलटियां  मारी ??
सुबह hangover ने
किया सिर को  भारी ??
निम्बू पानी से नहीं
एक और छोटा ले
दूर की अपनी
ये आफत सारी  ??

विलायती छोड़
देशी को सुख लूटा
पहली धार के ठर्रे ने
स्कॉच को भी
क्या कभी किया फीका ??

अगर नहीं तो फिर
तुमने क्या पी शराब ??
कब कहाँ
मचाया  बवाल ?








Wednesday 7 August 2013

उनकी गुस्ताखियाँ
किस कदर परवान चढ़ती है
हर रोज ही 
हम सबको  हैरान करती है 

अपने कहे से 
उनको कब कहाँ गुरेज ???
उनकी जुबां तो हमेशा 
खंजर का ही काम करती है 

पाले है कनेर के शजर  
हमने   आंगन में अपने 
अब उनसे  मीठे फल की चाहत 
हमको  ही बदनाम करती है 

धुँआ  घर की चौके से नहीं उठता मेरे 
हर रोज की फाकाकशी ही 
अपनी ज़िन्दगी बयां करती  है 

खुदगर्ज सियासत चिपकी  
जोंक सी मुल्क को मेरे 
रफ्ता-रफ्ता  हमारा  ही 
कत्लेआम करती है 






अपनी फाकाकशी में
उनसे आशिकी कर बैठे 
अंजाम की परवाह बिना 
हाय ये क्या गजब कर बैठे

जाल उनकी मस्त निगाहों ने फेका 
और  हम अपनी औकात भूल बैठे 
अपना ये मरदूद, मुफलिस दिल 
हाय क्यों बिन सोचे ही  दे बैठे 

शौक बहुत महंगे है उनके 
हम कंगाली में आटा गीला  कर बैठे 
अपने ही  हाथो से 
हाय अपनी ही जेबतराशी कर बैठे 

 








Tuesday 6 August 2013

हमारे इस दिमाग में
तरह-तरह के
ख्यालो  का  डेरा है

अपनी पेट भरने की
चिंता सबसे पहले
देश पीछे कहीं
छूटा अकेला है

मरता है तो मरे
सरहद पे सैनिक
उसकी सुध कौन लेता है ???

स्वार्थ से
लहू श्वेत हो गया हमारा
जमा रहता
अब धमनियों में कहाँ बहता है ??

बेफ़जूल है
अब वतन परस्ती की बाते
इनसे हांसिल क्या होता है ???

ढूंढे से नहीं मिलता
नई नस्ल को
सच्चा रहनुमा कोई
अपना मुल्क अब
कितनी किल्लत में जीता है
















भरे दिन में 
कभी इतना अँधेरा न था 
जलालत बढ़ती गई  
और हुकूमत  सोती रही 

Saturday 3 August 2013

इस जीवन में
बस इतना ही कमा पाया हूँ
कुछ सच्चे दोस्त बना पाया हूँ

बहुत खुशकिस्मत हूँ
जो मिले है यार ऐसे
खुद से ज्यादा भरोसा
जिन पे कर पाया हूँ …













Friday 2 August 2013

अपने आप में सिमटते जाते है 
कितने तंग हम नज़र आते है 

हिमाकत खुद की है 
तो शिकायत किस से करे ?
रोज खुद की  नज़रो में 
खुद को ही मुजरिम पाते है