Thursday 30 July 2015

अपनों से ही अपना सबकुछ लुटाये बैठा हूँ...

सर पे कितना बोझ उठाये बैठा हूँ 
न जाने कितनों से खार खाये बैठा हूँ 

मेरी चुप्पी को कमज़ोरी समझते है वो 
मैं तो अंगार को बस दिल में दबाये  बैठा हूँ 

तमाशे पे तमशा लगा रहे  हर जगह 
बेगैरतो को अपना खैरख्वाह बनाये बैठा हूँ 

हर सफ़ेद लिबास की चमक अब मैली सी  लगे
इस हमाम में सबको नंगा  नहाये  देखा हूँ 

आँखों से काजल तक चुरा लेते है  वो 
जिन्हें इस मुल्क का पहरेदार लगाये  बैठा हूँ 

बगावत के सिवा अब बचा क्या  मेरे पास ?
अपनों से ही अपना सबकुछ लुटाये बैठा हूँ...

Sunday 26 July 2015

ताकि संवरे अपना भविष्य ....

अपने बचपन का वो समय
पिताजी की सरकारी नौकरी
उसकी अपनी विवशतायें
क्षमतायें और मर्यादाएँ...

सीमित साधनों में निर्वहन
बचत और उपलब्ध चीजों के 
इष्टतम उपयोग के मध्य
अंकुशित तमाम इच्छायें...

कभी-कभी खीज उठता मन
देख आस-पड़ोस की अनगिनत
भौतिक सुख सामग्रियां जो होती
हमारे लिए अभिभावकों के 
अनेकों  तर्कों से शापित...

प्रस्तुत किये  जाते समक्ष
अनुकरणीय उदहारण
कुछ गुदड़ी के लालों के ,
पूर्व की पीढ़ी के अभावों के
और बताया जाता हमें धन्य...

कठोर वित्तीय अनुशासन संलिप्त 
हमेशा ही दे जाती सीख
कम में काम चलाने की 
और खूब पसीना बहाने की 
ताकि संवरे अपना भविष्य ....

Wednesday 22 July 2015

ये दिल फिर से छोटी-छोटी खुशियों का तलबगार है...

झमाझम बारिश का इंतज़ार है
ये दिल फिर से बच्चा बनने को तैयार है

मुद्दतों से इक गुसलखाने में सिमटा  हूँ मै
अबकी रूह तक तरबतर होने का ख्याल है

कुछ मट्टी में सने पाँव लेकर
माँ की उसी  पुरानी डांट की दरकार है

गीले कपड़े, जूते  और बस्तों समेत
कागज की कश्ती बनाने का विचार है

मसरूफ हो जुदा हो गया जड़ो से अपनी
यह दरख्त पुरानी जमीं के लिए बेकरार है   

इस तरक्की ने कितना  दूर कर दिया अपनो से
ये दिल फिर से छोटी-छोटी खुशियों का तलबगार है

इस गृहस्थी का असली शेषनाग....

सुबह  होते ही चाय की पुकार 
न मिलती हवाई चप्पलो की झुंझलाहट 
बाल्टी में गन्दा कच्चा बनियान तैरा डाला 
नहाने के बाद गीला तौलिया बिस्तर पे दे मारा 

जुराबे ढूँढने में अलमारी  उथल –पुथल 
बचकानी आदतें ,  कभी  न जाते सुधर 
अब पर्स और चाबी के लिए मचाई आफत 
बीवी ने हाथ में धर दिया तुरंत लाकर 

श्रीमती जी देखें जा रही  कितना मुस्कुराकर 
आँखे या बट्टन ? का उलाहना  चिपकाकर  
अब पकड़ा रहीं  चश्मा और टिफ़िन 
पतिदेव नज़र आ रहे कितने खिन्न 

बालकनी में आकर हाथ हिला कर रही विदा 
इस फैले घर समटने में लगेंगे पूरे दो घंटा
सब जा चुके अब सांस आई 
घर में मचे विध्वंस  पे नजरे दौड़ाई 

चलो पहले सुकून से चाय पीते है 
रात के छूटे सीरियल भी देख लेते है  
टीवी चला शुरू हुए घर के काम 
तड़के जगी इस नारी का कहाँ विश्राम ? 

तभी प्रेस वाले ने घंटी बजाई 
मेमसाब कपडे है ? की आवाज लगाई 
एकाएक आया  महरी का सन्देश 
गाँव जा रही हूँ , आई जरूरत विशेष 

चौगुना हुआ  काम का बोझ 
पहले झाड़ू कि बर्तन ? की पड़ गयी सोच 
धीरे धीरे सारा काम निबटाया 
घडी की सूईयों ने एक बजाया 

बच्चों के स्कूल से आने का हो गया समय 
क्या खाने में बने उठा संशय 
जल्दी से कुक्कर गैस पे चढ़ाया 
बिटियाँ की  पसंदीदा दाल में तड़का लगाया 

बच्चे घर आ गए हल्ला मचाते 
बस्ता पटक खेलने फ़ौरन बाहर भागे 
माँ गला फाड़ खाने को बुलाये 
अपनी  धुन में रमें बच्चे कहाँ सुन पायें ?

बार-बार कहने का हुआ असर 
बच्चे खाने की मेज  की ओर अग्रसर 
बालक ने परांठे खाने की इच्छा जताई 
तुरंत ही सेकने लगी मां जरा न हिचकिचाई 

स्कूल में आज क्या हुआ की हो रही खोजखबर 
कॉपी में कितने करेक्शन, कितना मिला होमवर्क 
गलती बता वो कर रही सुधार 
कभी चपत रसीदे तो कभी पुचकार 

साँझ होते ही फ़ोन खडखड़ाया 
मायके से माँ ने अपना दुखड़ा सुनाया 
माँ- बेटी कर रही देखो चटर-पटर 
भईया- भाभी की ली जा रही जमके खबर 

ऑफिस से हस्बैंड घर लौटे कितना भिनभिनाते 
कभी बॉस तो कभी शहर के ट्रेफ़िक को गरियाते 
सर दर्द में अदरक की चाय की इच्छा जताई 
पत्नी ने रसोई जा बड़े प्रेमपूर्वक बनायीं 

रात के खाने की हो रही तैयारी
उद्योग निरत रहती देखों यह नारी 
बच्चे भी पढाई-लिखाई में जुटे 
घर के सुकूं में पतिदेव अख़बार पढने लगे 

एक और दिन हो गया ख़तम 
समय पर सारे कार्य न कोई विलंब 
निंद्रा के आगोश में सम्पूर्ण  परिवार 
पर गृहलक्ष्मी को कल की सोच-विचार 

न कोई वेतन न कोई अवकाश है 
सम्पूर्ण परिवार का देखों 
इसके कंधो  पे  ही भार है 
ये ही तो इस गृहस्थी का असली शेषनाग है ...

Sunday 19 July 2015

पिताजी कैसे बदल दे एकाएक से अपने आप को...

दो जोड़ी कपड़े ही 
तन के लिए पर्याप्त थे 
दूर के सरकारी स्कूल के 
हेडमास्टर साहब लाजवाब थे... 
कई मील रोज 
पैदल जाने की कसरत  थी 
और जी तोड़ मेहनत से
अपनी किस्मत बदलने की हसरत थी 
न घोड़ा गाडी , न कार 
न बस न स्कूटर न हवाई जहाज 
पर बहुत ऊँचे थे उनके ख्वाब...

दादा कृषक थे गेहूं उगाते थे 
और उसे पिसा हाट में बेचने जाते थे 
कम में ही गुजारा होता था 
और ईश स्तुति कर 
परिवार सुख चैन न खोता  था 
देख दिखावे का न कोई  शोर था 
बच्चों की पढाई पे ही जोर था.... 

पैरों में जूते तक न होते थे
साबुन की  पिल्ली टिक्की से 
वे अपने  सर को धोते थे 
किसी विवाह-समारोह में जाना 
भयंकर मानसिक द्वन्द था 
खद्दर के निक्कर में भी पैबंद था

स्कूल की फीस तक जुटाने में 
पसीने छूट जाते थे 
पैसे बचाने के लिए 
खुद ही खाना बनाते थे 
शहर के  कुछ 
सबल रिश्तेदारों का अहसान था 
पर मन उनकी फब्तियों से 
कितना परेशान था .... 

पढ़ लिख जल्द से जल्द 
सरकारी नौकरी पाने का ही ख्वाब था 
दादी-दादी के घोर कष्टों का
हृदय बीधता प्रबल अहसास था 
छोटे भाइयों की जिम्मेदारी उठानी थी 
बहनों के हाथों हल्दी भी लगानी थी... 

नौकरी पा अपने कर्तव्यों का 
निर्वहन करते गए 
दिन प्रतिदिन नयी पीढी के 
खर्चे भी बढ़ते गए 
सारे पुराने उधार चुकाते गए 
भविष्य सुरक्षित रखने के लिए 
बचाते भी गए...

न बाहर होटलों में कभी  खाया 
न किसी वर्ष अपना जन्मदिन  मनाया 
न शनिवार शाम की कॉकटेल पार्टी थी 
न कोई AC कार हफ्ते भर में ही 
टैंक भर तेल खाती थी
न माल न शौपिंग 
न घूमने फिरने का खर्चा था 
न नित्य नए खरीदे 
इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से 
समय और चैन  का हर्जा था ...

अपना एक गरम सूट कई वर्षो चलाया 
पर हमें अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाया 
सीमित साधनों में उनके प्रबंध अच्छे थे 
उनकी पहली प्राथमिकता उनके बच्चे थे ....

अपने पे वो आज भी खर्च नहीं कर पाते है 
हम बच्चे उनकी इस बात पे 
कितना नाराज हो जाते है 
हमें जरुरत नहीं तो अब  
पैसे किसके लिए बचाते हो 
क्यों नहीं  घर का ये पुराना सामान बदल 
नया लेकर आते हो ?
फ़ोन पे  बार-बार ये ही बतियाना 
हमारी उनसे नाराजगी का कारण बन जाता है 
पर उनका गुजरा समय 
हमें कहाँ कब याद आता है ?

अतीत के कष्टों की 
उनके हृदय में आज भी टीस है 
मितव्ययी होने की हमको 
उनकी नेक सीख है
कहते है शिक्षा नहीं देते अपने बाप को 
पिताजी कैसे बदल दे 
एकाएक से अपने आप को...

Wednesday 8 July 2015

कुछ अक्षम्य कृत्य....

कुछ अक्षम्य कृत्य
कुछ प्रयाश्चित विहीन गलतियाँ
सतत अपराधबोध लिए
कितना कचोटता रहता
अपना यह मन....
होता कितना पश्च्याताप
बार-बार अतीत में जाकर
अपने आचरण की त्रुटियों को
सुधारने की न संभव हो सकने वाली
कल्पनाओं में विचरना हमें आता पसंद
पर बीता समय तो होता
पत्थर की अमिट लकीर की तरह
जिसे नकारना, बदलना,भूलना
होता भरे दिन में
खुली आँखों से देखना स्वप्न ...

लीजिये सीख अपने इतिहास से
और करिये हर संभव प्रयत्न
न हो वर्तमान और भविष्य में
मन वचन कर्म से जाने-अनजाने
पुनरावृत अपने कलंक

Saturday 4 July 2015

पुराना घर अब भी वहीँ है.…

मकानों की तादाद पहले से ज्यादा है
गली के नुक्कड़ पे भी भीड़ बेताहशा है
बगल का बाग न जाने कहाँ खो गया है
किसने ये ढेर सारा  यह कंकरीट बो दिया है
दौड़ते बच्चों की अब आवाज़ नहीं आती
पड़ोस की आंटी कटोरे में खीर नहीं लाती
न पुलिस को चोर की तलाश है
न आईस-पाईस के धप्पे पे शोर बेहिसाब है
बचपन टीवी , मोबाइल में सिमट गया है
आगे बढ़ा कि नीचे धंस गया है ???
इतने अनजान  चेहरों के बीच
पहचाना कोई नहीं है
पुराना घर अब भी वहीँ है …

लोहे का गेट जंग खाया सा  है
बागीचे में झाड़ उग आया सा है
हैंडपम्प सूखा सूखा सा है
रंग दीवारों का रूठा-रूठा सा है
खिड़कियों की जलियां धुल में सनी है
छत पे  बस  डिश  की  छतरी ही  नई है
दीमक खा  गया है सारी  फंटियों को
ढीली पडी साल की चौखट की सुध किसको ?
शीशम  का दरवाजा पानी  पा अकड़ गया है
उसका कुंडा भी कबका बिगड़ गया है
दो बूढ़ी आत्मायें सशरीर जमी है 
पुराना घर अब भी वहीँ   है....

बरामदे  में अब पानी ठहरता है
बैठा हुआ दानेदार मार्बल का फर्श
मरम्मत के लिए कहता है
बिजली के सफ़ेद बटन मटमैले हुए
कितने फोटो फ्रेम अब टेढ़े हुए
वाश -बेसिन  का नल बेहिसाब टपकता है
उखडती पपड़ियों के बीच
दीवार का पहले वाला रंग  दीखता  है
बाथरूम की फिटिंग्स सारी ढीली हुई
सीलन से दोछत्ती  भी गीली हुई
कानिस में रखा सामान तितरबितर है 
काली पड़ी रसोई की छत की अब किसको फिकर है 
पता नहीं क्या गलत और  क्या सही है
पुराना घर अब भी वहीँ है.…

न घंटी बजा कुल्फी बेचने वाला है
न बुढिया के बाल न दूधियाँ गोले वाला है
मदारी  अब भालू नहीं लाता
संकरी हो चुकी गली में अब हाथी नहीं आता
काली माई बन के  कोई नहीं डराता
डुगडुग्गी पे अब बन्दर का नांच  नहीं
बाईस्कोप में झांकना बीते कल की बात हुई
अपनी आसमानी तरक्की की यहीं तो कमी है
पुराना घर अब भी वहीँ है …

इस आँगन का पला बड़ा बच्चा
कहीं दूर निकल गया है
खुद ही में खो शायद
रास्ता भटक गया है
इसलिए बूढ़ी आँखों को
अब किसी से कुछ आस नहीं
अवसान की इस बेला अब फ़रियाद नहीं
मकान को घर बनाने वाला अब थक गया है
विश्राम करने के लिए  रुक गया है
जितना हो सके अब उतना ही करता है
पर ये वीरानापन उसे खूब अखरता है
स्वाभिमान से  जीने में ही उसकी ख़ुशी है
पुराना घर अब भी वहीँ है.…

जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं ...

हर साल सर के  बाल  कम हो जाते है
बचे बालों में और भी  चांदी पाते  है  
चेहरे पे झुर्रियों की तादाद  बढ़ा जाते है 
रीसेंट पासपोर्ट साइज़ फोटो में  
कितना अलग नज़र आते है 
“अब कहाँ पहले जैसी बात “ कहते जाते है 
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

सुबह की सैर में चक्कर खा जाते है 
सारे मौहल्ले को पता पर हमसे छुपाते है  
दिन प्रतिदिन अपनी खुराक घटाते है  
और तबियत  ठीक होने की बात फ़ोन पे बताते है 
ढीली हो गयी पतलून को  टाइट करवाते है
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

किसी के देहांत की खबर सुन घबराते है 
और अपने परहेजो की संख्यां  बढ़ाते है  
हमारे मोटापे पे हिदायतों के ढेर लगाते है 
‘तंदुरुस्ती हज़ार नियामत "हर दफे  बताते है 
"रोज की वर्जिश"  के फायदे गिनाते है  
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

हर साल बड़े शौक से बैंक जाते है 
अपने जिन्दा होने का सबूत दे कितना हर्षाते है  
जरा सी  बड़ी पेंशन पर फूले नहीं समाते है 
एक और नई  FIXED DEPOSIT करके आते है
खुद के लिए नहीं हमारे लिए ही बचाते है  
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

चीज़े रख के अब अक्सर   भूल जाते है 
उन्हें  ढूँढने में सारा घर सर पे उठाते है 
और मां को पहले की ही तरह हड़काते है 
पर उससे अलग भी नहीं रह पाते है 
एक ही किस्से को  कितनी बार  दोहराते है 
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

चश्मे से भी अब ठीक से नहीं देख पाते है 
ब्लड प्रेशर की  दवा लेने में आनाकानी मचाते है 
एलोपैथी  के साइड इफ़ेक्ट बताते हैं 
योग और आयुर्वेद की ही  रट लगाते हैं 
अपने ऑपरेशन को और आगे टलवाते है 
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

उड़द की दाल अब नहीं पचा पाते है 
लौकी , तुरई और धुली मूंग ही अधिकतर खाते है 
दांतों में अटके खाने को  तिल्ली से खुजलाते है 
पर डेंटिस्ट के पास कभी नहीं जाते  है 
काम चल तो रहा है की ही  धुन लगाते है 
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...

हर त्यौहार पर  हमारे आने की बाट जोहते जाते है 
अपने पुराने घर को नई दुल्हन सा चमकाते है 
हमारी पसंदीदा  चीजों के  ढेर लगाते है 
हर  छोटे-बड़ी  फरमाईश पूरी करने  के लिए 
फ़ौरन  ही बाजार  दौडे चले जाते   है 
पोते-पोतियों से मिल कितने  आंसू टपकाते है 
देखते ही देखते जवान पिताजी बूढ़े हो जाते हैं  ...