Friday 29 August 2014

गुनाह  तो जगजाहिर है
पर मुलव्वस बड़ा माहिर है
खबरों में खबर नहीं
कायम रहती सियासी रंगीनियाँ
और हम तुम करते
सिर्फ कानाफूसियाँ

Thursday 28 August 2014

अपना कालेज कई मायनो में विशिष्ट था , है और आगे भी रहेगा....

न जाने कितनी पीढ़ियां निकल गयी इन BH-1 ,BH-2,BH-3, BH-4 , GH और BH-5 ( हमारे ज़माने में  नहीं था ) से पढ़कर , बस समय बदला ,चेहरे बदले ,प्राथमिकतायें  बदली पर किसी भी काल खंड में हम 'GANESHIANS' की फितरत न बदली ।  मेधा  ,मस्ती और उज्जड़पने की त्रिवेणी सदैव ही कायम रही और यही बात हम सबको आपस में जोड़े रखती है

मोटे तौर पे हॉस्टल के दिनों में हम लड़के दो भागो (Groups ) में विभाजित थे , एक जो दारू पीते थे और दूसरे जो नहीं पीते थे.....

न पीने वाले highly  image conscious लोगो  की श्रेणी में आते थे , इन्तेहाँ नज़ाकत और नफासत पसंद... इनका हर एक काम GH को अपने जेहन में लेके होता था । साफ़-सुथरे,नहा धोके ,समय से सुबह 8 बजे वाले lecture में पहुँचना , front row में बैठना , टक-टकी लगाये प्रोफेसर साहब को देखना , तीन-चार रंगो की  कलमों   (Pens )और   शदीद मशक्कत के साथ गुरूजी के द्वारा बोली और black board पे लिखी हर बात नोट करना जैसे वो कोई ब्रह्मवाक्य हो इनकी रोज की आदत में शुमार था.… 

हर पूछे  सवाल पे तुरंत अपना हाथ रूपी एंटीना खड़ा कर देना , और ऐसी कोई हरकत करना जिससे सबका ध्यान इनकी और आकर्षित हो और जवाब  देने के बाद वो विश्व-विजेता वाली चमक इनके चेहरे पे देखने लायक होती थी.… Lecture के बाद जब तक ये किसी बालिका से लस न ले इनका सुबह का नाश्ता  हजम नहीं होता था.… 

इन लोगो का कमरा हमेशा व्यवस्थित रहता था , बिलकुल सफाई से,बिस्तर के पीछे  लगा बिना सिलवटो वाला  प्लास्टिक  वॉल पेपर, उसके ऊपर पीतल की चौड़ी drawing pins से ठुकी black ribbon , सलीके से सजी study table और उसके ऊपर चमचमाता  टेबल लैंप और emergency light , करीने से रखी किताबे ,घर-परिवार, देवी देवताओं की फोटो आदि-आदि ..... कितना विहंगम दृश्य प्रदान करती  थी .… 

इनके पास हमेशा घर से आये लड्डू,मठरी ,देशी घी व अन्य खाद्य सामग्री प्रचुर मात्रा विद्यमान  रहती थी  पर इनकी हर जरुरी चीज ताले में बंद रहती थी और आप इनसे कुछ भी मांगने की गुस्ताखी नहीं कर सकते थे, अगर गलती से आप से ये गुनाह हो गया तो ये अपनी लानत भरी नज़रो से आपको ये जता देते थे कि आप से बड़ा भिखमंगा इस जहान में कोई दूसरा कोई और  नहीं  …

ये लोग व्यवस्थित थे पर सीमित थे , इनके दोनों सिरे आसानी से प्रदर्शित हो जाते थे.… 
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

और दूसरा group था पीने वालो का ....धर्म, जाति ,शहर , स्कूल , पारिवारिक पृष्टभूमि , juniority, seniority का फर्क यहाँ नदारद था.… RUM में रमे ये लोग ख़ुदपरस्त नहीं खुदा-परस्त थे 

भेद को मिटा देना उस मालिक की सच्ची इबादत है और ये लोग इस कला में माहिर थे.… 

जो सोये ही रात के तीन बजे उसके लिए सुबह के  lecture के क्या मायने ?   Proxy के सहारे इनका  वजूद कायम था.… 

ये लोग कॉलेज और कानपुर की नस-नस से वाकिफ थे , हर छोटी ,बड़ी घटना पे इनकी सटीक और पैनी नज़र होती थी  , संगठन में शक्ति वाली कहावत  को ये लोग ही अपने पौरुष से चरितार्थ करते थे....
GSVM में होने वाले हर छोटे बड़े आयोजन का भार इनके कंधो पे ही होता था और ये लोग बख़ूबी उसे अंजाम भी देते  थे.… 

ये लोग BH के इतने आदी होते थे कि इन्हे GH जाने की आवश्यकता ही नहीं   थी , सलीको में सिमटजाना इनके मिज़ाज में  था ही नहीं  … 

कमरा भी बेतरतीब सा फैला रहता था , इधर ,उधर पड़े  कपडे , किताबे, cassettes, हवा में मौजूद जले तम्बाकू की गंध ,  फ़िल्टर सिगरेट के थूड्डो से लबालब स्टील की कटोरी  ,कपड़ो ख़राब करता दीवारो से  छूटता हुआ रंगीन चूना, उखड़ते हुए हसीनाओं के फड-फडाते  पोस्टर  ,कमरे के बाहर नाश्ते और खाने की औंधे मुँह गिरी हुई  प्लेटे/गिलास   और न जाने क्या -क्या  इन लोगो की  बहुमुखी प्रतिभा के विभिन्न रंगो को प्रदर्शित करता था.मजाल है के आप इनके इस तरह से  बिखरे हुए व्यक्तित्व का कोई सिरा तलाश कर  पाए , ये सीमओं से परे था , असंख्य संभावनाए लिए … 

कमरे की कोई भी चीज ताले के सुपुर्द नहीं ,  अगर आपको किसी भी चीज की जरुरत हो , पूछने की जहमत ना कीजिये बस उठा के ले जाइए , इन्हे कोई मसला नहीं पर हाँ   काम हो जाने के बाद शराफत से उसे वापस रख दीजिये वरना गाली खा के तो आप को रखनी पड़ेगी ही .... :)

image build  up की जगह ये खुद अपनी image destroy करने पे ज्यादा यकीं रखते थे और हो  भी क्यों न सम्पूर्ण विनाश ही तो नव-सृजन की पहली शर्त है.…  

संबंधो शर्त कैसी ? कोई पसंद  है तो उसे वैसे ही पसंद कीजिये जैसे कि वो  है , बिना किसी लाघ-लपेट के या मीनमेख निकाले.... नए सबंधो को स्थापित करने में यदि दिमाग लगाओगे तो हर दिन फायदे नुक्सान के हिसाब में ही मसरूफ रहोगे और चीजें अगर दिल से तय होंगी तो प्यार और विश्वास हर दिन परवान चढ़ेगा  .... 

जिंदगी में अनेक मुकाम हांसिल होंगे , बात तो बस उनको हांसिल करने के सफ़र की है ,संजीदा रह के करोगे तो राह कठिन लगेगी, मस्त-मौला रह के करोगे तो दुश्वारियों का पता भी नहीं चलेगा ...


उम्र के  चौथे दशक की और बढ़ते हुए, पुराने दिन और याद आने लगे है , काफी समय गुजर गया  ज़िन्दगी और carrier के बीच सामंजस्य बैठाते हुए.ये कभी न ख़त्म होने वाली जद्दोजेहद आगे भी जारी रहेगी ...
अपने कॉलेज के दिनों को याद करके  कुछ सुकूं हांसिल करने में हर्ज़ ही क्या है ? मै तो एक लम्बे अरसे से कर रहा हूँ , आप भी कीजिये 












Saturday 23 August 2014

अक्सर पूनम और मेरे बीच बहस का एक मुद्दा होता  है  "कानपुर" .... हर बार की तकरार में वो हमेशा कहती रहै पता नहीं क्या है तुम्हारे इन कानपुर मेडिकल कॉलेज के दोस्तों में  जो तुम इनके पीछे बौराय हुए घूमते रहते  हो.… अगर कोई कनपुरिया घर आज जाए तो तुम अपनी सुध-बुध ही खो देते हो और तुम सब मिलके घंटो तक कानपुर -कानपुर की ही रट लगाये रहते हो.…

शादी के ७ सालो में लगभग ९०% लोग जो घर आ के खाना खा के गए वो Ganeshian ही थे.… उनके साथ अत्तीत के उन सुनहरे लम्हो को  बांटने में जो दिव्य  आनंद  मिला  है वो कहीं और कहाँ ,? MBBS  के बाद अर्जित की  गई डिग्रियां और  कमाए गए नोट उसके कहीं आस-पास भी नहीं फटकते...

 ऐसा इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि  हम सब आज भी उसी  पुरानेपन  को अपने में समाये हुए है ,कोई चाहे जिस भी मुकाम पे हो,  इन होनी वाली मुलाकातों में  अपना वहीं पुराना ट्रेडमार्क कमीनापन और अपनापन प्रदर्शित  करता है  जोकि  उसकी खास पहचान रही है , वर्तमान की उपलधियां अत्तीत की उन UG वाली संग की गई कारगुजारियों पे कभी भी हावी नहीं हो पाती

जिन संबंधो में स्वार्थ नहीं होता वे चिरस्थाई होते है …

कानपूर वालो को समझने के लिए कोई "Rocket  Science" की आवश्यकता नहीं , बस आपको उन्ही की तरह फक्कड़  और उन्ही की तरह दबंग, उन्ही के तरह मस्त और  उन्ही की तरह मलंग बनना पड़ेगा जो हर किसी के बूते की बात नहीं...

गंगा मैया का पानी किस्मत वालो को ही पीने को मिलता है  और हम कनपुरिये तो उस में नहाये हुए है.…

तो इस भाग-दौड़ और रेलम-पेल वाली ज़िन्दगी में मिलते रहिये , मेलजोल बड़ाते  रहिये,जाम टकराते रहिये और हमारे घर आते रहिये.... आप लोग ही मेरे लिए बेस्ट tranquilliser & best anti hypertensive हो ...






Friday 22 August 2014

हमारे इश्क़ की मियाद खत्म है
रकीबों को हमारी ये हालत पसंद है

अपने कहे से मुकर रहे है बार -बार
लगता है मेहबूब को सियासत पसंद है

न टूटेंगे ,न बिखेरेंगे तुझ से जुदा हो के हम
हमारी शख़्सियत में अभी  इतना दम है

बे रोक टोक जश्न मन रहा है  तेरे जाने का
हमारे मैकदे की रौनक से दुनियां दंग है


जब जन है तो मत भी होगा ,और अगर मत है,,, वो तो निसंदेह अलग-अलग होगा।।। उत्कृष्ट होगा , निकृष्ट होगा (खुरपेची वाला ), नहीं भी होगा , पर ये अलग-अलग अलगाव पैदा न करे कुछ पोस्ट और विचार पढ़ के मन व्यथित हो जाता है। । अच्छे को सराहिये बुरे की निंदा कीजिये  जमकर कीजिये बाल की खाल निकालिये उसके अंदर के बबाल का भी विश्लेषण कीजिये मगर तर्क के साथ.… कुतर्क के लिए लेशमात्र भी स्थान नहीं।।। ऐसा लिखिए के पढ़ने वाले को  kick मिले वही सलमान खान वाला।।।






अच्छे -बुरे का भेद एक व्यापक चर्चा का विषय है। देश , काल ,रीति और समाज के अनुसार ये परिभाषित होता रहा है और आगे भी होता रहेगा। हमारी हिन्दू सनातन धर्म के परंपरा के अनुसार मांस- मदिरा का सेवन हमेशा से ही बुरा और निषेध माना गया है और इसके लिए किसी दिन या महीने के कोई विशेष छूट नहीं। समय के अनुसार लोगो की खान-पान की आदते बदली है और नई पीढ़ी तो हमेशा से ही प्रयोगात्मक रही है। स्वनिर्मित ये अल्पकालिक निषेध शायद उस अपराधबोध को कम करने में थोड़े बहुत सहायक होते है जो हमें इन वर्जित माने गए  कार्यो को करने के बाद  होता है … और भईया Liver भगवान ने एक ही दिया है उसे भी तो थोडा बहुत आराम चाहिए ना 
बात कानपुर के कॉलेज के दिनों की है.… sale से एक सफ़ेद अंगूरा का स्वेटर ले दीवाली पे पिताजी को भेंट किया। पिताजी ज्यादा brand conscious  न तो पहले थे न अब  है पर उस समय woolmark के निशान को देख बस इतना समझ गए कि यह गरम तो जरूर होगा (पहाड़ी आदमी को ऐसी ही चीजों की तलाश रहती है) …

काफी कहने और बढ़ते जाड़े में एक दिन वे उसे पहनकर विद्यालय चले गए। स्वेटर को देख साथी अध्यापकों (जो कि उनके स्वाभाव और आदतों से भली-भांति परिचित थे ) ने कहा.… प्रिंसिपल साहब ये कहाँ से  से ले आये? , आपने तो पक्का नहीं ख़रीदा होगा , बहुत महंगा है जरुर बेटे ने दिया होगा...

अगली छुट्टियों पे जब दोबारा घर पंहुचा तो देखा के  पिताजी ने वो स्वेटर ,वापस मोमजामे की पन्नी चढ़ा कर ,सहेज कर वापस डिब्बे में रख दिया है.… मेरे ऐसा पूछने पर वे बोले .... काफी कीमती है, इसलिए संभाल  के रखा है.… कभी-कभार विशेष मौको पे ही निकलता हूँ...

इस घटना के लगभग 13 वर्षो बाद , पिछले वर्ष जब में घर पहुँच एकाएक बड़ी ठण्ड पे जब मैंने उनसे स्वेटर माँग की  तो उन्होंने उसी को लाकर मेरे सामने रख के मुस्कुरा के बोले... ले तेरा ही लाया हुआ तुझको दे रहा हूँ

गजब की क्षमता है हम से एक सिर्फ एक पीढ़ी पहले के लोगों में चीजों को सहेज के रखने  और मितव्यता की जिसे हम अक्सर कंजूसी कह के हास-परिहास में उड़ा देते है.....

घर में लगे  सामान के अंबार बावजूद हर दिन कुछ न कुछ खरीदने की खुजलाहट की बीच कभी- कभी जरूर ये ख्याल आता है.… काश ईश्वर  हमें भी वो ही सलाहियत बख्श  देता …

वैसे अब भी वो स्वेटर मेरे पास है पर हालत काफी खस्ता है....

फिर से इंतेखाब का वख्त है
छूटेगा कोई इसकी कशमकश है

शायद जो मुनासिब हो नसीब हो हमें
मुश्किल वख्त इम्तिहान सख्त है 
नग्नता में  सृजनात्मकता तलाश …  कुछ लोगों  की हमेशा से ही ये ही कोशिश रही और वे इस पे वाद-विवाद करने के लिए हमेशा ही आतुर रहते है.… अपने को सही साबित करने की इनकी मशक्कत पहले भी थी और आज भी है.… अब ये PK भी इससे ज्यादा और कुछ नहीं।।। फिल्म बॉक्स आफिस पे हिट हो जायेगी और इनका किया हर  अनुचित कार्य उचित।।।। जब सिक्के की खनक ही सफलता और सही-गलत का मांपदंड हो जाये तो इन जैसे लोगो से आशा रखना सिंधु में मीठे जल तलाशने जैसा ही है


हर सियाह यहाँ पे  सफ़ेद है 
 अपनी मौजूदगी पे हमें खेद है 

हक़ हलाल की बातें बेमानी 
छीनने में कब किसे गुरेज है 

लानत मिल रही है अपनी तरबियत पे 
क्योंकि हमें बेमानी से परहेज है 

क्या नेता क्या नौकरशाह  
यहाँ तो अदना चपरासी भी सेठ है 

सबने मिलके बना रकखी चौकड़ी 
खींचतान, बन्दर बाँट का खेल है 

जमीर मर चुका है कितनो का यहाँ 
जिनमे बाँकी  वो तो मटियामेट है 

बचा लो इस मुल्क को नौजवानो 
तुम से ही उम्मीद  अब शेष है 





पहले खूब  भाता था कितनो को
पर अब  कितना  अखर  गया  हूँ
मै जो मुख़ालफ़त पे   उतर गया हूँ

हर दिन मुझे रहती है  कोई   शिकायत
लोग कहते है  हद से गुजर  गया हूँ
मै जो मुख़ालफ़त पे   उतर गया हूँ

अल्फ़ाज़ अब न रहे चासनी सरीखे
सच की कडुवाहट में घुल गया हूँ
मै जो मुख़ालफ़त पे  उतर गया हूँ.…

यार-दोस्त ,नदारद है आसपास से
गलत को सही कहने से मुकर गया हूँ
मै जो मुख़ालफ़त पे  उतर गया हूँ.…






















दोस्ती

अपनी दोस्ती का जश्न मनाने के लिए क्या हमें कोई तारीख मुकर्रर करने की जरुरत है ? भइया हम तो रोज मनाते है और जमकर मनाते है.… 

ईश्वर ने नेक माँ-बाप दिए , लाड करने वाले भाई बहन , सबसे पुराने,पक्के और सच्चे दोस्त आज भी वही है.… हमारे पिता थोड़े सख्त मिजाज के थे , उस समय प्रचलन भी वैसा था , होते हुए भी बच्चों से स्नेह का खुल्लम-खुल्ला प्रदर्शन प्रायः पिता नहीं किया करते थे पर इसकी भरपूर भरपाई माँ के द्वारा कर दी जाती थी.… , हमारी गलतियों ,शैतानियों ,परेशानियों ,जरुरतो और गुस्से का पहला ठिकाना वो ही थी ,माँ कवच की तरह होती थी, हर विपदा में रक्षण उसी से प्राप्त होता था.…

अच्छे संस्कार मिले ,पढ़ लिख के अल्लाह मियां की गाय की तरह कॉलेज पहुंच गए.… बस यहीं से लाइफ ने एक जबरदस्त यू-टर्न मारा। अपनी क़ाबलियत सिद्ध होने के तमगे साथ-साथ एकाएक आज़ाद माहौल मिला, सुबह के संडास से लेकर रात के २ बजे की चाय के बीच हर छोटी बड़ी चीज हमारे लिए नई थी.… और हमारे साथ पहली बार जिस किसी ने इनका अनुभव किया वो कमीने दोस्त ही जिंदगी की कमाई हुई सबसे बड़ी दौलत है और हमारे सबसे बड़े राजदार भी...

कौन सा दिन नहीं जब ये ससुरे याद नहीं आते , इन्हे गरियाने,लतियाने का मन नहीं करता, बस बंधे रहते है कुछ खुद की बनाई हुई मजबूरियों से और काफी समय यूँ ही गुजर जाता है इन से मिले और बात किये हुए.…

और जब कभी सोमरस के आधिपत्य में बहुत खुश और Senti हो जाते है तो फ़ोन पे चिल्लाकर देर तक बात करके इन्हे अपने होने अहसास करा देते है.… फिर से मिलने के वादो के बीच हम फिर से मशगूल हो जाते है अपने अपने उन्ही रोजमर्रा के कामो में.…

शादी के बाद बीवी से आस रहती उन्ही कमीनो के थोड़े बहुत अंश की जो पूरी न होने पर अक्सर हमारे बीच एक न खत्म होने वाली बहस का कारण बन जाती है.....

पतंगबाज़ी

बहुत ज़्यादा साधन -सुलभ तो नहीं पर अन्वेषणों से परिपूर्ण था हमारा बचपन.... हर छोटी-बड़ी बात कुछ न कुछ सिखाती थी और ऐसे ही कुछ सीख-सीख कर हम बड़े हो गए....
मुक्कमल तो कोई नहीं हो सकता...अगर हो जाए तो खुदा न बन जाए.… 
बचपन में पतंगबाज़ी का बहुत शौक था... पिताजी को ये पसंद तो न था पर गर्मियों की छुट्टियों में इसकी इज़ाज़त मिल ही जाती थी और साथ-साथ एक हिदायत भी कि सम्भल के...इसके आगे कबूतरबाज़ी , मुर्गाबाज़ी ,बटेरबाज़ी शुरू मत कर देना और ये रियायत बस स्कूल खुलने तक ही है...
छिद्दन मियां की दुकान हमारे शहर में पतंगबाज़ी के सामान के लिए सबसे मशहूर थी, कल्लूमल हलवाई और बूरा बताशा गली की मंडराती मक्खियों से ज्यादा यहाँ हम जैसे पतंगबाज़ बालको की भीड़ होती थी और सबके सब भिड़े रहते थे जल्दी से जल्दी सामान लेने के लिए....
सालाना परीक्षा पास करने के बाद १० रुपिये मिलते थे और हम भी किसी कुशल अर्थशास्त्री की तरह अपना बजट बनाने लगते थे.… दो रुपिये की चरखी , उस पे चार रूपिए की पतली सद्दी का गुल्ला , एक-एक रुपिये लाल और काला रामपुरी मांझा , पच्चीस पैसे वाली चार पतंग, और एक अठन्नी वाला चाँदतारा... बांकी के बचे पचास पैसे लाल जीभ की गोली और चूरन के लिए होते थे। पाई-पाई का इतना सटीक मौखिक हिसाब होता था कि साल भर कान मरोड़ने वाले गणित के मास्साब अगर उतर पुस्तिकाओ की जगह इसे देखते तो जरुर हमपे फर्क करते....
शिक्षा में रूचि रखने की बात कहने की बजाय अगर रूचि में शिक्षा रख दी जाए तो इस देश की कायाकल्प हो जाये ....
घर से लगभग एक किलोमीटर की दूरी पे स्थित इस दूकान पर स्वयं अकेले ही खरीदारी करने जाते थे, भीड़ से बचते बचाते उस एक अदद जान से प्यारे दस के नोट को अपने दिल से लगाये हुए ....
कनकव्वे बड़ी ही बारीकी से छांटे जाते थे, कटी-फटी न हो ,बीच की बांस की तिल्ली मोटी न हो और पतियाना निकाल के उसकी प्रत्यास्था (elasticity) का झट अनुमान लगा लेना कितना विशिष्ट अनुभव प्रदान करता था ....
कन्ने (सुत्तल) बांधने ने गाँठ लगाने का पहला रोचक अनुभव दिया , अगली सुतल छोटी करने से पतंग घूमेगी मगर कम हवा में भी उड़ जायेगी , पिछली को छोटी करने पे शुद्ध (स्थिर) रहेगी और अगर तेज हवा है तो पुछल्ला बाँध के आप अपनी पतंग को उड़ा सकते है और ऐसी न जाने कितनी सुनी-सुनायी बातों को खुद अनुभव करके परखा और उन्हें सही पाया वरना आजकल तो सियासी झूठ को बिना जांचे हम सच मान लेते है और कुछ बेगैरतो की स्वार्थ की अग्नि में खुद को इंधन की तरह झोंक देते है.... खुद तो जलते ही है, कई औरो को भी जलाते है....
बचपन में सयाने थे और सयाने होके बेवकूफ हो गये ....
छुटकाई लेने की प्रक्रिया में छत और मैदान के विभिन्न कोणों को भांप लिया जाता।आटे,भात और बेल के फल का गोंद की जगह पतंग चिपकाने के उपयोग ने हमें उपलब्ध साधनों में काम चलाने की कला में निपुण किया ...
पेंच लड़ाने ने ज़िन्दगी की पेचीदगियों से दो-चार करवाया , कब अपने के ऊपर रखना है, कब नीचे, कब ढील देनी है, कब खेच मारनी है और कब बिन मौका दिए हत्ते से सूत देना इसका पहला सबक हमें यहीं से मिला...
किसी की पतंग काटने पर आह्लाद के उस प्रकटीकरण ने खुद को व्यक्त करना सिखाया , खुद की कट जाने के विषाद ने पुनः प्रयास करने को उकसाया, कइयो की भीड़ और डंडे पे लगे झाड के बीच भी कटी पतंग को लूट लेने की सफलता ने खुद पे गर्व करना सिखाया, उलझी हुई सद्दी को सुलझाने ने समस्याओं से निबटने और अटियां करने की कसरत ने चीजों को पास-पास सहेज कर रखने की सलाहियत से हमें नवाज़ा...
कभी टीवी के एंटीने , पेड़ , बिजली के तारों पे फंसी पतंग को सफलतापूर्वक निकाल लेने ने छोटे-छोटे सधे हुए निरंतर होते प्रयासों की उपयोगिता समझाई और हर स्थिति में डंटे रहने की प्रेरणा दी ....
कितनी तरक्की कर ली ,छोटे कस्बो के बड़े घरो से निकल हम बड़े महानगरो के छोटे-छोटे flats में आ गए , और कीमत अदा की छत और आँगन को खो कर ,घर के साथ दिल भी छोटे हो गए, रहन-सहन का स्तर तो जरूर ऊँचा हुआ पर कुछ पा लेने की उधेड़बुन में स्वयं न जाने कितना नीचे गिर गए ,बड़ी-बड़ी चाहतो ने छोटी-छोटी खुशियाँ हम से छीन ली , और इस सबका सबसे बड़ा खामियाजा हमारे बाद की पीढ़ी उठा रही जो भौतिक साधनों में बचपन की खुशियाँ तलाश रही है ...
मुट्ठी में मिटटी भरके हवा का रुख को पहचानने की उस पतंगबाजी वाली आदत ने ही शायद मुझे अपनी मिट्टी से जोड़े रखा है और एक अपराधबोध के साथ ऐसा लिखने को निरंतर प्रेरित करती रहती है ...
“संगमरमर पे चलता हूँ तो फिसल जाता हूँ
मिट्टी पे चलकर ही अपनी पकड़ बनता हूँ “

Friday 8 August 2014

अच्छा खोजिए , हमेशा कुछ न कुछ जरूर मिलेगा ,

बात ये नहीं कि पहले के ज़माने में ही अच्छी फिल्में बनती थी ,आज कल भी बनती है बस जरा चकाचौध में खो जाती है.… पर काम बनती है
समय बदला है , लोग बदले है ,सामाजिक सरोकार बदले है ,इसलिए फिल्में भी बदली है.… अब मनोरंजन के अनगिनित साधन उपलब्ध है ,पहले ऐसा न था.… पूरे परिवार  को ले एक साथ सिनेमा हाल में फिल्म देखना किसी उत्सव से कम न था जो साल में यदाकदा ही संभव हो पाता था और और उसकी मधुर स्मृतियाँ जेहन में  आज भी शेष है.।

अब ज़माना weekend और multiplex का है। फिल्म देखना कईयों के लिए हफ्ते में एक बार होने वाला time pass है इसलिए फिल्म भी किसी disposable  item सरीखी हो गयी है.… दिमाग घर पे छोड़ के जाइये ,popcorn और ठन्डे आनंद लीजिये और हफ्ते भर से झुंझलाती और outing के लिए ताने मारते बीवी की क्रोधाग्नि पर centralized air conditioner की हवा मारिये कहानी , अभिनय गीत-संगीत जाए तेल लेने

Wednesday 6 August 2014

चाचा चौधरी और राका
चाचा चौधरी और राका की वापसी
चाचा चौधरी अमेरिका में
चाचा चौधरी और रहस्यमय  चोर
चाचा चौधरी अमेरिका मैं
चाचा चौधरी और साबू का हथौड़ा
चाचा चौधरी और उड़ने वाली कार
पिंकी और झपट जी की पतंग
पिंकी और दादा जी का अखबार
पिंकी और साबुन के बुलबुले
बिल्लू का हंगामा
बिल्लू और बजरंगी पहलवान
बिल्लू  पिकनिक पर ....  आदि और न  कितनी कॉमिक्स के नाम आज भी याद है , बीनी ,साबू , टिंगू मास्टर ,गब्दू ,गोबर सिंह और न जाने कितने किरदार   बचपन की उन सुनहरी यादो के बीच  आज भी जिन्दा है.…
किराये पे कॉमिक्स लाना और आपस में बदल-बदल कर पढ़ना मानो कल की ही बात है

हमारे बचपन में  खुशियां बिखेरने वाले  इन सब के जनक कार्टूनिस्ट  प्राण आज नहीं रहे.…ईश्वर दिवंगत आत्मा को शांति प्रदान करे और श्रद्धांजलि स्वरुप उनकी एक कृति अपने बच्चो के साथ आज जरूर पढ़े  

Sunday 3 August 2014

आज हर दिल अजीज अपने किशोर दा का जन्मदिन है , एक फनकार की हैसियत से गजब की शख्सियत थे वो.… मस्ती, संजीदगी और रूमानीपन वाला उनका गायन गज़ब का था और उपर से उनकी उत्कृष्ट अदाकारी सोने पे सुहागा होने का अहसास कराती थी.…वाकई हरफनमौला थे वो

कुछ लोग किशोर दा ,रफ़ी साहब और मन्ना डे  में  तुलना करने बैठ जाते जो मुझे काफी ज़ाया लगती है , ये तीनो ही बेहतरीन है और कोई भी नबर २ या ३ नहीं

विरले कलाकार होते है जो हर किसी  को अज़ीज होते है.… हमारे पिताजी लोगो की पीढ़ी ने उन्हें सराहा , हम लोग उनके फैन है और हमारे बाद की भी जनरेशन उन्हें प्यार करती है.…  यह सिलसिला यूं ही चलता रहेगा और हर गुसलखाने से आवाज आती ही रहेगी  मेरे सामने वाली खिड़की में एक चाँद का टुकड़ा रहता है.…

मेरे पसंदीदा किशोर दा के दस नग़मे

1. http://youtu.be/UULb2pAmz_A
2 http://youtu.be/jVWkTXOPS_0
3.http://youtu.be/ZYhkoq62Vxg
4 http://youtu.be/fUtXdIRvwNo
5.http://youtu.be/Foss-Vs54gk
6.http://youtu.be/IKbakQnafdA
7.http://youtu.be/SRY4oEWaYsk
8.http://youtu.be/Yi_1lqWG1Hk
9.http://youtu.be/Fr-r5NAhOZo
10http://youtu.be/6GDG7E1fUkU

Saturday 2 August 2014

ये जश्न-ए- आज़ादी है
हर रोज मनाइये
किसी भी तारीख के पाबंध
हम तुम क्यों रहे.… :)

Friday 1 August 2014

एक ज़माना हुआ करता था, रेडियो में short-wave पर किसी लौ की तरह फाड़-फड़ाती ,ऊपर नीची होती ध्वनि पर हम BBC हिंदी सेवा के समाचार सुना करते थे , प्रस्तुति बहुत आकर्षक होती थी , उत्कृष्ट हिंदी के शब्दों के चुनाव के साथ , वक्ताओं की कर्णप्रिय ध्वनि वाकई समाचार सुनने में एक सुखद अहसास प्रदान करती थी.… 
खबर विश्वशनीय  मानी जाती थी.… ईरान-ईराक खाड़ी युद्ध , operation ब्लू स्टार ,  बाबरी मस्जिद अादि  और न जाने  कितनी महत्वपूर्ण  घटनाओ के समय  सही खबर की ख़ोज में असंख्य  भारतीयों ने टीवी होते हुए भी रेडियो की  ओर रुख किया क्योंकि उस समय दूरदर्शन का ज़माना था ,खबरे सरकारी नियंत्रण में थी.।  

फिर ज़माना आया बाज़ारवाद का याने केबल टीवी का....हर दिन कुकुरमुत्ते के तरह उगते समाचार चैनेल ,गला  काट प्रतिस्पर्धा के बीच  वो ही चिल्ल-पौ मचाने लगे जो अपने-अपने हितो साधने में इनके आकाओ को उचित लगा, खबर का केवल मुलम्मा ही चढ़ा रहा , खेल कुछ और ही होता रहा.… पत्रकारिता किसी हिंदी फिल्म के item सांग सरीखी नज़र आने लगे , जिसमे तड़क भड़क का तड़का था.… असलियत से कोसो दूर 

इसी दौरान विद्व्ता की अपनी ढोल पीटते कुछ चेहरे उजागर हुए जो घर के चूल्हे पे चढ़े पतीले से लेकर अंतरिक्षयान प्रक्षेपण पर अपनी बे-सिर पैर की राय से हमें  प्रताड़ित करने लगे.… 

और अब समय है इंटरनेट क्रान्ति का , सोशल मीडिया ने  जब इस तथाकथित मीडिया की पुंगी बजानी शुरू की तब से इनमें खलबली मची हुई.… आम आदमी को एक सशक्त माध्यम मिला है जिसमे उसने अपनी भड़ास निकलनी आरम्भ कर दी है (जैसा की मै कर रहा हूँ ) .... 

समय रहते सचेत होने से दुर्घटना से बचा जा सकता है.… अभी तो जनता के गुस्से के केंद्र बिंदु सियासत है अगर ये न्यूज़ ट्रेडर्स नहीं सुधरे तो इनको भी हमारे कोप का भाजन बनने में ज्यादा समय नहीं लगेगा