Sunday 30 June 2013

HAPPY DOCTOR'S DAY

मरीजो संग
एक और  व्यस्त दिन बितायें
घर-परिवार से गाली खायें
MR से  उपहार पायें
Hippocratic Oath के तले घिसते जायें 
आज सान्त्वना  पुरस्कार स्वरुप
HAPPY DOCTOR'S DAY मनायें ...



On the eve of DOCTOR'S DAY ...01 JULY... some definitions redefined 
  • M.B.B.S= Main Bechara Bina Sahara (मैं बेचारा बिना सहारा )
  • B.D.S= Bade Dukh Se (बड़े दुःख से )
  • MD= Main Dukhiyara (मै दुखियारा )
  • MS= Mara Samjho (मरा समझो )
  • DM=Dugna Murakh (दुगना मूर्ख )
  • MCh= Main Chu**ya (मैं चू **या )
  • D.N.B= Dukh Na Badao (दुःख न बढाओ)
  • PDCC=Phir Dete Chatak Chu**ya (फिर देते चटक चू **या )
Any way HAPPY DOCTOR'S DAY ...:)

हे रामचन्द्र कह गए सिया से

१ ९ ७ ० राजेंद्र कृष्ण द्वारा रचित गोपी फिल्म का यह  गीत  कितना प्रासंगिक है ..(कन्यादान वाले अंतरे से मेरी असहमति है )

हे  रामचन्द्र  कह  गए  सिया से  
आइसा  कलजुग आएगा  
हंसा  चुगेगा  दाना दुन्न्का 
कौव्वा  मोती  खाएगा  

सिया ने  पूछा , 
कलजुग में  धरम  करम को  कोई  नहीं  मानेगा ? 
तो  प्रभु  बोले :  

धरम  भी  होगा , करम  भी  होगा  
परंतु  शरम  नहीं  होगी  
बात  बात  पर  मात  पिता को  
लड़का  आँख  दिखाएगा  

राजा  और  प्रजा  दोनों  में  
होगी  निसदिन  खींचातानी  
कदम  कदम  पर  करेंगे  दोनों  
अपनी  अपनी  मन  मानी  
जिसके  हाथ  में  होगी  लाठी  
भैंस  वही  ले  जाएगा  

सुनो  सिया  कलजुग में  काला  धन  और  काले  मन  होंगे  
चोर  उचकके  नगर  सेठ  और  प्रभु  भक्त   निर्धन  होंगे  
जो  होगा  लोभी  और  भोगी  वो  जोगी  कहलाएगा  

मंदिर  सूना  सूना  होगा  भरी  रहेंगी  मधुशाला  
पिता के संग  संग  भरी  सभा में  नाचेगी  घर की बाला 
कैसा  कन्यादान  पिता ही   कन्या का  धन  खाएगा 

मूरख  की  प्रीत  बुरी  जुए की  जीत  बुरी  
बुरे  संग  बैठ  चैन भागे  ही  भागे  
काजल  की  कोठारी  में  कैसे  ही  जतन  करो  
काजल  का  दाग  भाई  लागे  ही  लागे  
कितना  जती  हो  कोई  कितना  सती  हो  कोई  
कामनी  के  संग  काम  जागे  ही  जागे  
सुनो  कहे  गोपी राम  जिसका  है  रामकाम 
उसका  तो  फंदा  गले  लागे  ही  लागे 

Saturday 29 June 2013

सत्य क्या है ???
जो दिखाया ,पढ़ाया ,
या बताया जाता  ???

या फिर वो असत्य
जिसे  बार-बार
कर प्रचार सत्य जैसा
बनाया  जाता है ???

अथवा वो बात जिसे
सिक्को के बोझ तले
दबाया जाता है???





भारी प्राकृतिक आपदा से 
सभी दंग 
पर नेताओ के मनसूबे
अब भी दबंग
राहत- श्रेय के लिए जंग
कर रहे रोज भिडंत
चौपट समस्त शासन तंत्र 
खंड-खंड मेरा उतराखंड...

मेहमान तीर्थयात्री ही
नज़र आते तंग
मदद के लिए  उठे हाथ
जुड़ जाते उन्ही के संग
मेजमानो के कष्टों का
ना कोई अंत

पीड़ित उनका भी अंग-अंग
खंड-खंड मेरा उतराखंड...

मीडिया के नित्य नए प्रपंच 

निहायती गैरवाजिब  रंग-ढंग 
बिलखते मृतकों के परिजन
ये सुध लेते असंवेदनशील  बन
मुख में माइक घुसाते जबरन 
बेहूदा सवाल पूछते फ़ौरन 
सेना के अलावा  
नहीं दिखता कोई और संत 
खंड-खंड मेरा उतराखंड....

Friday 28 June 2013


केवल सिर पड़ी आपदा के समय
सैनिक तुम्हे देवदूत नज़र आते... 
वे तो सदैव से ही 
सीमा पर बन प्रहरी
दिन रात बिताते 

घाम, बर्फ, बरखा
मट्टी और रेता खाते 
प्रतिकूल मौसम अडिग रहते 
अपनी हड्डियाँ गलाते 
शत्रु का भी हर वार
सहर्ष सीने पे झेलते 
जरा भी नहीं हिचकिचाते 

तुम अपने घर
निश्चिंत निंद्रा में लीन
मित्रो -नातेदारो के संग
तीज-त्योहारों में तल्लीन
कितना हर्षाते....
पर अपने बेफिक्र उल्लास के
मूल को कहाँ समझ पाते
उनके त्याग-पुरुषार्थ
तब क्यों नज़र नहीं आते ???

इस जगत में लोग 
प्रत्यक्ष को ही पूजने जाते 
पर्दे के पीछे होते श्रम
कभी न सम्मान पाते ....

Thursday 27 June 2013

आम का मौसम खास
बेशुमार रस की भरमार ...

दसहरी , बनारसी लंगड़ा खाइए
स्वादी कलमी,मालदा ,
और चौसे में  गोते लगाइए


छुरी कांटे से नही
बे-तकल्लुफ़ हो
चूसकर खाइए

दाग की चिंता छोड़
दो-चार छींटे
कपड़ो पे भी टपकाइये


मित्रो के साथ बगिया में  जाइये
रोज आम-पार्टी मनाइए
फलो के राजा का लुत्फ़
अबकी दफे जमकर  उठाइए

Monday 24 June 2013


मैं नमो नमो का
नारा लगाता  हूँ
सांप्रदायिक होने का 
तमगा पाता  हूँ 

मेरा नेता 
जालीदार टोपी पहन 
वोटो के लिए 
जीभ लपलपाता है 
बहुत बड़ा धर्मनिरपेक्ष 
कहलाता है


हर मजहब 
इंसानियत का ही
फर्ज  समझाता है 
इंसान तो इस जमीं पे 
केवल इंसान 
बन के आता है 
सियासतदान ही उसे 
हिन्दू -मुस्लिम बनाता  है 




कोशिश करने वालों की हार नहीं होती / हरिवंशराय बच्चन


लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर, सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना न अखरता है
आख़िर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

डुबकियां सिंधु में गोताखोर लगाता है
जा जा कर खाली हाथ लौटकर आता है
मिलते नहीं सहज ही मोती गहरे पानी में
बढ़ता दुगना उत्साह इसी हैरानी में
मुट्ठी उसकी खाली हर बार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

असफलता एक चुनौती है, स्वीकार करो
क्या कमी रह गई, देखो और सुधार करो
जब तक न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष का मैदान छोड़ मत भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय जय कार नहीं होती
कोशिश करने वालों की हार नहीं होती

Friday 21 June 2013

मूक मंदमोहन की 
मदद के लिए अपील 
चुभती है ऐसे 
जैसे हो कोई कील 

९ साल तक 
तुम्हारे मंत्रियो ने 
हमें खूब लूटा-खसोटा 
आपदा के समय 
फिर से ले आये कटोरा 

अब भी हम ना नहीं करेंगे 
इंसानियत के नाते 
यथा शक्ति धनराशि देंगे 

पर ये सब पुराने घाघ 
कफन चोर नेता है 
हम से मांग फिर से 
अपनी ही झोली ही भरेंगे ..

Thursday 20 June 2013

"बच्चे बड़े हो गए हैं...

लघु कथाये





//संतान// मैं तकरीबन २० साल के बाद विदेश से अपने शहर लौटा था ! बाज़ार में घुमते हुए सहसा मेरी नज़रें सब्जी का ठेला लगाये एक बूढे पर जा टिकीं,बहुत कोशिश के बावजूद भी मैं उसको पहचान नहीं पा रहा था ! लेकिन न जाने बार बार ऐसा क्यों लग रहा था की मैं उसे बड़ी अच्छी तरह से जनता हूँ ! मेरी उत्सुकता उस बूढ़े से भी छुपी न रही उसके चेहरे पर आई अचानक मुस्कान से मैं समझ गया था कि उसने मुझे पहचान लिया था ! काफी देर की जेहनी कशमकश के बाद जब मैंने उसे पहचाना तो मेरे पाँव के नीचे से मानो ज़मीन खिसक गई ! जब मैं विदेश गया था तो इसकी एक बहुत बड़ी आटा मिल हुआ करती थी नौकर चाकर आगे पीछे घूमा करते थे ! धर्म कर्मदान पुण्य में सब से अग्रणी इस दानवीर पुरुष को मैं ताऊ जी कह कर बुलाया करता था ! वही आटा मिल का मालिक और आज सब्जी का ठेला लगाने पर मजबूरमुझ से रहा नहीं गया और मैं उसके पास जा पहुँचा और बहुत मुश्किल से रुंधे गले से पूछा : "ताऊ जी,ये सब कैसे हो गया ?" भरी ऑंखें लिए मेरे कंधे पर हाथ रख उसने उत्तर दिया:
"
बच्चे बड़े हो गए हैं बेटे !"
***

योगराज प्रभाकर



Wednesday 19 June 2013

काम की व्यस्तता इतनी भारी 
भरी पड़ी है बोतले सारी 
रिन्दों की बड़ी लाचारी 
न तुम खाली , न हम खाली

आपदा प्रबंधन तो
धर्म देख नहीं होता ...
फिर क्यों मेरा पहाड़
फूट -फूट के रोता ??



1.      हर एक बात पे कहते हो तुम के  तू क्या है ?
तुम्हीं कहो के ये अंदाज़-ए-गुफ्तगू क्या है  ?

[ गुफ्तगू = conversation]

2.      ना शोले में ये करिश्मा ना बर्क़ में ये अदा
कोई  बताओ  कि वो शोखः-ए-तुंद-ख़ू  क्या  है ?

[ बर्क़ = lightening; तुंद = sharp/angry; ख़ू = behaviour]

3.      यह रश्क  है कि वो होता है हम-सुख़न तुमसे
वागरना   ख़ौफ-ए-बद-आमोज़ी-ए-अदू   क्या  है ?

[ रश्क = jealousy; हम-सुख़न = to speak together/to agree; 
ख़ौफ = fear; बद = bad/wicked; आमोज़ी = education/teaching; 
अदू = enemy ]


4.      चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारी  जेब को अब  हाजत-ए-रफू  क्या है ?

[ पैराहन = shirt/robe/cloth; हाजत = need/necessity; रफू = mending/darning]

5.      जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा
कुरेदते  हो जो अब  राख,  जूस्तजू क्या  है ?

[ जूस्तजू = desire ]

6.      रगों में  दौड्ते फिरने  के हम नहीं क़ायल
जब आँख ही से ना टपका तो फिर लहू क्या है ?

7.      वो चीज़ जिसके लिए हमको हो बहिश्त अज़ीज़
सिवाय बादा-ए-गुल-फाम-ए-मुश्कबू क्या है ?

[ बहिश्त = heaven; बादा = wine; गुल-फाम = delicate and fragrant like flowers; मुश्कबू = like the smell of musk]

8.      पियूं शराब अगर ख़ूं भी देख लूं दो चार
यह   शीशा-ओ-क़दा-ओ-कूज़ा-ओ-सूबू   क्या  है ?

[ खूं = wine barrel; क़दा = goblet; कूज़ा/सूबू = wine pitcher]

9.      रही ना ताक़त-ए-गुफ़्तार, और अगर हो भी
तो किस उम्मीद पे  कहिए के आरज़ू  क्या है ?

[ गुफ़्तार = speech/discourse]

10.     हुआ  है  शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता
वागरना शहर में ग़ालिब' की आबरू क्या है ?

[ मुसाहिब = comrade/associate]

मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” (२७ दिसंबर १७९६ – १५ फरवरी १८६९
सियासी  दंगल करते 
कथित धर्मनिरपेक्ष दल 
उछाल खूब कीचड़ 
एक दूसरे पर रहे मल 

विरोधी की कमी निकालते  
छोड़ते कोई कोर-कसर 
खुद की बात हो 
तो तुरंत ही जाते बिफर 

रंग को भी देखते
समुदाय विशेष से जोड़कर 
अल्पसंख्यको का रहनुमा होने  का 
स्वांग रचते हर पल 

स्वार्थ सिद्धि के लिए 
लोगो को बरगलाते कसकर 
अनहोनी का भय दिखा
दिलों में मैल भरते , भीतर घुसकर 

मानवीय संवेदनाओ को भड़का 
वोट पाते दुसप्रचार कर
इंसानी जिंदगियो  को सीढ़ी बना 
चढ़ते नित्य सत्ता -शिखर पर ...




Tuesday 18 June 2013

मेरा पहाड़ व्यथित है

इंद्रदेव कुपित हैं
सब लोग  हैं चकित हैं
अति वृष्टि विनाश से
मेरा पहाड़ व्यथित है

ये कुछ और नहीं
प्रकृति के साथ किये
मनुष्य के पाप ही फलित है

क्षमा करो ,कृपा करो
हे! दयानिधान
त्राहि माम , त्राहि माम ..

Monday 17 June 2013

होके मजबूर मुझे उसने भुलाया होगा
ज़हर चुपके से दवा जानके खाया होगा
होके मजबूर...

भूपिंदर: दिल ने ऐसे भी कुछ अफ़साने सुनाए होंगे
अश्क़ आँखों ने पिये और न बहाए होंगे
बन्द कमरे में जो खत मेरे जलाए होंगे
एक इक हर्फ़ जबीं पर उभर आया होगा

रफ़ी: उसने घबराके नज़र लाख बचाई होगी
दिल की लुटती हुई दुनिया नज़र आई होगी
मेज़ से जब मेरी तस्वीर हटाई होगी
हर तरफ़ मुझको तड़पता हुआ पाया होगा
होके मजबूर...

तलत: छेड़ की बात पे अरमाँ मचल आए होंगे
ग़म दिखावे की हँसी ने न छुपाए होंगे
नाम पर मेरे जब आँसू निकल आए होंगे \- (२)
सर न काँधे से सहेली के उठाया होगा

मन्ना डे: ज़ुल्फ़ ज़िद करके किसी ने जो बनाई होगी
और भी ग़म की घटा मुखड़े पे छाई होगी
बिजली नज़रों ने कई दिन न गिराई होगी
रँग चहरे पे कई रोज़ न आया होगा
होके मजबूर..

***कैफ़ी आजमी 

****चेतक... श्यामनारायण पाण्डेय****


रण–बीच चौकड़ी भर–भरकर,
चेतक बन गया निराला था।
राणा प्रताप के घोड़े से¸
पड़ गया हवा को पाला था।।13।।

गिरता न कभी चेतक–तन पर¸
राणा प्रताप का कोड़ा था।
वह दौड़ रहा अरि–मस्तक पर¸
या आसमान पर घोड़ा था।।14।।

जो तनिक हवा से बाग हिली¸
लेकर सवार उड़ जाता था।
राणा की पुतली फिरी नहीं¸
तब तक चेतक मुड़ जाता था।।15।।

कौशल दिखलाया चालों में¸
उड़ गया भयानक भालों में।
निर्भीक गया वह ढालों में¸
सरपट दौड़ा करवालों में।।16।।

है यहीं रहा¸ अब यहां नहीं¸
वह वहीं रहा है वहां नहीं।
थी जगह न कोई जहां नहीं¸
किस अरि–मस्तक पर कहां नहीं।।17।

बढ़ते नद–सा वह लहर गया¸
वह गया गया फिर ठहर गया।
विकराल ब्रज–मय बादल–सा
अरि की सेना पर घहर गया।।18।।

भाला गिर गया¸ गिरा निषंग¸
हय–टापों से खन गया अंग।
वैरी–समाज रह गया दंग
घोड़े का ऐसा देख रंग।।19।।

चढ़ चेतक पर तलवार उठा
रखता था भूतल–पानी को।
राणा प्रताप सिर काट–काट
करता था सफल जवानी को।।20।।

कलकल बहती थी रण–गंगा
अरि–दल को डूब नहाने को।
तलवार वीर की नाव बनी
चटपट उस पार लगाने को।।21।।

वैरी–दल को ललकार गिरी¸
वह नागिन–सी फुफकार गिरी।
था शोर मौत से बचो¸बचो¸
तलवार गिरी¸ तलवार गिरी।।22।।

पैदल से हय–दल गज–दल में
छिप–छप करती वह विकल गई!
क्षण कहां गई कुछ¸ पता न फिर¸
देखो चमचम वह निकल गई।।23।।

क्षण इधर गई¸ क्षण उधर गई¸
क्षण चढ़ी बाढ़–सी उतर गई।
था प्रलय¸ चमकती जिधर गई¸
क्षण शोर हो गया किधर गई।।24।।

क्या अजब विषैली नागिन थी¸
जिसके डसने में लहर नहीं।
उतरी तन से मिट गये वीर¸
फैला शरीर में जहर नहीं।।25।।

थी छुरी कहीं¸ तलवार कहीं¸
वह बरछी–असि खरधार कहीं।
वह आग कहीं अंगार कहीं¸
बिजली थी कहीं कटार कहीं।।26।।

लहराती थी सिर काट–काट¸
बल खाती थी भू पाट–पाट।
बिखराती अवयव बाट–बाट
तनती थी लोहू चाट–चाट।।27।।

सेना–नायक राणा के भी
रण देख–देखकर चाह भरे।
मेवाड़–सिपाही लड़ते थे
दूने–तिगुने उत्साह भरे।।28।।

क्षण मार दिया कर कोड़े से
रण किया उतर कर घोड़े से।
राणा रण–कौशल दिखा दिया
चढ़ गया उतर कर घोड़े से।।29।।

क्षण भीषण हलचल मचा–मचा
राणा–कर की तलवार बढ़ी।
था शोर रक्त पीने को यह
रण–चण्डी जीभ पसार बढ़ी।।30।।

वह हाथी–दल पर टूट पड़ा¸
मानो उस पर पवि छूट पड़ा।
कट गई वेग से भू¸ ऐसा
शोणित का नाला फूट पड़ा।।31।।

जो साहस कर बढ़ता उसको
केवल कटाक्ष से टोक दिया।
जो वीर बना नभ–बीच फेंक¸
बरछे पर उसको रोक दिया।।32।।

क्षण उछल गया अरि घोड़े पर¸
क्षण लड़ा सो गया घोड़े पर।
वैरी–दल से लड़ते–लड़ते
क्षण खड़ा हो गया घोड़े पर।।33।।

क्षण भर में गिरते रूण्डों से
मदमस्त गजों के झुण्डों से¸
घोड़ों से विकल वितुण्डों से¸
पट गई भूमि नर–मुण्डों से।।34।।

ऐसा रण राणा करता था
पर उसको था संतोष नहीं
क्षण–क्षण आगे बढ़ता था वह
पर कम होता था रोष नहीं।।35।।

कहता था लड़ता मान कहां
मैं कर लूं रक्त–स्नान कहां।
जिस पर तय विजय हमारी है
वह मुगलों का अभिमान कहां।।36।।

भाला कहता था मान कहां¸
घोड़ा कहता था मान कहां?
राणा की लोहित आंखों से
रव निकल रहा था मान कहां।।37।।

लड़ता अकबर सुल्तान कहां¸
वह कुल–कलंक है मान कहां?
राणा कहता था बार–बार
मैं करूं शत्रु–बलिदान कहां?।।38।।

तब तक प्रताप ने देख लिया,
लड़ रहा मान था हाथी पर।
अकबर का चंचल साभिमान
उड़ता निशान था हाथी पर।।39।।

वह विजय–मन्त्र था पढ़ा रहा¸
अपने दल को था बढ़ा रहा।
वह भीषण समर–भवानी को
पग–पग पर बलि था चढ़ा रहा।।40।

फिर रक्त देह का उबल उठा
जल उठा क्रोध की ज्वाला से।
घोड़े से कहा बढ़ो आगे¸
बढ़ चलो कहा निज भाला से।।41।।

हय–नस नस में बिजली दौड़ी¸
राणा का घोड़ा लहर उठा।
शत–शत बिजली की आग लिए,
वह प्रलय–मेघ–सा घहर उठा।।42।।

क्षय अमिट रोग¸ वह राजरोग¸
ज्वर सन्निपात लकवा था वह।
था शोर बचो घोड़ा–रण से
कहता हय कौन¸ हवा था वह।।43।।

तनकर भाला भी बोल उठा,
राणा मुझको विश्राम न दे।
बैरी का मुझसे हृदय गोभ,
तू मुझे तनिक आराम न दे।।44।।

खाकर अरि–मस्तक जीने दे¸
बैरी–उर–माला सीने दे।
मुझको शोणित की प्यास लगी
बढ़ने दे¸ शोणित पीने दे।।45।।

मुरदों का ढेर लगा दूं मैं¸
अरि–सिंहासन थहरा दूं मैं।
राणा मुझको आज्ञा दे दे
शोणित सागर लहरा दूं मैं।।46।।

रंचक राणा ने देर न की¸
घोड़ा बढ़ आया हाथी पर।
वैरी–दल का सिर काट–काट
राणा चढ़ आया हाथी पर।।47।।

गिरि की चोटी पर चढ़कर
किरणों निहारती लाशें¸
जिनमें कुछ तो मुरदे थे¸
कुछ की चलती थी सांसें।।48।।

वे देख–देख कर उनको
मुरझाती जाती पल–पल।
होता था स्वर्णिम नभ पर
पक्षी–क्रन्दन का कल–कल।।49।।

मुख छिपा लिया सूरज ने
जब रोक न सका रूलाई।
सावन की अन्धी रजनी
वारिद–मिस रोती आई।।50।।