अड़ियल , जिद्दी , ढीठ
कुछ छज्जे पे उगी पीपल सा
विपरीत परिस्थितियों में
पनपता रहता मै , अपने
सम्पूर्ण उन्मूलन की आशंकायें लिए..
न मेरी उस जैसी कोई चाह
के अपने विस्तार से
अहित करूँ किसी का भी
पर मुझ से आशंकित
तत्पर रहते तुम क्यों ?
मेरे समूल विनाश के लिए ...
तुमने तो न दी जमीन ,
न खाद न पानी
फिर भी स्वतः पा गया जीवन मै
तुम्हारे विलासी दृष्टी से बच
पर थोड़ा जो पुष्ट हुआ
खटकने लगा मै तुम्हे
तुम्हारे छज्जे पे उगे पीपल सा...
तुम डरे, चिंतित, व्याकुल
तुम्हारे अन्याय के खिलाफ
मेरे इस अल्प अतिक्रमण से
दौड़ पड़े सहसा
सम्पूर्ण दल-बल लिए
और अपने दुर्ग के रक्षण हेतु
तुमने मुझे उखाड़ फेका जड़ से
बिना किसी विलम्ब
पर फिर उगूंगा मै
तुम्हारे आस-पास ही कहीं
और प्रकट करता रहूँगा
तुम्हारे सम्मुख
तुम्हारे कृत्यों पर
अपना यह शांत प्रतिरोध...