जब तक माँ तब तक मायका... इस बात को बेटियों से बेहतर भला कौन समझ सकता है ...?
भरा पूरा घर है , पति है, बच्चे है पर अपनी पुरानी पहचान से स्वयं को जोड़े रखने का एकमात्र वो ही तो जरिया है...
बिना संकोच अपना बचपन फिर से जीने, जिद्द मनवाने, नाराज हो जाने, डांट खाने, खिलाने का एक वो ही तो माध्यम है...
माँ -बेटी का संबंध पिता- पुत्र के सम्बन्ध की तुलना में ज्यादा भावुक,ज्यादा प्रगाढ़ और ज्यादा जीवंत होता है , संभवतः स्त्री होना और उससे जुडी वेदनाओं से गुजरना , पुरुष प्रधान समाज की सीमाओ का अनुपालन और विवाहोपरान्त अपनी पुरानी पहचान तत्काल खो ,नए अनजान परिवेश में नयी पहचान पाना दोनों को एक दूसरे के और निकट लाता है ...
गर्भावस्था, प्रसूति, बच्चों के लालन पालन से जुडी पेचेेदगियो से गुजरना दोनों के रक्तसंबंध को और गाढा करता है, यहाँ पिता-पुत्र दोनों के पुरुष होने के जैसा अहम् का टकराव नहीं होता अपितु स्त्री होने की सीमाओ का ज्ञान दोनों में सखाभाव और संवेदनशीलता उत्पन्न करता है...
पिता, भाई, भाभी लाड जताने वाले हो सकते है पर मायके की आत्मा तो माँ में ही है, संसार में एक वो ही है जिस पे बेटी का बस चल सकता है, शेष सारे मायकेे के सम्बन्ध कुछ मर्यादाए , कुछ औपचारिकतायें और कुछ किन्तु परंतु लिए हुए होते है...
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