जब हिंदी माध्यम के सरकारी विद्यालयों के गुरूजी अपने बच्चों को कान्वेंट स्कूल में पढ़ना बेहतर समझने लगे… समाज में अंग्रेजी बोलना तरक्की और पढ़े- लिखे होने की निशानी हो तो हिंदी की यह दुर्दशा तो होनी ही थी
.... पूरे चरणबद्ध तारीके से हिंदी की पिटाई हुई है …
हमारा वक्त तो निकल गया पिताजी सरकारी स्कूल में थे और हम भी उसी में पढ़े। आज की तारीख़ में ऐसा संभव नहीं। अपने आस-पास किसी पाँचवी में पढ़ने वाले बालक /बालिका से जरा हिंदी की कुछ पंक्तियाँ पढ़ा के तो देखिये (लिखना तो दूर की कौड़ी है ) … भविष्य की भयावह तस्वीर आपके सामने होगी
निज भाषा उन्नति अहे..... अब कैसे कहे ??? बेचारी भारतेंदु की आत्मा भी आत्महत्या करने की सोच रही होगी
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