Monday, 2 September 2013

मुनासिब नहीं के 
रोज तेरे दर पे आऊँ 
तेरी इल्तिजा करूँ 
और तुझे मनाऊँ … 

इतना भी कमज़ोर नहीं 
के तुझे भूल न पाऊँ 
तेरी चाहत के फेर में 
अपनी हस्ती ही मिटाऊँ 
 
तेरा साथ न मिले तो न ही सही 
तेरी खुदगर्ज आशिकी से बेहतर 
अपना ये बेशकीमती वक्त  
किसी नेक काम में लगाऊँ … 

No comments:

Post a Comment