रजामंद तुम भी थे हम भी थे
मगर चाहत खामोश रही
खिलाफत के सामने
पशोपेश में तुम भी थे हम भी थे
बागवत हो न सकी
अपनों से अपनों के सामने…
अब भटक रहे है
तुम भी और हम भी
करार कैसे आये गैरो के सामने
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