Thursday 7 February 2019

एक छोटे से कसबे के एक छोटे से मुहल्ले की छोटी सी कालोनी के एक कोने पे अपना मकान, ५ सदस्यों वाले परिवार के यत्नों ,प्रयत्नों , स्वप्नों , अकांक्षाओ , प्रेम और पुरषार्थ से बना घर .... तमाम मध्यमवर्गी संघर्षो को संजोये .... पुरुषप्रधान समाज का पुरुषप्रधान घर .... पापा ही सर्वोपरि , उनका हर कथन मानो एक आदेश ... सर्वोपरि ,सर माथे पे ...., माँ उसके कार्यान्वयन को सुनिश्चित करने-कराने में चौबीसों घंटे लगी एक उद्योंग निरत काया ...

"पापा से कह दूंगी".... एक ऐसा अमोघ अस्त्र जिसका वार कभी विफल नहीं जाता ... बच्चो को तुरंत ही अनुशासन का बोध कराता , गृहस्थी की चक्की के दो पाटों में पिसी नारी , माँ की ममता और सहधर्मिणी के कर्तव्यों का उचित निर्वहन करती हुई ....

माँ हमें कभी छत पे न जाने देती , घर बनने काफी सालो तक वहां बाऊँड्री वाल न थी , बेसुध हो दौड़ते भागते बच्चों के नीचे गिर जाने की प्रबल आशंका थी और हमारे एक मामा भी एक ऐसी ही दुर्घटना का शिकार हो चुके थे ... इसलिए छत पे जाने पे पूर्ण प्रतिबन्ध ... बोले तो इसके जीरो टॉलरेंस ... सीढ़ी चढ़ना मात्र ही हमारी सुताई सुनिश्चित कर देता ...

अनिष्ट की आशंका और डर से घबराई माँ अपने लाल को लाल करके ही मानती , सबक सिखाना तो उद्देश्य होता पर बाल उदंडता और अनवरत चलती घरेलू जिम्मेदारियों से खीजा और थका मन चाणक्य की "लालयेत पंचवर्षाणि दशवर्शाणि ताडयेत् " नीति का भरपूर अक्षरक्ष: पालन करता और कभी कभी अति भी कर देता ... हालाँकि तूफान गुज़र जाने के बाद शांति भी होती , माँ की ममता जाग जाती ,ग्लानि और अपराध बोध के साथ वो हमें मनाने और पुचकारने में जुट जाती , गाल और हाथ-पैर सहलाये जाते ,पैसे और खाने पीने की चीजों का प्रलोभन दिया जाता, छत में फिर से न चढने के वादे और कसमें ली जाती ....

हमारे कई कार्य केवल धनाभाव के चलते ही अपूर्ण नहीं रहते .... हमारी प्राथिमिकता और मन भी उनके पूर्ण न होने के मुख्य कारक होते है और जिसदिन बगल की ध्यानी जी की छत से बच्चा गिरा , हालाँकि प्रभु कृपा से उसे ज्यादा चोट नहीं आयी , पिताजी द्वारा निर्णय लिया जा चुका था , अगले ही दिन छत में जंगला डालने और चारदीवारी का काम शुरू हो चुका था ..

घर में किसी काम का शुरू होना , बालमन के लिए बड़े ही कौतुहल का विषय होता है , रोज की दिनचर्या से उलट यहाँ कुछ नया ,कुछ रोचक होता हुआ जान पड़ता है , हमने भी आने वाले ईंट ,सरिये , सीमेंट , मोरंग , बजरी कुछ न कुछ अपने खेलने के लिए ढूंढ ही लिया , माँ का काम और बढ़ चुका था , घर में हुई धूल मिटटी का अम्बार लग गया , आते जाते पांवो में किरकती मिटटी उसे ज्यादा रास न आती और वो दिन बार कई दफे झाड़ू लेकर साफ़ सफाई में जुटी रहती ...

छम्मन मिस्त्री ने हमारा घर बनाया था इस बार के काम के लिए भी वो ही आये, पुराने परिचित पे भरोसा ज्यादा होता है , ज्यादा देख रेख नहीं करनी पड़ती , ठेका तय हुआ , देहाड़ी पे काम कराने का पुराना कटु अनुभव था, काम बड़ी तीव्र गति से चला पांच ही दिन में छत जंगले और चारदीवारी का साथ पा बच्चो के लिए सुरक्षित हो चुकी थी ...

काम जल्दी निबट जाने पे मै दुखी हो गया अब मेरे पास शाम को मिस्त्री साहब के झोले की बसोली , कन्नी , छेनी-हथौड़ी और लोहे का लट्टू खेलने के लिए न थे ...

क्रमशः .... जारी रहेगा

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