Saturday, 3 January 2015

दीदी की शादी ...

परेशानियाँ मोल ले ले के कैसे खुशियाँ मनाई जाती है ये कोई हम हिन्दुस्तानियों से सीखें ... विवाह से बेहतर इसकी मिसाल और क्या होगी ... इतना सारा टीम-टाम , बेशुमार खर्च , हल्ला-गुल्ला ,भीड़-भड़क्का,रूठना मनना ,भाव खाना ,नाच-गाना ,हंसी-ठठोली, मेल-मिलाप और करुण विलाप और वो भी सब एकसाथ आपको और कहाँ मिल सकता है ?

दीदी हम तीन भाई बहनों में सबसे बड़ी है , जाहिर है उनका विवाह तय होना हमारे घर की सबसे पहली और बड़ी ख़ुशी थी , लड़के वाले देखने के लिए पिताजी के मंझले मामाजी के घर आये और तुरंत ही अंगूठी पहना के रिश्ता पक्का करके चले गए , घर में उत्सव सा माहौल था पर पिताजी प्रसन्न होने की साथ भावुक भी लगे आंखिर उनकी गुड़ियाँ की शादी जो थी...

शादी की तारीख तय करना बड़ी ही टेढ़ी खीर साबित हुआ , मौसम , रिश्तेदारों की उपलब्धता , बच्चो के इम्तिहान और लड़के वालो की रजामंदी के बीच सामंजस्य जो बैठना था , किसी को भी नाराज नहीं किया जा सकता था ,घर की पहली शादी होने की वजह से अनुभव का आभाव साफ़ नज़र आ रहा था , बातों को कैसे वक्राकर घुमाना है माँ-पिताजी को कहाँ आता था और कुछ रिश्तेदार सिर्फ इसलिए मुंह फुला बैठे कि लड़की का रिश्ता तय हो गया और हमें पहले बताया तक भी नहीं ...

खैर मान-मनोव्वल के कई दौरों के बाद ३० नवम्बर की तारीख आंखिरकार तय हो ही गयी , पिताजी सबको साथ लेकर चलने में विश्वास रखते थे और अपने मधुर व्यवहार के कारण वो इसमें सफल हो ही जाते ....आने वाले मेहमानों की लिस्ट बनना आरंभ हुआ , बड़ी ही ऐतिहात बरत के इसे बनाया गया , नाम भी न छूटने और भीड़ भी अत्यधिक न होने की सोच के मध्य ये कार्य भी अत्यंत दुष्कर था ....पर वर्तमान के संबंधो को ही सबसे ज्यादा तरजीह दी गई ...

कार्ड छपाने में भी काफी माथापच्ची हुई ...कार्ड की बनावट से ज्यादा चर्चा उसके प्रारूप पे हुई ...कौन सा श्लोक , कौन कौन से शब्द ,किस-किस का नाम इसमें सम्मलित किये जायें ये बड़ी बहस का विषय बने ... पिताजी वर और वधू के नाम के आगे डॉक्टर लिखवाना चाहते थे जो मुझे बिलकुल पसंद न था, मुझे ये थोडा महिमामंडन सा प्रतीत हो रह था पर मेरी छोटी उम्र की वो अल्पबुद्धि पिताजी के साधनविहीन बचपन से वर्तमान के प्रतिष्ठित पद तक के अत्यंत ही संघर्षपूर्ण सफ़र को कहाँ देख पा रही थी .... एक पुरुषार्थी इस बहाने अपने समाज से कुछ कहना चाह रहा था और उसे इसको प्रकट करने का पूरा हक़ था...

९० के दशक के शुरू के दिनों में इन “wedding point culture” का आरंभ नहीं हुआ था, घर के आस-पास खाली किसी प्लाट की सफाई करा शामियाना लगा दिया जाता ,कैटरिंग भी इतनी प्रचलित नहीं थी , शहर के किसी अच्छे कारीगर को ही खाना बनाने की जिम्मेदारी दी जाती , वो आने वाले मेहमानों की संख्या के हिसाब से आपको सामान की लिस्ट पकड़ा देता मगर ये हमेशा ही अपूर्ण रहती .....टेंट हॉउस ,लाइट ,पानी ,जनरेटर,फोटोग्राफर , सफाई वाला , फूल वाला , प्रेस वाला , नाई ,महरी ,बैंड , घोड़ी आदि आदि का इंतज़ाम भी खुद करना पड़ता और अंतिम समय तक इन सबके होती भाग दौड़ आपको मिल्खा सिंह बना देती... बहन की शादी को एन्जॉय करना भाइयो का काम न था, कम से कम छोटे भाइयो का तो कदापि नहीं ....

जैसे-जैसे तारीख निकट आयी , काम में तेजी बढ़ गयी ,बूबू (दादा),चाचा चाची और चचेरे भाई-बहिन इसमें शरीक हो गए , आमा (दादी) को गाँव में अपनी खेती-पाती और गाय से विशेष लगाव था इसलिए उन्होंने बार-बार कहने पर भी हफ्ता भर ही पहले आने का ही निश्चय किया....... विवाह से १५ दिन पहले ही घी के कनिस्तर और आटे, चावल, दाल और चीनी के बोरे घर के आँगन की शोभा बढ़ा रहे थे , बाहर वाले कार्ड पोस्ट किये जा चुके थे , और हफ्ता रहते हुए आमा के आगमन के साथ ही शहर और मुहल्ले में कार्ड वितरण प्रारभ हुआ जो आपातकालीन रूप में शादी से एक दिन पहले तक भी जारी रहा ...

मनुष्य होने की खामियों सहित, छोटी मोटी पूर्व की तकरारो को भुला सम्पूर्ण मुहल्ला सहयोग के लिए आगे आया , सिलेंडर ,कमरे ,तख़्त , ढोलक ,मंजीरे , इमानदस्ता , मोटर साइकिल ,स्कूटर , पानी का पाइप , ड्रम आदि मांगने पर तुरन्त उपलब्ध हो गए ... सब के सब बड़े स्नेह भाव से पूछ रहे थे.... हमारे लिए कोई काम हो तो बताना ...

सच में पहले सब कुछ कितना सांझा था , घर में कोई पकवान बनता तो पड़ोसियों में जरुर बंटता , दूध ,चीनी, चाय पत्ती, आटा,चावल सब्जी आदि वस्तुओ की विनमय प्रणाली कितनी कारगर थी ,तरक्की ने कितना खोखला कर लिया, ये सब करना आज कितना तुच्छ लगने लगा है,हर चीज को पैसे और रसूख से जोड़ के देखने की सोच ने हमें बड़ा होते हुए भी कितना छोटा बना दिया और हम सब सिमट के रह गए है अपने-अपने दायरों में ...

विवाह वाला दिन भी आ ही गया , गुनगुने जाड़े वाले मौसम में आने वाले मेहमानों का ताँता लगने लगा, कितने लोगो से मै पहली बार मिल रहा था और महसूस कर रह था संबंधो की उस विशेष गरमाहट को , रसोई में अनवरत बनती ,खौलती चाय के मध्य आमा रोते हुए गले लगा के हर एक रिश्तेदार से मिल रही थी... घंटी, शंख की आवाज , धूप-अगरबत्ती और तलते पकवानों की भीनी महक और पंडितजी के मंत्रोचारण के बीच आज हर रिश्ता कितना मुखर हो रहा था ...पिताजी सफ़ेद धोती-कुर्ता और गाँधी टोपी धरे , माँ रेशम की लाल साड़ी , बड़ी सी नथ और परम्परागत कुमाऊँनी पिछौड़ा पहने , और दीदी हल्दी और मंगल स्नान के बाद कितने दिव्य लग रहे थे ....

बारात गेट पे पहुँच ही गई , और हम अब भी चप्पल पहने दौड़ दौड़ हर किसी की फरमाईशो को पूरा करने में लगे हुए थे, हलवाई ने मैदे के लिए दौड़ाया ,तो भईया ने प्रेस के लिए, रसोई में गैस सिलंडर ख़त्म होने पे चाची चिल्लाई तो , टंकी में पानी खत्म होने की बात मामा ने बताई, मौसी को हल्दी नहीं मिल रही थी तो पिताजी को दुल्हर्ग के लिए लाई गई पंडितजी की अटैची , एक माँ ही शांत थी और हौंसला बढाने के लिए पीठ थपथपा देती और खाने पीने के लिए हरदम पूछती रहती ...

जैसे तैसे हम भी तैयार हो इस पाणिग्रहण संस्कार में सम्मलित हो ही गए ....कन्यादान के समय माँ-पिताजी अश्रुपूर्ण नेत्र कितना कुछ कह रहे थे और वर से इस महादान के उपरांत कितनी आशायें व अपेक्षायें अपने दिल में संजोये हुए थे ...कन्यादान के बाद तुरंत ही उनका विवाह मंडप से उठ जाना और फेरो में भाग न लेना क्या उन्हें ये जता रहा था कि बेटी अब वाकई पराई हो गयी है ...
बड़े भईया द्वारा गिराए जा रहे खीलों और होते फेरो के मध्य वरपक्ष के लोगो की चुहलबाजी चल रही थी पर मेरा मन कुछ अशांत सा था .. दूर अन्दर के कमरे से माँ की सिसकियो की धीमी आवाज मेरे कानो में पड़ रही थी .... घर के इसी आँगन में खेली कूदी बड़ी हुई लाडली अब एक नए रिश्ते में बंध, एक नयी पहचान लिए दूर जो जा रही थी ....

सुबह हुई और विदाई का समय आ ही गया , माँ का रो-रोके बुरा हाल था ,सब लोग समझाने बुझाने में लगे थे , पिताजी बारातियों को हमारे कुल ब्राह्मण उपाध्यायजी के साथ टीका करने में व्यस्त थे और सभी से हाथ जोड़ किसी भी भूल-चूक के लिए क्षमा करने के लिए कह रहे थे ...

छोले-भठूरे ,दही जलेबी और मूंग के दाल के हलवे वाले नाश्ते का लुत्फ़ उठाते लोगो के मध्य टेंट हाउस वाले अपना सामान समेट रहे थे .... और जैसे ही नब्बू बैंड वाले ने अपनी तुरतुरी पे बाबुल की दुआये लेती जा की धुन लगाई माहौल एकाएक से और भी ग़मगीन हो गया .... दीदी माँ-पिताजी से लिपटकर के फफक-फफक के रो रही थी और मै रंगीन छाता जीजाजी के सर के ऊपर रख अपनी आँखों में अश्रुओं के उमडते सैलाब को रोकने की पुरजोर असफल कोशिश कर रहा था...

शाम होते होते सारे मेहमान जा चुके थे और मेरे सम्मुख चीजो को लौटने का विकराल कार्य पड़ा था .......



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