सुबह तडके ही सवा पांच बजे उठ गया , यद्यपि रात को हमेशा की तरह साढ़े पांच का अलार्म लगा दिया था पर जल्दी उठने की चिंता स्टील की मेज घड़ी से हर बार की तरह इस बार भी जीत ही गयी और आज भी मुझे गरम रजाई के पाश से मुक्त करने का कलंकित श्रेय उसे ही मिला ....
बूबू (दादाजी ) हमेशा ही कहते “सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्” और कितनी कडवी लगती है यह बात पर इसके अलावा कोई अन्य चारा है क्या ? दसवी जमात में आते ही मानो कर्फ्यू लग गया हो , अब कितनी चीजे निषेध है, ऊपर से रही सही कसर बड़े भईया पूरी कर गए , उनकी मेहनत की मिसाले दे देकर घर वालो ने जीना मुहाल कर रखा है ... वाद विवाद और डांट-डपट से बचने के लिए न चाहते हुए भी वो ही रास्ता तय करना है जो वो दिखा के गए , यदा कदा हमारी तरफ से विरोध के स्वर उठते है पर पिताजी के कड़े अनुशासन के समक्ष वो ज्यादा देर तक बुलंद न हो पाते ...
दिसम्बर की यह सर्द भोर , भीषण ठण्ड के मध्य बाहर अभी अँधेरा है , मुहल्ले में भी शांति ही है ,बगल के घर गुर्रानी जी को सुबह फैक्ट्री जल्द जाना होता है ,इसलिए उनकी घर की रसोई से बर्तनों के खडकने की आवाज़े आ रही है , तभी साइकिल की तेज घंटी की आवाज इस सन्नाटे को जितनी तेजी से चीरती हुई आई और एक थप्प के साथ उसी तेजी के साथ गायब भी हो गयी , लगता है अखबार आ चुका है इसके प्रतिक्रिया स्वरुप अब कई घरो के बाहर वाले जालीदार दरवाजो के खुलने में जोर से खीचने की ची और स्वत् बंद होने की धडाम के स्वर सुनायी देने लगी है , धीरे-धीरे शोर बढ़ रहा है ,लोहे के गेटों के खुलने बंद होने की चिर-परचित धातुमय धव्नियां स्पष्ट सन्देश दे रही है कि अमुक घर का भी कोई न कोई व्यक्ति जाग चुका है...
जल्दी जल्दी गुसलखाने में घुस ब्रुश से दन्त साफ़ करने की औपचारिकता निभा रहा हूँ , मंजन की समतल टयूब का गले तक जोर से मर्दन करने पश्चात भी मटर के दाने बराबर पेस्ट निकल पाया , चलो फिलहाल इसी से काम चलाओ कल इसको काट कर आज से बेहतर नतीजे निकालेंगे, टंकी का पाने एकदम बर्फीला है , न तो गर्म करने का समय है और ना ही सुविधाजनक साधन , सी सी करते हुए , मुख और नथुनों से निकलती दृश्य भांप के मध्य ठन्डे पानी का यह सितम झेल ही लिया है , कुल्ला हो चुका है , चेहरा धुल चुका है , आखों के गीदड़ के सफाई शायद पूर्ण नहीं हो पाई है, वो तो किसी के टोकने तक जारी रहने वाली है....
मेरी हौंसला अफजाई के लिए माँ भी जग चुकी है , और मेरे हाथ में पकड़ा गयी है , कम दूध की कालीमिर्च युक्त तेज चीनी वाली चाय का गिलास जिससे मै अपने हाथो को सेक रहा हूँ और पीते-पीते ही टयूशन का रजिस्टर खोज रहा हूँ , मेरे इस रूखे गले को कितना तर कर रही है यह ममतामयी चाय , सुबह-सुबह इस समय कुछ खाने का सवाल ही नहीं पर माँ की तो आदत है ना पूछने की और हमारी झल्लाने की ...
साइकिल उठा चल पड़े है नफीस मास्साब के घर, हिसाब के सवालों से जूझने, उनके उत्तरों को खोजने के संघर्ष में अपना भविष्य संवारने ....
बूबू (दादाजी ) हमेशा ही कहते “सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्” और कितनी कडवी लगती है यह बात पर इसके अलावा कोई अन्य चारा है क्या ? दसवी जमात में आते ही मानो कर्फ्यू लग गया हो , अब कितनी चीजे निषेध है, ऊपर से रही सही कसर बड़े भईया पूरी कर गए , उनकी मेहनत की मिसाले दे देकर घर वालो ने जीना मुहाल कर रखा है ... वाद विवाद और डांट-डपट से बचने के लिए न चाहते हुए भी वो ही रास्ता तय करना है जो वो दिखा के गए , यदा कदा हमारी तरफ से विरोध के स्वर उठते है पर पिताजी के कड़े अनुशासन के समक्ष वो ज्यादा देर तक बुलंद न हो पाते ...
दिसम्बर की यह सर्द भोर , भीषण ठण्ड के मध्य बाहर अभी अँधेरा है , मुहल्ले में भी शांति ही है ,बगल के घर गुर्रानी जी को सुबह फैक्ट्री जल्द जाना होता है ,इसलिए उनकी घर की रसोई से बर्तनों के खडकने की आवाज़े आ रही है , तभी साइकिल की तेज घंटी की आवाज इस सन्नाटे को जितनी तेजी से चीरती हुई आई और एक थप्प के साथ उसी तेजी के साथ गायब भी हो गयी , लगता है अखबार आ चुका है इसके प्रतिक्रिया स्वरुप अब कई घरो के बाहर वाले जालीदार दरवाजो के खुलने में जोर से खीचने की ची और स्वत् बंद होने की धडाम के स्वर सुनायी देने लगी है , धीरे-धीरे शोर बढ़ रहा है ,लोहे के गेटों के खुलने बंद होने की चिर-परचित धातुमय धव्नियां स्पष्ट सन्देश दे रही है कि अमुक घर का भी कोई न कोई व्यक्ति जाग चुका है...
जल्दी जल्दी गुसलखाने में घुस ब्रुश से दन्त साफ़ करने की औपचारिकता निभा रहा हूँ , मंजन की समतल टयूब का गले तक जोर से मर्दन करने पश्चात भी मटर के दाने बराबर पेस्ट निकल पाया , चलो फिलहाल इसी से काम चलाओ कल इसको काट कर आज से बेहतर नतीजे निकालेंगे, टंकी का पाने एकदम बर्फीला है , न तो गर्म करने का समय है और ना ही सुविधाजनक साधन , सी सी करते हुए , मुख और नथुनों से निकलती दृश्य भांप के मध्य ठन्डे पानी का यह सितम झेल ही लिया है , कुल्ला हो चुका है , चेहरा धुल चुका है , आखों के गीदड़ के सफाई शायद पूर्ण नहीं हो पाई है, वो तो किसी के टोकने तक जारी रहने वाली है....
मेरी हौंसला अफजाई के लिए माँ भी जग चुकी है , और मेरे हाथ में पकड़ा गयी है , कम दूध की कालीमिर्च युक्त तेज चीनी वाली चाय का गिलास जिससे मै अपने हाथो को सेक रहा हूँ और पीते-पीते ही टयूशन का रजिस्टर खोज रहा हूँ , मेरे इस रूखे गले को कितना तर कर रही है यह ममतामयी चाय , सुबह-सुबह इस समय कुछ खाने का सवाल ही नहीं पर माँ की तो आदत है ना पूछने की और हमारी झल्लाने की ...
साइकिल उठा चल पड़े है नफीस मास्साब के घर, हिसाब के सवालों से जूझने, उनके उत्तरों को खोजने के संघर्ष में अपना भविष्य संवारने ....
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