दो जोड़ी कपड़े ही
तन के लिए पर्याप्त थे
दूर के सरकारी स्कूल के
हेडमास्टर साहब लाजवाब थे...
कई मील रोज
पैदल जाने की कसरत थी
और जी तोड़ मेहनत से
अपनी किस्मत बदलने की हसरत थी
न घोड़ा गाडी , न कार
न बस न स्कूटर न हवाई जहाज
पर बहुत ऊँचे थे उनके ख्वाब...
दादा कृषक थे गेहूं उगाते थे
और उसे पिसा हाट में बेचने जाते थे
कम में ही गुजारा होता था
और ईश स्तुति कर
परिवार सुख चैन न खोता था
देख दिखावे का न कोई शोर था
बच्चों की पढाई पे ही जोर था....
पैरों में जूते तक न होते थे
साबुन की पिल्ली टिक्की से
वे अपने सर को धोते थे
किसी विवाह-समारोह में जाना
भयंकर मानसिक द्वन्द था
खद्दर के निक्कर में भी पैबंद था
स्कूल की फीस तक जुटाने में
पसीने छूट जाते थे
पैसे बचाने के लिए
खुद ही खाना बनाते थे
शहर के कुछ
सबल रिश्तेदारों का अहसान था
पर मन उनकी फब्तियों से
कितना परेशान था ....
पढ़ लिख जल्द से जल्द
सरकारी नौकरी पाने का ही ख्वाब था
दादी-दादी के घोर कष्टों का
हृदय बीधता प्रबल अहसास था
छोटे भाइयों की जिम्मेदारी उठानी थी
बहनों के हाथों हल्दी भी लगानी थी...
नौकरी पा अपने कर्तव्यों का
निर्वहन करते गए
दिन प्रतिदिन नयी पीढी के
खर्चे भी बढ़ते गए
सारे पुराने उधार चुकाते गए
भविष्य सुरक्षित रखने के लिए
बचाते भी गए...
न बाहर होटलों में कभी खाया
न किसी वर्ष अपना जन्मदिन मनाया
न शनिवार शाम की कॉकटेल पार्टी थी
न कोई AC कार हफ्ते भर में ही
टैंक भर तेल खाती थी
न माल न शौपिंग
न घूमने फिरने का खर्चा था
न नित्य नए खरीदे
इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से
समय और चैन का हर्जा था ...
अपना एक गरम सूट कई वर्षो चलाया
पर हमें अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाया
सीमित साधनों में उनके प्रबंध अच्छे थे
उनकी पहली प्राथमिकता उनके बच्चे थे ....
अपने पे वो आज भी खर्च नहीं कर पाते है
हम बच्चे उनकी इस बात पे
कितना नाराज हो जाते है
हमें जरुरत नहीं तो अब
पैसे किसके लिए बचाते हो
क्यों नहीं घर का ये पुराना सामान बदल
नया लेकर आते हो ?
फ़ोन पे बार-बार ये ही बतियाना
हमारी उनसे नाराजगी का कारण बन जाता है
पर उनका गुजरा समय
हमें कहाँ कब याद आता है ?
अतीत के कष्टों की
उनके हृदय में आज भी टीस है
मितव्ययी होने की हमको
उनकी नेक सीख है
कहते है शिक्षा नहीं देते अपने बाप को
पिताजी कैसे बदल दे
एकाएक से अपने आप को...
तन के लिए पर्याप्त थे
दूर के सरकारी स्कूल के
हेडमास्टर साहब लाजवाब थे...
कई मील रोज
पैदल जाने की कसरत थी
और जी तोड़ मेहनत से
अपनी किस्मत बदलने की हसरत थी
न घोड़ा गाडी , न कार
न बस न स्कूटर न हवाई जहाज
पर बहुत ऊँचे थे उनके ख्वाब...
दादा कृषक थे गेहूं उगाते थे
और उसे पिसा हाट में बेचने जाते थे
कम में ही गुजारा होता था
और ईश स्तुति कर
परिवार सुख चैन न खोता था
देख दिखावे का न कोई शोर था
बच्चों की पढाई पे ही जोर था....
पैरों में जूते तक न होते थे
साबुन की पिल्ली टिक्की से
वे अपने सर को धोते थे
किसी विवाह-समारोह में जाना
भयंकर मानसिक द्वन्द था
खद्दर के निक्कर में भी पैबंद था
स्कूल की फीस तक जुटाने में
पसीने छूट जाते थे
पैसे बचाने के लिए
खुद ही खाना बनाते थे
शहर के कुछ
सबल रिश्तेदारों का अहसान था
पर मन उनकी फब्तियों से
कितना परेशान था ....
पढ़ लिख जल्द से जल्द
सरकारी नौकरी पाने का ही ख्वाब था
दादी-दादी के घोर कष्टों का
हृदय बीधता प्रबल अहसास था
छोटे भाइयों की जिम्मेदारी उठानी थी
बहनों के हाथों हल्दी भी लगानी थी...
नौकरी पा अपने कर्तव्यों का
निर्वहन करते गए
दिन प्रतिदिन नयी पीढी के
खर्चे भी बढ़ते गए
सारे पुराने उधार चुकाते गए
भविष्य सुरक्षित रखने के लिए
बचाते भी गए...
न बाहर होटलों में कभी खाया
न किसी वर्ष अपना जन्मदिन मनाया
न शनिवार शाम की कॉकटेल पार्टी थी
न कोई AC कार हफ्ते भर में ही
टैंक भर तेल खाती थी
न माल न शौपिंग
न घूमने फिरने का खर्चा था
न नित्य नए खरीदे
इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से
समय और चैन का हर्जा था ...
अपना एक गरम सूट कई वर्षो चलाया
पर हमें अच्छे से अच्छे स्कूल में पढ़ाया
सीमित साधनों में उनके प्रबंध अच्छे थे
उनकी पहली प्राथमिकता उनके बच्चे थे ....
अपने पे वो आज भी खर्च नहीं कर पाते है
हम बच्चे उनकी इस बात पे
कितना नाराज हो जाते है
हमें जरुरत नहीं तो अब
पैसे किसके लिए बचाते हो
क्यों नहीं घर का ये पुराना सामान बदल
नया लेकर आते हो ?
फ़ोन पे बार-बार ये ही बतियाना
हमारी उनसे नाराजगी का कारण बन जाता है
पर उनका गुजरा समय
हमें कहाँ कब याद आता है ?
अतीत के कष्टों की
उनके हृदय में आज भी टीस है
मितव्ययी होने की हमको
उनकी नेक सीख है
कहते है शिक्षा नहीं देते अपने बाप को
पिताजी कैसे बदल दे
एकाएक से अपने आप को...
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