Saturday, 4 July 2015

पुराना घर अब भी वहीँ है.…

मकानों की तादाद पहले से ज्यादा है
गली के नुक्कड़ पे भी भीड़ बेताहशा है
बगल का बाग न जाने कहाँ खो गया है
किसने ये ढेर सारा  यह कंकरीट बो दिया है
दौड़ते बच्चों की अब आवाज़ नहीं आती
पड़ोस की आंटी कटोरे में खीर नहीं लाती
न पुलिस को चोर की तलाश है
न आईस-पाईस के धप्पे पे शोर बेहिसाब है
बचपन टीवी , मोबाइल में सिमट गया है
आगे बढ़ा कि नीचे धंस गया है ???
इतने अनजान  चेहरों के बीच
पहचाना कोई नहीं है
पुराना घर अब भी वहीँ है …

लोहे का गेट जंग खाया सा  है
बागीचे में झाड़ उग आया सा है
हैंडपम्प सूखा सूखा सा है
रंग दीवारों का रूठा-रूठा सा है
खिड़कियों की जलियां धुल में सनी है
छत पे  बस  डिश  की  छतरी ही  नई है
दीमक खा  गया है सारी  फंटियों को
ढीली पडी साल की चौखट की सुध किसको ?
शीशम  का दरवाजा पानी  पा अकड़ गया है
उसका कुंडा भी कबका बिगड़ गया है
दो बूढ़ी आत्मायें सशरीर जमी है 
पुराना घर अब भी वहीँ   है....

बरामदे  में अब पानी ठहरता है
बैठा हुआ दानेदार मार्बल का फर्श
मरम्मत के लिए कहता है
बिजली के सफ़ेद बटन मटमैले हुए
कितने फोटो फ्रेम अब टेढ़े हुए
वाश -बेसिन  का नल बेहिसाब टपकता है
उखडती पपड़ियों के बीच
दीवार का पहले वाला रंग  दीखता  है
बाथरूम की फिटिंग्स सारी ढीली हुई
सीलन से दोछत्ती  भी गीली हुई
कानिस में रखा सामान तितरबितर है 
काली पड़ी रसोई की छत की अब किसको फिकर है 
पता नहीं क्या गलत और  क्या सही है
पुराना घर अब भी वहीँ है.…

न घंटी बजा कुल्फी बेचने वाला है
न बुढिया के बाल न दूधियाँ गोले वाला है
मदारी  अब भालू नहीं लाता
संकरी हो चुकी गली में अब हाथी नहीं आता
काली माई बन के  कोई नहीं डराता
डुगडुग्गी पे अब बन्दर का नांच  नहीं
बाईस्कोप में झांकना बीते कल की बात हुई
अपनी आसमानी तरक्की की यहीं तो कमी है
पुराना घर अब भी वहीँ है …

इस आँगन का पला बड़ा बच्चा
कहीं दूर निकल गया है
खुद ही में खो शायद
रास्ता भटक गया है
इसलिए बूढ़ी आँखों को
अब किसी से कुछ आस नहीं
अवसान की इस बेला अब फ़रियाद नहीं
मकान को घर बनाने वाला अब थक गया है
विश्राम करने के लिए  रुक गया है
जितना हो सके अब उतना ही करता है
पर ये वीरानापन उसे खूब अखरता है
स्वाभिमान से  जीने में ही उसकी ख़ुशी है
पुराना घर अब भी वहीँ है.…

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