रविश-ए-गुल[1] है कहां यार हंसाने वाले
हमको शबनम [2] की तरह सब है रूलाने वाले
सोजिशे-दिल[3] का नहीं अश्क बुझाने वाले
बल्कि हैं और भी यह आग लगाने वाले
मुंह पे सब जर्दी-ए-रूखसार[4] कहे देती है
क्या करें राज मुहब्बत के छिपाने वाले
देखिए दाग जिगर पर हों हमारे कितने
वह तो इक गुल हैं नया रोज खिलाने वाले
दिल को करते है बुतां[5], थोड़े से मतलब पे खराब
ईंट के वास्ते, मस्जिद हैं ये ढाने वाले
नाले हर शब को जगाते हैं ये हमसायों को
बख्त-ख्वाबीदा[6] को हों काश, जगाने वाले
खत मेरा पढ़ के जो करता है वो पुर्जे-पुर्जे
ऐ ‘जफर’, कुछ तो पढ़ाते हैं पढ़ाने वाले
हमको शबनम [2] की तरह सब है रूलाने वाले
सोजिशे-दिल[3] का नहीं अश्क बुझाने वाले
बल्कि हैं और भी यह आग लगाने वाले
मुंह पे सब जर्दी-ए-रूखसार[4] कहे देती है
क्या करें राज मुहब्बत के छिपाने वाले
देखिए दाग जिगर पर हों हमारे कितने
वह तो इक गुल हैं नया रोज खिलाने वाले
दिल को करते है बुतां[5], थोड़े से मतलब पे खराब
ईंट के वास्ते, मस्जिद हैं ये ढाने वाले
नाले हर शब को जगाते हैं ये हमसायों को
बख्त-ख्वाबीदा[6] को हों काश, जगाने वाले
खत मेरा पढ़ के जो करता है वो पुर्जे-पुर्जे
ऐ ‘जफर’, कुछ तो पढ़ाते हैं पढ़ाने वाले
शब्दार्थ:
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