Friday, 14 June 2013

बापू के प्रति / सुमित्रानंदन पंत

तुम मांस-हीन तुम रक्त-हीन
हे अस्थि-शेष! तुम अस्थि-हीन
तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल
हे चिर पुराण हे चिर नवीन!

तुम पूर्ण इकाई जीवन की
जिसमें असार भव-शून्य लीन
आधार अमर होगी जिसपर
भावी की संस्कृति समासीन!


तुम मांस तुम्ही हो रक्त-अस्थि--
निर्मित जिनसे नवयुग का तन
तुम धन्य! तुम्हारा नि:स्व-त्याग
है विश्व-भोग का वर साधन।

इस भस्म-काम तन की रज से
जग पूर्ण-काम नव जग-जीवन
बीनेगा सत्य-अहिंसा के
ताने-बानों से मानवपन!


सदियों का दैन्य-तमिस्र तूम
धुन तुमने कात प्रकाश-सूत
हे नग्न! नग्न-पशुता ढँकदी
बुन नव संस्कृत मनुजत्व पूत।
जग पीड़ित छूतों से प्रभूत
छू अमित स्पर्श से हे अछूत!
तुमने पावन कर मुक्त किये
मृत संस्कृतियों के विकृत भूत!


सुख-भोग खोजने आते सब
आये तुम करने सत्य खोज
जग की मिट्टी के पुतले जन
तुम आत्मा के मन के मनोज!
जड़ता हिंसा स्पर्धा में भर
चेतना अहिंसा नम्र-ओज

पशुता का पंकज बना दिया
तुमने मानवता का सरोज!

पशु-बल की कारा से जग को
दिखलाई आत्मा की विमुक्ति
विद्वेष घृणा से लड़ने को
सिखलाई दुर्जय प्रेम-युक्ति
वर श्रम-प्रसूति से की कृतार्थ
तुमने विचार-परिणीत उक्ति
विश्वानुरक्त हे अनासक्त!
सर्वस्व-त्याग को बना भुक्ति!


सहयोग सिखा शासित-जन को
शासन का दुर्वह हरा भार
होकर निरस्त्र सत्याग्रह से
रोका मिथ्या का बल-प्रहार:
बहु भेद-विग्रहों में खोई
ली जीर्ण जाति क्षय से उबार

तुमने प्रकाश को कह प्रकाश
औ अन्धकार को अन्धकार।

उर के चरखे में कात सूक्ष्म
युग-युग का विषय-जनित विषाद
गुंजित कर दिया गगन जग का
भर तुमने आत्मा का निनाद।

रँग-रँग खद्दर के सूत्रों में
नव-जीवन-आशा स्पृह्यालाद
मानवी-कला के सूत्रधार!
हर लिया यन्त्र-कौशल-प्रवाद।

जड़वाद जर्जरित जग में तुम
अवतरित हुए आत्मा महान
यन्त्राभिभूत जग में करने
मानव-जीवन का परित्राण
बहु छाया-बिम्बों में खोया
पाने व्यक्तित्व प्रकाशवान

फिर रक्त-माँस प्रतिमाओं में
फूँकने सत्य से अमर प्राण!

संसार छोड़ कर ग्रहण किया
नर-जीवन का परमार्थ-सार
अपवाद बने मानवता के
ध्रुव नियमों का करने प्रचार

हो सार्वजनिकता जयी अजित!
तुमने निजत्व निज दिया हार
लौकिकता को जीवित रखने
तुम हुए अलौकिक हे उदार!

मंगल-शशि-लोलुप मानव थे
विस्मित ब्रह्मांड-परिधि विलोक
तुम केन्द्र खोजने आये तब
सब में व्यापक गत राग-शोक

पशु-पक्षी-पुष्पों से प्रेरित
उद्दाम-काम जन-क्रान्ति रोक
जीवन-इच्छा को आत्मा के
वश में रख शासित किए लोक।

था व्याप्त दिशावधि ध्वान्त भ्रान्त
इतिहास विश्व-उद्भव प्रमाण
बहु-हेतु बुद्धि जड़ वस्तु-वाद
मानव-संस्कृति के बने प्राण
थे राष्ट्र अर्थ जन साम्य-वाद

छल सभ्य-जगत के शिष्ट-मान
भू पर रहते थे मनुज नहीं
बहु रूढि-रीति प्रेतों-समान--

तुम विश्व मंच पर हुए उदित
बन जग-जीवन के सूत्रधार
पट पर पट उठा दिए मन से
कर नव चरित्र का नवोद्धार

आत्मा को विषयाधार बना
दिशि-पल के दृश्यों को सँवार
गा-गा--एकोहं बहु स्याम
हर लिए भेद भव-भीति-भार!

एकता इष्ट निर्देश किया
जग खोज रहा था जब समता

अन्तर-शासन चिर राम-राज्य
औ’ वाह्य आत्महन-अक्षमता
हों कर्म-निरत जन राग-विरत
रति-विरति-व्यतिक्रम भ्रम-ममता
प्रतिक्रिया-क्रिया साधन-अवयव
है सत्य सिद्ध गति-यति-क्षमता।

ये राज्य प्रजा जन साम्य-तन्त्र
शासन-चालन के कृतक यान
मानस मानुषी विकास-शास्त्र
हैं तुलनात्मक सापेक्ष ज्ञान

भौतिक विज्ञानों की प्रसूति
जीवन-उपकरण-चयन-प्रधान
मथ सूक्ष्म-स्थूल जग बोले तुम--
मानव मानवता का विधान!

साम्राज्यवाद था कंस बन्दिनी
मानवता पशु-बलाक्रान्त

श्रृंखला दासता प्रहरी बहु
निर्मम शासन-पद शक्ति-भ्रान्त
कारा-गृह में दे दिव्य जन्म
मानव-आत्मा को मुक्त कान्त
जन-शोषण की बढ़ती यमुना
तुमने की नत-पद-प्रणत शान्त!


कारा थी संस्कृति विगत भित्ति
बहु धर्म-जाति-गत रूप-नाम
बन्दी जग-जीवन भू-विभक्त
विज्ञान-मूढ़ जन प्रकृति-काम
आए तुम मुक्त पुरुष कहने--
मिथ्या जड़-बन्धन सत्य राम
नानृतं जयति सत्यं मा भैः
जय ज्ञान-ज्योति तुमको प्रणाम!


रचनाकाल: अप्रैल’१९३६

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