Friday, 14 June 2013


लोहे के पेड़ हरे होंगे, 
तू गान प्रेम का गाता चल, 
नम होगी यह मिट्टी ज़रूर, 
आँसू के कण बरसाता चल। 


सिसकियों और चीत्कारों से, 
जितना भी हो आकाश भरा, 
कंकालों क हो ढेर, 
खप्परों से चाहे हो पटी धरा । 

आशा के स्वर का भार, 
पवन को लेकिन, लेना ही होगा, 
जीवित सपनों के लिए मार्ग 
मुर्दों को देना ही होगा। 


रंगो के सातों घट उँड़ेल, 
यह अँधियारी रँग जायेगी, 
ऊषा को सत्य बनाने को 
जावक नभ पर छितराता चल। 

आदर्शों से आदर्श भिड़े, 
प्रज्ञा प्रज्ञा पर टूट रही। 
प्रतिमा प्रतिमा से लड़ती है, 
धरती की किस्मत फूट रही। 


आवर्तों का है विषम जाल, 
निरुपाय बुद्धि चकराती है, 
विज्ञान-यान पर चढी हुई 
सभ्यता डूबने जाती है। 

जब-जब मस्तिष्क जयी होता, 
संसार ज्ञान से चलता है, 
शीतलता की है राह हृदय, 
तू यह संवाद सुनाता चल। 


सूरज है जग का बुझा-बुझा, 
चन्द्रमा मलिन-सा लगता है, 
सब की कोशिश बेकार हुई, 
आलोक न इनका जगता है, 

इन मलिन ग्रहों के प्राणों में 
कोई नवीन आभा भर दे, 
जादूगर! अपने दर्पण पर 
घिसकर इनको ताजा कर दे। 


दीपक के जलते प्राण, 
दिवाली तभी सुहावन होती है, 
रोशनी जगत् को देने को 
अपनी अस्थियाँ जलाता चल। 

क्या उन्हें देख विस्मित होना, 
जो हैं अलमस्त बहारों में, 
फूलों को जो हैं गूँथ रहे 
सोने-चाँदी के तारों में। 


मानवता का तू विप्र! 
गन्ध-छाया का आदि पुजारी है, 
वेदना-पुत्र! तू तो केवल 
जलने भर का अधिकारी है। 

ले बड़ी खुशी से उठा, 
सरोवर में जो हँसता चाँद मिले, 
दर्पण में रचकर फूल, 
मगर उस का भी मोल चुकाता चल। 


काया की कितनी धूम-धाम! 
दो रोज चमक बुझ जाती है; 
छाया पीती पीयुष, 
मृत्यु के उपर ध्वजा उड़ाती है । 

लेने दे जग को उसे, 
ताल पर जो कलहंस मचलता है, 
तेरा मराल जल के दर्पण 
में नीचे-नीचे चलता है। 


कनकाभ धूल झर जाएगी, 
वे रंग कभी उड़ जाएँगे, 
सौरभ है केवल सार, उसे 
तू सब के लिए जुगाता चल। 

क्या अपनी उन से होड़, 
अमरता की जिनको पहचान नहीं, 
छाया से परिचय नहीं, 
गन्ध के जग का जिन को ज्ञान नहीं? 


जो चतुर चाँद का रस निचोड़ 
प्यालों में ढाला करते हैं, 
भट्ठियाँ चढाकर फूलों से 
जो इत्र निकाला करते हैं। 

ये भी जाएँगे कभी, मगर, 
आधी मनुष्यतावालों पर, 
जैसे मुसकाता आया है, 
वैसे अब भी मुसकाता चल। 


सभ्यता-अंग पर क्षत कराल, 
यह अर्थ-मानवों का बल है, 
हम रोकर भरते उसे, 
हमारी आँखों में गंगाजल है। 

शूली पर चढ़ा मसीहा को 
वे फूल नहीं समाते हैं 
हम शव को जीवित करने को 
छायापुर में ले जाते हैं। 


भींगी चाँदनियों में जीता, 
जो कठिन धूप में मरता है, 
उजियाली से पीड़ित नर के 
मन में गोधूलि बसाता चल। 

यह देख नयी लीला उनकी, 
फिर उनने बड़ा कमाल किया, 
गाँधी के लोहू से सारे, 
भारत-सागर को लाल किया। 


जो उठे राम, जो उठे कृष्ण, 
भारत की मिट्टी रोती है, 
क्या हुआ कि प्यारे गाँधी की 
यह लाश न जिन्दा होती है? 

तलवार मारती जिन्हें, 
बाँसुरी उन्हें नया जीवन देती, 
जीवनी-शक्ति के अभिमानी! 
यह भी कमाल दिखलाता चल। 


धरती के भाग हरे होंगे, 
भारती अमृत बरसाएगी, 
दिन की कराल दाहकता पर 
चाँदनी सुशीतल छाएगी। 

ज्वालामुखियों के कण्ठों में 
कलकण्ठी का आसन होगा, 
जलदों से लदा गगन होगा, 
फूलों से भरा भुवन होगा। 


बेजान, यन्त्र-विरचित गूँगी, 
मूर्त्तियाँ एक दिन बोलेंगी, 
मुँह खोल-खोल सब के भीतर 
शिल्पी! तू जीभ बिठाता चल।

रचनाकार: रामधारी सिंह "दिनकर" 

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