उनकी गुस्ताखियाँ
किस कदर परवान चढ़ती है
हर रोज ही
हम सबको हैरान करती है
अपने कहे से
उनको कब कहाँ गुरेज ???
उनकी जुबां तो हमेशा
खंजर का ही काम करती है
पाले है कनेर के शजर
हमने आंगन में अपने
अब उनसे मीठे फल की चाहत
हमको ही बदनाम करती है
धुँआ घर की चौके से नहीं उठता मेरे
हर रोज की फाकाकशी ही
अपनी ज़िन्दगी बयां करती है
खुदगर्ज सियासत चिपकी
जोंक सी मुल्क को मेरे
रफ्ता-रफ्ता हमारा ही
कत्लेआम करती है
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